तेलुगु और हिंदी का अनुवाद के माध्यम से सह-संबंध : एक परिचय
तेलुगु और हिंदी का अनुवाद के माध्यम से सह-संबंध : एक परिचय
प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू
12 वां विश्व हिंदी सम्मेलन
फिजी, 2023. स्मारिका.
विदेश मंत्रालय, भारत सरकार.
दक्षिण
भारत में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी की
प्रेरणा से राष्ट्रीय एकता के लिए हिंदी के पठन-पाठन का श्री गणेश हुआ. किसी भी
राष्ट्र की एकता के लिए एक अनुपम एवं अनन्य महत्वपूर्ण हथियार भाषा है. भारत देश
के लिए वह भाषा निस्संदेह हिंदी ही है. दक्षिण भारत के सभी भाषाओं के लोगों ने इस
बात को पहचानकर हिंदी पठन-पाठन शुरु किया. तेलुगु प्रांतों में भी इस सिलसिले में
स्वतंत्र संग्राम से लेकर आजतक इस कार्य में अत्यंत मनोयोग से लगे हुए हैं. सिर्फ
पठन-पाठन तक सीमित न रहकर साहित्य के प्रति भी रुचि रहने के कारण हिंदी में अपनी
रचनाओं का सृजन करके हिंदी साहित्य भण्डार की श्री वृद्धि की है. हमारी राष्ट्र
भाषा की उन्नति में अनेक लोगों का योगदान है.
यह
सर्व विदित सत्य है कि भारत जैसे बहु भाषा-भाषी देश में सांस्कृतिक समरसता एवं
भावात्मक ऐक्य- संधान का महत्व निर्विवाद है. साहित्य के क्षेत्र में राष्ट्रीय एकता के मूलभूत तत्वों की पुष्टि हेतु
विभिन्न भाषाओं के बीच आदान-प्रदान होना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य
भी है. इस दिशा में हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के बीच उल्लेखनीय कार्य सम्पन्न
हुआ है. तेलुगु प्रांतों के साहित्यकारों ने न केवल राष्ट्रवाणी के माध्यम से
महत्वपूर्ण कृतियों का सृजन करके अपनी विशेषताओं व भावात्मक गरिमा से हिन्दी-संसार
को परिचित कराया है, बल्कि तेलुगु की प्रतिनिधि रचनाओं का
रूपान्तरण हिन्दी में प्रस्तुत करके तेलुगु के साहित्य-सौरभ को बिखेर दिया है. मैं
इस लेख के अंतर्गत तेलुगु अनुवादकों के
योगदान के बारे में विवरण दे रहा हूँ.
राष्ट्र
भाषा की उन्नति के लिए दोनों भाषाओं में आदान-प्रदान की आवश्यकता है. यह कार्य
अनुवाद के द्वारा कर सकते हैं. तेलुगु प्रांतों में यह कार्य अत्यन्त तीव्र गति से
चल रहा है. साहित्य की
अन्य विधाओं की तुलना में काव्य का रूपान्तरण करना कठिन कार्य और कभी-कभी असंभव भी
प्रमाणित होता है. वास्तव में पद्यानुवाद मूल का यथासंभव निकटतम समतुल्य होता है,
शतांशतः मूल नहीं. तेलुगु प्रांतों के हिन्दी प्रेमी रचनाकारों ने
तेलुगु की विशिष्ट काव्य-कृतियों का अनुवाद हिन्दी में प्रस्तुत कर असंभव को संभव
सिद्ध कर दिया है. भाव और अनुभूति के क्षेत्र में अनुवादकों ने अपनी सीमित परिधि
में ही काव्य-भाषा की अर्थ-रचना की जटिलताओं को रूपान्तरित किया है. इन
रूपान्तरकारों को कहीं-कहीं मूल कवि की भावना, कल्पना एवं
अनुभूति में अपने अंतरंग को रंग कर उसी प्रतिपाद्य को मर्मस्पर्शी ढंग से प्रस्तुत
करने में आशातीत सफलता मिली है.
तेलुगु
के भक्त कवियों में वेमना, पोतना
और गेयकार त्यागराज की पद्य कृतियों को अनूदित कर हिन्दी साहित्य भंडार को
सुसंपन्न बनाने में हिन्दी प्रेमी तेलुगु रचनाकारों व अनुवादकों का योग स्तुत्य
रहा है. सन् 1957 में "संत वेमना" शीर्षक से डॉ. चलसानि ने तेलुगु के
मध्यकालीन महान संत कवि वेमना के सौ पद्यों का हिन्दी रूपान्तर प्रस्तुत कर
हिन्दी-तेलुगु भाषाओं की प्रकृतियों, विशिष्टताओं तथा बारीकियों
का परिचय दिया है. चलसानि सुब्बाराव जी के इस महत् प्रयास के फलस्वरूप हिन्दी के
निर्गुण संत कवि कबीर के समक्ष वेमना की प्रतिभा को हिन्दी संसार के लिए ग्राह्य
बनाया है –
"मूर्ख की बातों में होती है आडंबरता,
पर धीमी-धीमी चलती है सज्जन की जीभ,
कहत वेमना दोनों में तो अंतर जानों खासा
जैसे सोना बजता नहीं ज्यों कांसा."
वेमना
के मुक्तक छंदों के मूल भाव को ग्रहण कर अनुवादक ने उसकी मौलिकता को भंग किए बिना
बड़ी सावधानी बरतते हुए पद्यानुवाद को बड़ी प्रांजल एवं औचित्यपूर्ण शैली में
प्रस्तुत किया है. अनुवादक ने इन छंदों में प्रत्येक दो पंक्तियों में तुक की
व्यवस्था करके छंदोबद्धता का सुरूचिपूर्ण निर्वाह किया है.
तेलुगु
के महान कवि पोतना कृत “आन्ध्र महाभागवतम् " रचना के चार उपाख्यानों ‘प्रहलाद
चरित्र', 'गजेन्द्र मोक्षम्', 'वामन चरित्र', और 'अंबरीश कथा'
का हिन्दी रूपान्तर भी वाराणसी राममूर्ति 'रेणु'
ने प्रांजल शैली में अतुकान्त छंदों में किया है. यह अनुवाद मूल
कविता का यथासंभव निकट प्रतीत होता है. कथ्य और अभिव्यक्ति का योग समवेत रूप में
होने के कारण अनूदित रचना की प्रभाविष्णुता बढ़ गई है. इसमें कथ्य के अनुरूप समास-प्रधान
तथा व्यास-प्रधान काव्य शैली दिखाई देती है. प्रभावात्मकता को बढ़ाने वाले मूल
काव्य-तत्वों के जुड़ जाने के कारण यह अनुभूति रचना मूल की अपेक्षा अधिक सुंदर बन
पड़ी है. राममूर्ति 'रेणु' जी ने
आधुनिक तेलुगु काव्यकार और प्रसिद्ध दलित रचनाकार गुर्रम जाषुआ की काव्यकृति 'गब्बिलम्' का हिन्दी रूपान्तर ‘चमगादड़' शीर्षक से प्रस्तुत किया है. आधुनिक तेलुगु कविता में नवीन मानव मूल्यों
की प्रतिष्ठा द्वारा समाज में दलित-मानव पर किए जाने वाले सामाजिक अत्याचारों के
विरुद्ध विद्रोह करने वाले गुर्रम् जाषुआ ने संवादात्मक एवं व्यंग्य शैली में 'गब्बिलम्' रचना में अपने मौलिक व क्रांतिकारी
विचारों को व्यंजित किया है. यथा -
"राजर्षि उस प्रदेश के,
निसिदिन तपोमग्न,
तब स्वागत - आतिथ्य करेंगे आनन्दमग्न,
आदर औरों की प्रतिभा का वे करते हैं,
ये गुण आज नहीं गोचर जग में होते हैं."
राममूर्ति
'रेणु' ' जी ने मूल
कविता की भावनाओं को हृदयंगम करके मूल कविता का संस्करण-सा उक्त अनुवाद को
प्रस्तुत किया है. 'रेणु' जी ने अपनी
इस रचना में एक विशिष्ट कृति की विशिष्ट अनुभूति को अनूदित कर इसे अपने सीमित
परिसरों में मूल रचना की प्रतिकृति का रूप देकर अपनी अद्भुत क्षमता का परिचय दिया
हैं. इस रचना में संपूर्ण कथ्य को एक ही छंद में उतार कर अनुवादक ने उसे गरिमा
प्रदान की है.
डॉ.
इलपावलूरि पांडुरंग राव ने तेलुगु के प्रसिद्ध भक्त कवि त्यागराज के विशिष्ट पदों
का हिन्दी अनुवाद- 'चन्दना',
'अर्चना', 'भावना', 'चेतना',
'सांत्वाना', और 'साधना'
- सात शीर्षकों के अंतर्गत किया है.
"त्यागराज सन्नुतमुनि कीर्तित पुरुषपुरातन चरित सनातन,
दशरथ - नंदन श्रिति जनपालन सतत परायण, विजित विरावण"
पुत्तेटि
सुब्रह्मणयाचार्युलु 'विश्वप्रेमी'
ने तेलुगु के अत्यंत लोकप्रिय नीति शतक 'सुमति
शतक' का अत्यंत सुन्दर पद्यानुवाद वर्ष 1970 में 'सुमती-सूक्ति-सुधा' शीर्षक से प्रकाशित किया है. इस
में एक सौ नौ नीति मुक्तकों का छन्दोबद्ध अनुवाद किया गया है. प्रत्येक अनूदित
मुक्तक में अनुवाद की सुडौलता, सजीवता एवं प्रभाविष्णुता
दिखाई.. देती हैं, यथा -
"वक्त पर जो बन्धु सब के काम आता है नहीं,
पूजादिकों से तृप्त है जो देव वर देता नहीं,
युद्ध में जो अश्व बिल्कुल काम देता है नहीं,
छोड़ देना लाज़मी उन सभी को 'सुमती' वही."
'सुमती-सूक्ति-सुधा' के सभी छन्दों का सरस रूपान्तरण
प्रस्तुत कर अनुवादक ने हिन्दी काव्य जगत की बहुत बड़ी क्षति को पूरा किया है,
क्योंकि हिन्दी नीति काव्यों में सुमती शतक का सा व्यावहारिक,
सामाजिक, मनोवैज्ञानिक तथा औचित्यपूर्ण नीति
काव्य का नितांत अभाव है. तेलुगु से हिन्दी में अनूदित काव्यों में श्री
दुर्गानन्द की रचना 'फिरदौसी' उल्लेखनीय
है. गुर्रम् जाषुआ की तेलुगु काव्य-कृति ‘फिरदौसी’ में विडंबनापूर्ण परिवेश में
मानव जीवन की मार्मिक एवं दुखद झांकी प्रस्तुत की गई है. मूल कवि की संवेदना,
मूल दृष्टि व काव्यादर्श के साथ-साथ काव्यात्मा के समग्र स्वरूप को
आत्मसात करके श्री दुर्गानंद ने उक्त प्रबंध काव्य का हिन्दी रूपान्तरण प्रस्तुत
करके हिन्दी कविता को सुसम्पन्न बनाया है. तेलुगु की वचन कविता के पितामह पुरिपंडा
अप्पलस्वामी की अड़तीस कविताओं को श्री गुर्रम् सुब्बाराव जी ने सन् 1966 में 'तेलुगु के आधुनिक कवि पुरिपंडा अप्पलस्वामी' शीर्षक
से प्रकाशित किया है. इस काव्य-रूपान्तर में अनुवादक के मूल कवि के अंतरंग में बैठ
कर उनकी विशिष्ट भावनाओं तथा कोमल अनुभूतियों को, कविता
के मूल सौंदर्य को अक्षुण्ण रखते हुए
अत्यंत सहज शैली में प्रस्तुत किया है.
डॉ.
सूर्यनारायण 'भानु' ने आधुनिक तेलुगु के पैंतालीस कवियों की विशिष्ट कविताओं का हिन्दी
रूपान्तरण 'तेलुगु की आधुनिक काव्यधारा' शीर्षक से 'जागृति', 'कल्पना',
'प्रगति' आदि खंडों में प्रस्तुत किया है. कवि
सम्राट् विश्वनाथ सत्यनारायण, भाव कवि देवुलपल्लि
कृष्णशास्त्री, दलित कवि गुर्रम् जाषुआ और कवि श्रीरंगम नारायण बाबू की प्रतिनिधि कविताओं
का अनुवाद अत्यंत प्रांजल, उदात्त एवं प्रौढ़ भाषा में किया
है. डॉ. सूर्यनारायण 'भानु' जी ने मौलिक कविताओं में
अभिव्यंजित रस के अनुकूल मात्रिक छंदों का सफल प्रयोग किया है. उन्होंने तेलुगु के
प्रगतिशील कवि श्रीरंगम श्रीनिवास राव (श्री श्री) की प्रतिनिधि कविताओं का
रूपान्तरण भी किया है. 'तेलुगु के आधुनिक कवि श्री श्री'
शीर्षक काव्य कृति से उद्धृत ये पंक्तियाँ 'भानु'
जी की अनुवाद कला की विशिष्टता का परिचय देती हैं. यथा -
"भूत हूँ
यज्ञोपवीत हूँ
वैप्लव्य गीत हूँ मैं
सुधकरूँ तो पद्य होऊँ
पुकारूँ तो वाद्य होऊँ
अनल वेदी निकट में ही
रुधिर का नैवेद्य हूँ मैं. "
डॉ.
चावलि सूर्यनारायण मूर्ति जी ने 'आधुनिक
तेलुगु कविता-प्रथम भाग' के संपादन के साथ-साथ उसमें अनूदित
पैंसठ कविताओं में से बीस कविताओं का अनुवाद भी किया है. तेलुगु के प्रतिनिधि
कवियों की उत्कृष्ट कविताओं का अनुवाद मूर्ति जी ने मूल कविताओं की आत्मा को
आत्मसात् कर सुव्यवस्थित एवं प्रौढ़ हिन्दी काव्य-शैली में प्रस्तुत किया है.
'आधुनिक तेलुगु कविता भाग-2' में सत्तावन आधुनिक
तेलुगु कविताओं का अनुवाद प्रस्तुत किया गया है. तेलुगु और हिन्दी के महान कवि
आलूरि बैरागी चौधरी इस कृति के संपादक हैं. बैरागी जी ने लयात्मक मुक्तक छन्द में
कविताओं का सुंदर अनुवाद प्रस्तुत किया है. हिन्दी की उदात्त काव्य-शैली पर शब्द
भण्डार तथा मुहावरों पर अत्यधिक अधिकार होने के कारण बैरागी के सभी अनुवाद प्रांजल,
प्रौढ़, प्रवाहमय तथा प्रभावशाली बन पड़े हैं.
बैरागी जी की हिन्दी काव्य-शैली की क्षिप्रता को श्रीरंगम् नारायण बाबू की कविता 'वह बोला की अनूदित पंक्तियाँ प्रकट करती हैं –
“क्या बोली?
पीड़ा-पाताल पतित
दीन-हीन जन-गण के
मौन रुदन की पुकार
चीत्कार फुत्कार
अपने उर में बटोर
इस भीषण अन्धकार
अन्धेरे का वज्र चीर
तरुण अरुण राग
गाओ तुम
गहरे पैठ जाओ तुम
वह बोली."
श्री
पी. वी. नरसिंह राव ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता श्री सत्यनारायण कृत ‘वेइपडगलु’ का
हिन्दी रूपान्तर 'सहस्रफण'
शीर्षक से प्रस्तुत किया है. श्री राव ने मूल रचना के सूक्ष्म एवं
जटिल अभिव्यंजना-पक्ष को बड़ी क्षमता के साथ भाषांतरित किया है. डॉ. भीमसेन 'निर्मल' जी ने अपनी काव्यकृति 'कवि श्री आरुद्र' में आधुनिक तेलुगु के विख्यात कवि
श्री आरुद्र की प्रतिनिधि कविताओं का सुंदर काव्य-रूपान्तरण हिन्दी में प्रस्तुत
किया है. आरुद्र की कविताओं की विवरणात्मक समालोचना भी भीमसेन निर्मल जी ने की है.
उन्होंने इस कृति में संकलित कविताओं के अनुवाद में ठेठ हिन्दी शब्दों का अधिक
प्रयोग किया है, जिससे भाषा में सजीवता एवं प्रवाहमयता आ गयी
है. डॉ. निर्मल जी ने आधुनिक तेलुगु कविता के उत्कृष्ट कवि डॉ. सी. नारायण रेड्डी
जी की काव्य-कृति विश्वंभरा' का सुंदर काव्य रूपान्तर
प्रस्तुत कर हिन्दी काव्य-भंडार को सुसंपन्न बनाया है. निर्मल जी ने नारायण रेड्डी
जैसे महान् तेलुगु कवि की प्रतिभा के आलोक में भारतीय कविता को तेजोमय बनाया है.
फलतः नारायण रेड्डी जी को 'भारतीय ज्ञानपीठ' पुरस्कार से अलंकृत कर देश ने तेलुगु कविता को सम्मानित किया है.
सन्
1973 में चेबोलु शेषगिरि राव ने आन्ध्र के विख्यात कवि श्री मधुनापंतुलु
सत्यनारायण शास्त्री के 'आन्ध्र
पुराण' के एक प्रसंग का हिन्दी काव्य रूपांतरण 'मोतीनाथ' नाम से प्रस्तुत किया है. 'मोतीनाथ' चार अध्यायों में विभक्त खण्ड काव्य है. इस
काव्यानुवाद से मूल कविता के रसास्वादन को पाठकों के लिए सुग्राह्य बनाने में
अनुवादक का प्रयत्न एवं परिश्रम सराहनीय है.
डॉ.एम.
रंगय्या ने सन् 1977 में तेलुगु की कतिपय आधुनिक कविताओं का हिन्दी रूपान्तर 'आधुनिक तेलुगु काव्य परिमल' शीर्षक
से प्रस्तुत किया है. अनुवादक ने इस रचना में तेलुगु के सुप्रसिद्ध महाकवि गुरजाडा
से लेकर अत्याधुनिक कवियों की प्रतिनिधि कविताओं का सरल, प्रांजल
एवं प्रभावशाली भाषा में रूपांतरण किया है. इन्होंने अनुवाद में मुक्त लयात्मक
छन्दों के साथ-साथ सममात्रिक छन्दों का भी प्रयोग किया है. एम. मल्लेश्वर राव ( निर्मलानंद
वात्सायन) ने सन् 1978 में तेलुगु के प्रगतिवादी कवि श्री कुंदुर्ति की अट्ठाईस
कविताओं का 'मेरे बिना' शीर्षक से
काव्यानुवाद प्रस्तुत किया है. कुंदुर्ति की अट्ठाईस कविताओं के अनुवाद में हिन्दी
काव्य शैली का व्यवस्थित प्रयोग लयात्मक मुक्त छन्दों में किया गया है.
हिन्दी
के प्रमुख कवि, आलोचक एवं अनुवादक
आचार्य पी. आदेश्वर राव की 'तेलुगु
की नयी कविता' शीर्षक अनूदित काव्य रचना का प्रकाशन सन् 1979
में हुआ, जिसमें तेलुगु के नये कवियों की चौवालीस कविताओं का
हिन्दी अनुवाद लयात्मक मुक्त छन्दों में किया गया है. उन्होंने विषय और रस के
अनुकूल व्यास शैली और समास शैली का प्रयोग करते हुए मूल कविताओं के बाह्य एवं
आंतरिक सौंदर्य को अक्षुण्ण रख दिया है. बैरागी जी की कविता 'एक ज्योति' के अनुवाद में आचार्य पी. आदेश्वर राव जी
की लेखिनी में गतिशीलता के कारण सजीवता एवं प्रभविष्णुता अपने आप आ गई है. यथा –
"चिर आन्दोलित मानव उर में
भीरू की भीति में,
वीर के आश्वासन में
आशा और निराशा में,
तृप्ति और दुराशा में
खिले फूलों की सुगन्ध में,
कवि, गायक,
प्रेमीजन, शिल्पी के सौंदर्योपासना में
चटुल नर्तकी के नर्तन में,
योगीजन के अचल ध्यान में
फांसी पर चढ़ते,
विप्लवकारी के अंतिम मंदहास में
अनेक स्वरूपों के,
शत जीवन तरंगों के
फेन-हास-दीपों में जलती है एक ज्योति."
आचार्य
पी. आदेश्वर राव की दूसरी काव्यकृति 'लोकालोक' सन् 1989 में प्रकाशित हुई है. इसमें
आचार्य पी. आदेश्वर राव ने आन्ध्र के भूतपूर्व मुख्यमंत्री, तेलुगु
कवि डॉ. बेजवाडा गोपाल रेड्डी की चुनी हुई तेलुगु कविताओं का हिन्दी में रूपान्तर
किया है. डॉ. रेड्डी जी की कविताओं का हिन्दी रूपान्तर प्रस्तुत कर आदेश्वर राव जी
ने हिन्दी कविता क्षेत्र को विस्तृति प्रदान की है. हिन्दी काव्य- शैली तथा छन्दों
पर डॉ. राव का अधिकार उनके संपूर्ण काव्यानुवाद में दृष्टिगोचर होता है.
अनुवाद
कला की विशिष्टताओं की दृष्टि से तेलुगु से हिन्दी में अनूदित विवेच्य
काव्यकृतियाँ अत्यंत विशिष्ट बन पड़ी हैं. कथ्य एवं शिल्प के सुंदर समन्वय को
हूबहू उतारने का सचेष्ट प्रयास किए जाने के फलस्वरूप ये अनूदित रचनाएँ सूक्ष्म एवं
संश्लिष्ट अनुभूतियों को पूर्णतः कलात्मक अभिव्यक्ति देने में सक्षम प्रतीत होती
हैं. आंतरिक एवं बाह्य प्रभाव की दृष्टि से निकटतम शब्दों का प्रयोग करना, ध्वन्यार्थ की विभिन्नता के अनुरूप शब्दों का
संदर्भ चयन करना, शब्दों का चयन अर्थ-विस्तार और अर्थ संकोच
की दृष्टि से करना, लक्ष्य - भाषा में अर्थ-बिंब का निर्माण
अपेक्षित पृष्ठभूति में करना आदि विशेषताओं को दृष्टि में रखने के कारण तेलुगु के
प्रतिनिधि रचनाओं की मौलिक अनुभूतियों को अनूदित करने में रूपांतरकार सफल हुए हैं.
भारत
के पूर्व प्रधानमंत्री श्री पी.वी. नरसिंहाराव के अपर सचिव और भारतीय प्रशासनिक
सेवा के वरिष्ठ अधिकारी ‘राष्ट्र
रत्न’ श्री पी.वी.आर. के. प्रसाद ने तिरुमला तिरुपति
देवस्थानम के कार्यकारी अधिकारी के रुप में अपने कार्यकाल के दौरान अपने तथा
दूसरों के अनुभवों कों, सर्वसंभवाम (नाहं कर्ता, हरिःकर्त्ता) शीर्षक से स्वाति साप्ताहिक तेलुगु पत्रिका में धारावाहिक के
रुप में प्रकाशित किया. तदनंतर सर्वसंभवाम् शीर्षक से यह रचना पुस्तक के रुप में
प्रकाशित हुई. तेलुगु पाठकों ने इस रचना का भव्य
स्वागत किया है. इसे प्रो. एस ए. सूर्यनारायण वर्मा जी ने “जब मैनें तिरुपति बालाजी को देखा” शीर्षक ग्रंथ के रुप में हिंदी में रुपांतरित किया. इस रचना में अलौकिक
अनुभूति संपन्न रचनाकार के अनुभव तीस अध्यायों के अंतर्गत परोक्षतः श्री बालाजी की
महिमाओं का नर्णन करने वाले और पाठकों को अलौकिक आनंद देने वाले हैं. तिरुमला में
कलियुग दैव के रुप में प्रतिष्ठित बालाजी (श्री वेंकटेश्वर स्वामी) की लीलाओं को
अनेक अद्भुत घटनाओं में अनुभूत कर भक्त लोग परवश होते हैं. रचनाकार ने अपने जीवन
की कुछ ऐसी महत्वपूर्ण घटनाओं का विवरण दिया है, जो असंभव को
संभव बनानेवाली ईश्वरीय शक्ति के स्पष्ट प्रमाण देती हैं और विश्वात्मा के प्रति
भक्तजनों की आस्था को सुदृढ़ बना देती है. इस रचना का बोल-चाल की भाषा में लिखा
गया है. यज्ञ को समाप्त कराने में, ध्वजस्तंभ को प्रतिष्ठत
करने में तथा दास साहित्य परियोजना और अन्नमाचार्य परियोजना को लागू करने में लेखक
अपनी सफलता का श्रेय परमात्मा श्रीनिवास को ही देते हैं. इन अध्यायों में भावना के
धरातल पर अनुभूतियों को अभिव्यक्त किया है. इन अध्यायों का अनुवाद करते समय
भावनाओं की तीव्रतम अभिव्यक्ति में सहायक तत्व के रुप में भाषा का प्रयोग करने को
प्राथमिकता दी गई है.
श्री वेलुवोलु बसवपुन्नय्या कृत ‘सीतायनम’ का अनुवाद प्रो. एस ए. सूर्यनारायण वर्मा जी ने किया. प्रो.वर्मा जी ने
कहा मैने इसे इसलिए हिंदी में रूपांतरित किया कि इस में सीता एक साधारण नारी के
रुप में नहीं, देवी स्वरुप प्रतीत हीती है. ग्रंथ के अनुवाद
को पूरा करते समय मुझे अहसास हुआ कि नारी को ढोल, गँवार,
शूद्र एवं पशु की श्रेणी में रखना उसका अपमान करना है. उसका चरित्र
कई गुना उच्चकोटि का है. श्री वेलुवोलु बसवपुन्नय्या ने मानवीय सदाशयता, सामाजिक प्रतिबद्धता और मूल्य-दृष्टि को अपनी कृतियों द्वारा स्पष्ट कर
वर्तमान तेलुगु साहित्य संसार में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है. सीतायनम उनका
नवीनतम तेलुगु उपम्यास है, जिसमें बसनपुन्नय्या ने, राष्ट्र-धर्म और मानव - धर्म के प्रश्न के नेपथ्य में दशरथ पुत्र श्रीराम
ने अपनी धर्म पत्नी को जो दंड दिए उनकी समीक्षा की है. प्रो.वर्मा ने इस रचना
हिंदी रुपांतर को ‘सीतायन’ शीर्षक
से प्रस्तुत किया है. इस रचना में सीता के चरित्र के कई आयामों का उद्घाटन हुआ है.
महर्षि जनक की पुत्री, भूसुता, वीर्य
शुल्का, अयोनिजा, दशरथ की बहू और
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की धर्मपत्नी सीता कारणजन्मा है. उसका चरित्र दिव्य
है. इस उपन्यास में राम-कथा के प्रसंगों की मौलिकता को अक्षुण्ण बनाये रखते हुए
बसवपुन्नय्या जी ने चरित्र को विकास के नये आयाम दिए. संस्कृतनिष्ठ शब्दों की
बहुलता, कई संदर्भों में प्रकृति सौंदर्य का विस्तारपूर्वक
वर्णन, लंका नगरी की शोभा का विस्तृत वर्णन, नारी-सौंदर्य का नख-शिख वर्णन, लंबे-लंबे कथनों
द्वारा कथा-प्रसंगों को मार्मिक बनाने का प्रयास, नारी-अस्तित्व
और उसकी स्वतंत्रता से जुडे कई प्रश्नों को उठाने के संदर्भ में दीर्घ संवादों का
प्रयोग, विरह-वेदना की अभिव्यक्ति के अवसर पर भावनाओं की
तीव्रता को प्राथमिकता देना, युद्ध-वर्णन के प्रसंगों में
लेखक की ओर से लंबी पृष्ठभूमि बाँधने का प्रयास, भारतीय संस्कृति व धार्मिक आस्थओं के नेपथ्य में विभिन्न पात्रों की मनोवृत्तियों
और क्रिया-प्रतिक्रियाओं का अंकन करने की अद्भुत क्षमता आदि के काराण यह उपन्यास
अत्यंत लोकप्रिय बन पड़ा है. सीता-कथा की प्रशंसा करते हुए उस के चरित्र के अनछुए पक्षों का अंकन करने में मूल लेखक ने जिन प्रसंगों की
योजना की है, उनका हिंदी रुपांतरण प्रस्तुत करने के संदर्भ
में प्रो. एस ए. सूर्यनारायण वर्मा जी ने यथासंभव मूल कथ्य और संवेदना को यथावत्
रुप में अनूदित रचना में संप्रेषणीय बनाने का प्रयास किया है.
आंध्र विश्वविद्यालय के तेलुगु विभाग के आचार्थ वेलमल सिम्मन्ना ने तेलुगु
भाषा चरित्र ग्रंथ प्रकाशित किया. तेलुगु भाषा का इतिहास शीर्षक ग्रंथ के रुप में
584 पृष्ठों में प्रो. एस ए. सूर्यनारायण वर्मा जी ने इसे हिंदी में रुपांतरित
किया. 32 अध्यायों में यह प्रस्तुत हुआ है. तेलुगु भाषा के इतिहास को इस रचना में सरल शैली में स्पष्ट किया गया है. इण्डो-यूरोपियन भाषा-परिवार
का परिचय देते हुए इण्डो-आर्यन भाषा-परिवार की विभिन्न भाषाओं का समग्र अनुशीलन
किया है. भारतीय भाषाएँ शीर्षक अध्याय में विभिन्न भारतीय भाषाओं का परिचय देते
हुए उनके वर्गीकरण को प्रस्तुत किया है. प्राचीन लिपियों का परिचय देते हुए तेलुगु
लिपि के सामान्य लक्षणों और तेलुगु भाषा के इतिहासकारों के अध्ययनों की उपलब्धियों
पर प्रकाश डाला गया है. इस महत्वपूर्ण ग्रंथ को हिंदी में रुपांतरित कर प्रो. एस
ए. सूर्यनारायण वर्मा जी ने तेलुगु भाषा के समृद्ध इतिहास से हिंदी पाठकों को अवगत
कराने का स्तुत्य प्रयास किया है.
तेलुगु प्रांतों में अनेकानेक हिंदी प्रेमी
राष्ट्रवादी विचार धारा के अनुवादकों ने समय-समय पर तेलुगु के सुप्रसिध्द रचनाओं
को राष्ट्र भाषा हिंदी में प्रस्तुत करके भारत की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण रखने
का स्तुत्य और सराहनीय प्रयास किया है. समय और आलेख की सीमा के कारण सभी अनुवाद
कार्य और अनुवादकों का परिचय इस में शामिल नहीं कर पा पहा हूँ. भविष्य में तेलुगु
प्रांत के सभी अनूदित रचनाओं और अनुवादकों का सविस्तार परिचय देने के लिए प्रयास
करुँगा.