दांपत्य जीवन पर छानेवाले मानसिक तनाव की शाब्दिक अभिव्यक्ति “शायद” और “हां:”
दांपत्य जीवन पर
छानेवाले मानसिक तनाव की शाब्दिक अभिव्यक्ति “शायद” और “हां:”
डॉ.एस.वी.एस.एस. नारायण राजू
स्रवंति
जनवरी 2005
प्रयोगधर्मी रचनाकार
मोहन राकेश ने पूर्ण नाटकों के साथ ही कुछ छोटे नाट्यप्रयोग भी किए जो “ बीज नाटक” के नाम से धर्मयुग में “शायद” 12 फरवरी और “हं:” 13 अगस्त 1967 में प्रकाशित हुए थे | बीज नाटक से उनका
क्या तात्पर्य है, इस विषय में उन्होंनें कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया है | किन्तु इन दोनों नाटकों के कथ्य व शिल्प का विश्लेषण करने पर यह
स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान युग के पारिवारिक विघटन, व्यक्ति के अकेलेपन, मानवीय संबंधों और जीवन मूल्य के जिस विघटित रूप को आज की भाषा में “आधे-अधूरे” में मूर्त करने का प्रयत्न किया गया है, उसी का पूर्व एवं संक्षिप्त रूप इन दो नाटकों में बीज रूप में दिखाई देते हैं | कह सकते हैं कि दोनों नाटक “आधे-अधूरे” में प्रौढतम रूप में उभरनेवाली मोहन राकेश की नाट्य कला का बीज रूप हैं | वैसे “बीज नाटक” शब्द के अर्थ के विषय में विभिन्न
विद्वानों ने भिन्न-भिन्न मत प्रस्तुत किये हैं | “समकालीन संत्रास को
अपने लघु आवरण में समेटने की शक्ति ही मानो उसका बीज रूप है | जिसमें उसी को विस्तार देने की संभावनाएं निहित हैं |”[1] विष्णुकांत शास्त्री के मत में बीज-नाटक एक ऐसी विधा है “जो बीज रूप में व्यक्तियों
के संबंधों या स्थितियों की करालता को रेखांकित भर कर दे, जिसे बाद में भरेपूरे नाटक के रूप में विकसित किया जा सके |”[2] तथापि यह निस्संदेह कहा जा सकता है कि “बीज नाटक” शब्द अर्थ की दृष्टि से अपने में विवादस्पद होते हुए भी अपने नाटकीय
रूप में इस बात का प्रमाण है कि यथार्त से आज की जीवंत भाषा में प्रत्यक्ष साक्षात्कार कराने का जो प्रयोग “आधे-अधूरे” में किया गया, उसकी सर्जना और नाट्य
चिंतन का बीज रूप ये दो बीज नाटक हैं “शायद” और “हं:” दोनों नाटक स्त्री-पुरुष के मानसिक तनाव
साथ जीने के विवशता, घुटन, अपने को स्पष्ट न कर पाने की व्याकुल मनःस्थिति, अर्थहीन जीवन को ढोने की मज़बूरी आदि को कथ्य के रूप में लेकर चलते हैं
| बीज नाटकों से मतलब, रचनात्मक सर्वेक्षण
समीक्षण के स्तर पर आज के उस तरह के नाटकों होगा
जिस में भाषा-संवाद “कामन-कम्पीटेंस” सम्मत हो और तदनुकूल कथ्य भी आधुनिक “आम-फहम” हो |
“शायद” बीज नाटक में दो पात्रों के माध्यम से आधुनिक दाम्पत्य जीवन की ऊब, उदासी, निराशा और खालीपन की स्थिति को निरुपित किया गया | आज के अर्थ युग में प्रत्येक व्यक्ति यंत्रवत आजीवन भाग दौड़ में
व्यस्त रहता है | प्रकृति तथा आस-पास के अन्य
व्यक्तियों के विषय में तो जानना दूर, वह अपने से भी
अपरिचित बनता चलता है | भावना और विवेक से शून्य व्यक्ति का लक्ष्य केवल “अर्थ प्राप्ति” रह गया है | किन्तु कोई व्यक्ति यदि इस अर्थहीन भागदौड से हटकर जीने का हल खोजना
चाहता है तो एक प्रकार की निराशा, विषाद और घुटन का जाल
उसके चारों ओर छा जाता है | पहले बीज नाटक “शायद” में पुरुष इस प्रकार का पात्र है | जीवन में नित्य-प्रति की दिनचर्या से
हटकर जीने की खोज में वह भटक रहा है, आज से कल तक “शायद” वह गंतव्य या जीने का मार्ग मिल जाए | वस्तुतः यह नाटक मानसिक तनाव में उलझे पात्रों का हल खोजने का प्रयत्न
है | पात्र परिचय में लेखक ने “और...कोई नहीं” कह कर स्पष्ट कर दिया है कि दोनों के बीच सबकुछ जैसे चुक गया है | दोनों का अहम् और सेंसिटिविटी परस्पर टकराकर इस एकाकीपन को और भी गहरा
जाते हैं | वस्तुतः नाटक में कथ्य कहने योग्य कुछ भी नहीं है | स्त्री-पुरुष के संबंधों का विघटन और तनावपूर्ण वातावरण में साथ जीने की विवशता
संभवतः मोहन राकेश का प्रिय विषय रही है | संवादों के बल पर
मानसिक तनाव की प्रत्येक अनुभूति को यहाँ कथ्य बनाया गया है | स्त्री-पुरुष का वास्तविक स्थिति से बचने के लिए प्रसंगहीन बात करना जैसे पुरुष
का मचिस खोजना और स्त्री-पुरुष का बार-बार मरहम की बात करना, स्थिति की निरर्थकता को और भी
गहरा जाता है | वस्तुतः यह नाटक अति भावुकता में जीनेवाले व्यक्तियों की घुटन का आलेख
है | समकालीन जिंदगी के एक वृत को निरुपित करनेवाले इस बीज नाटक में असाधारण
नाटकों के बीच में साधारण और साधारण के बीच असाधारण स्थितियों का अंकन मिलता है |
“हां:” बीज नाटक में स्त्री-पुरुष के जीवन की ऊब, विसंगति और अलगाव का निरूपण किया गया है | ‘हां: एक रोगी की शारीरिक तथा मानसिक अनुभूतियों पर आदृत है | जब तक व्यक्ति स्वस्थ है तब ही जीवन लोग एवं उसके आस-पास का वातावरण उसके लिए कुछ अर्थ रखते हैं | विवश व रोगी व्यक्ति
को उसके निकट के सम्बन्धी भी धीरे-धीरे छोड़ जाते हैं | धन का प्रश्न हमारे समाज में इतना भयंकर रूप धारण कर चुका है कि पुत्र
भी अपने रोगी पिता को ‘वेल्फेयर हाउस’ में भेजकर मुक्ति
पाना चाहता है | नाटक में ‘पापा’ का चरित्र भी इसी कारुणिक अवस्थ का परिचायक है | पुत्र-पुत्रियों द्वारा साथ छोड देने पर अकेली “ममा” (उनकी पत्नी ) पापा के असाध्य रोग से संघर्ष कर रही है | वे किसी प्रकार की आर्थिक सहायता न मिलने पर भी घर चला रही है और पापा
को आतंरिक व्यथा से बचाने के लिए पुत्र का
पत्र नहीं दिखाती, किन्तु व्यक्ति का धैर्य और सहनशीलता भी चरमसीमा पर पहुंचकर चुक जाती
है | “ममा” का झल्लाहट में दराज को पटक-पटककर टूटी प्यालियाँ
खाली शीशियां और फटे वस्त्र दिखाना तथा निम्न संवाद में “ मुझसे अब नहीं होता पापा...अब नहीं होता मुझसे... विषमता में घुटते पात्र की असहाय पुकार से वातावरण का संत्रास और अधिक
गहन हो उठता | “हं:” में भी अब का बोझ है और एकरसता का सन्दर्भ है | “हं:” बीज नाटक कथ्य की दृष्टि से गतिहीन है | रोगी व्यक्ति और उस वातावरण में घुटती पत्नी की पीडा को नाटक मार्मिकता से संप्रेषित करता है | किसी प्रकार से समय व्यतीत करना हो उनके लिए सबसे बड़ा प्रश्न बन जाता
है | नाटककार ने पात्र-परिचय में “और बीतता समय” कहकर इसी तथ्य का
संकेत दिया है | संवाद पात्रों के अवचेतन और परिस्थिति की विषमता का सफलता से परिचिय
देते हैं | पापा की पीड़ा को भुलाने के लिए बार-बार “हं:” कहना तथा रुपयों की गिनती करना, इसका सशक्त प्रमाण
हैं | जमशेद का चरित्र “ममा” की आतंरिक व्यथा को मुखरित करने का माध्यम प्रतीत होता है | बीज नाटककार
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से रोगी व्यक्ति के व्यक्ति के मस्तिष्क पर छाये द्वंद्व भाव
को, जहां अकारण ही उसे दूसरे से उपेक्षा अनुभव होती है संवादों के बल पर उभारने पर में सफल हुआ है | “शायद” और “हं:” बीज नाटकों में मध्यवर्गीय घर परिवार के वातावरण का चित्र बहुत जीवंत
और प्रामाणिक है | “रिटिन स्पीच” और “स्पोकिनस्पीच” बना देनेवाला प्रयोग
यहाँ बहुत सार्थक लगता है | इसका क्लाइमेक्स “शायद” शीर्षक नाटक में देखते बनता है | आजकल पति-पत्नी के बीच चलती दैन्नदिन उलजजुल के बीच काम की होती है | परस्पर जिस तरह के व्यापार-व्यवहार को यहाँ
प्रकट किया गया है उसमें इतना घरेलूपन है कि फोर्सड शायाद ही कहीं कुछ लो लगे | इस नाटक की तुलना में "हं:" शीर्षक बीज नाटक कहीं कमजोर लगता है | इसमें एक बाल-बच्चेदार पति-पत्नी का कथ्य है | अपने बीमार पति के प्रति पत्नी की बेबसी और खीज को यहाँ ज्यादा उभारा
गया है | इन बीज नाटकों में एक ऐसी पीड़ा को अभिव्यक्ति मिली है जो जीवनव्यापी
रिक्तता और निष्क्रियता के साथ अधिकाधिक उबरती गयी है |
सन्दर्भ :-
1. डॉ. रीता कुमार : स्वातंत्र्योत्तर हिंदी नाटक, मोहन राकेश के विशेष सन्दर्भ में उध्दृत डॉ. गिरीश रस्तोगी पृ.सं. 326
2. डॉ. रीता कुमार : स्वातंत्र्योत्तर हिंदी नाटक, मोहन राकेश के विशेष सन्दर्भ में उध्दृत (विष्णुकांत शास्त्री) पृ.सं. 326
3. मोहन राकेश : अंडे के छिलके अन्य एकांकी तथा बीज नाटक, पृ.सं. 137