विगत दशक की हिंदी कहानी शैली एवं शिल्पगत नए प्रयोग एवं प्रक्रिया
विगत
दशक की हिंदी कहानी शैली एवं शिल्पगत नए प्रयोग एवं प्रक्रिया
प्रो.
एस.वी.एस.एस. नारायण राजू
पूर्णकुंम्भ – साहित्यिक मासिक पत्रिका
अप्रैल – 2002
विगत दशक में प्रकाशित विभिन्न कहानी संग्रह, कादंबिनी, इंडिया-टुडे, हंस तथा
देश भर के विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानियों को दृष्टि में रखकर विगत दशक
की हिंदी कहानी शैली एवं शिल्पगत नए प्रयोग एवं प्रक्रिया को एक संक्षिप्त आलेख
में समेटना तो गागर में सागर नहीं बिंदु में सिंधु भरना है. यह काम आसान नहीं है.
फिर भी संक्षिप्त रुप में विगत दशक में प्रकाशित कहानियों के बारे में एक परिचय दे
रहा हूँ. आज हिंदी कहानी केवल परिमाणात्मक दृष्टि से ही नहीं अपितु गुणात्मक रुप
में भी भारतीय भाषाओं की कहानी में ही नहीं विश्व साहित्य की कहानी में अपना
अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान रखती है. आज अधिकांश पत्रिकाओं के संपादक स्पष्ट निर्देश
देते हैं कि “हमारे
लिए मात्र इतने ही शब्दों की रचना (कहानी) भेजिए, इससे अधिक छापना संभव न होगा.
अतः कहानीकार के लिए कहानी के कथ्य भाषा
शिल्प और किसी नई ‘सोच’ के
तहत अपनी बात कहने से पहले यह चिन्ता पैदा हो जाती है कि कहानी उस चौखट में कैसे
फिट हो जो दैनिक पत्र के रविवारिय पृष्ठों के संयोजन कर्त्ता ने बता दिया है.”
शशि प्रभा की ‘तारतम्य’ कहानी
आज की जिंदगी से जुडी सच्चाई को लेकर कई प्रश्न पैदा कर देती है. एक गरीब नौजवान
अपनी बहन की शादी के खर्च से परेशान है. अंत में एक ही रास्ता बचता है चोरी और
हत्या. यह जुर्म है. प्रश्न सामने है कि पैसे वाले सफेदपोश का जुर्म क्या है? लेखिका कहानी का अंत आते-आते व्याख्याकार का
रुप धारण कर लेती है. प्रभुनाथ सिंह की कहानी आहत उजाले में कर्फूयू दंगे, और इनसे
परेशान आदमी के बीच कथानक डूबता उतराता है. कहानी का अंत भी जाना पहचाना सा लगता
है फिर भी जिस सन्नाटें की लकीरें कहानी खींचती है वह कहानीकार के रचना कौशाल का
परिचय देता है.
वीरेंद्र
सक्सेना की ‘अंत
नहीं’ कहानी
में लेखक अपनी चिर परिचित शैली में एक नवयुवक की उस मजबूरी का चित्र खींचते हैं जो
परिवार की उपेक्षा भी नहीं कर पाता, साथ ही प्रेमिका से दूर होना भी उस के लिए असाध्य
है. उसकी बहन कुंवारी है, जबतक बहन की शादी नहीं हो जाती तब तक अपनी शादी के बारे
में सोच भी नहीं सकता. समस्याओं का अंत नहीं. इसी उलझन में उलझता है कहानी का
कथानक रामदरश मिश्र की चक्र कहानी का विषय सांप्रदायिक दंगों से जुडा हुआ हैं.
शरीफ यूनिवर्सिटी में इतिहास का प्रोफेसर हैं प्रोफेसरों की नई बसी कोलनी गंगा
विहार में वह भी मकान बनवाता है मगर दंगों के शुरु होते ही उसे भाग कर गंद, जाहिल
लोगों के मुहल्ले में किराये के मकान में रहना पडता है जहाँ उसकी युवा बेटी गुंडे
टाइप के मुस्लिम युवकों से घिर जाती है. शरीफ जैसे शरीफ लोग जो मुसलमान होने के
कारण हिंदू कोलनी में रह नहीं पाते, और अपने पढ़े लिखे होने के संस्कारों के कारण
रुढ़िवादी मुस्लिम आबादी में भी रह नहीं सकते. फिर कहाँ जाएँ वह? कहानी के यह वाक्य – “वक्त
तो अपनी चाल चलेगा ही, आदमी चले या न चले या हाँ! बेगम, आदमी ने तो अपनी
चाल छोड ही दी है.” जिन्दगी के कई अर्थ
होते हैं भीष्म साहनी ने अपनी कहानी में “खूँट” में दफतरी मानसिकता को
झेलते पात्र एक दूसरे से आगे बढ़ जाने की कशमकश में फंसे कितने दयनीय हो जाते हैं,
जिसे छाप पाना भी उनके लिए संभव नहीं रह पाता, खुलेपन से चित्रित किया है. वर्ष
1993 में सांप्रदायिक दंगों ने हिंदी कहानी को भी भयाक्रान्त कर दिया है. कई लघु पत्रिकाओं
ने सांप्रदायिकता विरोधी विशेषांक प्रकाशित किए. इन में कतार का नवंबर 1993 के,
अंक में दो कहानियाँ प्रकाशित की गई हैं जो सीधे सांप्रदायिक दंगों की जमीन पर मानवीय
पीडा को सामने लाने का प्रयास करती हैं. पहली कहानी पलाश विश्वास की “टुकडे-टुकडे हुई पहचान” . दूसरी कहानी शिवकुमार यादव की है “हम जाऐं तो जाएं कहाँ......” दंगों पर लिखना बहुत आसान मान लिया गया है. कुछ चीखें, कुछ सन्नाटा कुछ डरे चेहरे, कुछ आहें कुछ रोने की
आवेजें, दो चार हिन्दू मुसल्मानों की सम्मिलित उपस्थित, फिर सबका मिलकर सियासद
दारों को कोसना. साथ ही गली या सडकों पर फौजी बटों की धमक और रह रहकर बजती पुलिस
की सीटियां. इसी के साथ- भावुकता से भरे हुए संवाद-फूलवती में बहू बोल रही थीं या
माँ! हर औरत आखिर माँ ही होती है. (टुकडे में हुई
पहचान – पृ.सं.76)
प्रभा सक्सेना की “धारा के निरुद्ध” कहानी संग्रह की कहानियों की अनुगूंज-सांप्रदायिकता, नारी मन के प्रश्न,
राष्ट्रीय अस्मिता, तथा देश में व्याप्त अशांति और अव्यवस्था है. प्रबुद्ध पाठक के
लिए ये प्रश्न बडे समयानुकूल है. दो संप्रदायों के बीच बनते बिगडते संबंध की
समस्या है या पिछले इतिहास का परिणाम है. जातियों और धर्मों के बीच का संघर्ष
क्यों है? क्या
यह मिटाया नहीं जा सकता है? आदि-आदि. प्रभा सक्सेना की “जल्ली छाया” में
सांप्रदायिकता पर चिंता व्यक्त की गई है, सरदार कहने से जो चेहरा सामने आता था, वह
किसी मनुष्य का नहीं लगता था, किसी खूँखार, हत्यारे, किसी दुर्दांत आतंकवादी, एक
खौफनाक स्थिति और पूर्णतः रक्तरंजित माहौल.”
अमरेंद्र मिश्र की मनीप्लांट हास्य-व्यंग्य पूर्ण शैली में रचित कहानी है.
कहानी में आज के नए फैशन, पुस्तक विमोचन पर व्यंग्य है. ऐसे महोत्सवों में वक्ता
को पुस्तक की विशेष जानकारी नहीं होती है. तब वह लेखक के पिता के कुछ संस्मरण सुना
देता है अथवा वक्ता को संकलन लेखक या कवि का भी नाम पता नहीं होता है. चांदनी रात
पर लिखी कविता की पुस्तक पर वक्ता सांप्रदायिकता को लेकर एक भाषण दे डालता है. इसी
के कारण देश खोखला होता जा रहा है. साहित्यिक व्यक्तियों के स्थान पर राजनैतिक
नेता पुस्तक विमोचन करते हैं. लेखक की ऐसे अवसरों पर बडी दुर्गति होती हैं.
मंत्रियों के घर इन पुस्तकों से भरे रहते हैं जिनका उन्होंने विमोचन किया था. लेखक
का मंतव्य है कि राजनीति को सुधारने से पहले अपने चरित्र को सुधारना होगा. जोकि एक
कठिन काम है. यह कहानी आज के राजनैतिक माहौल का आईना है. मंत्री जी मंत्री न रहने
पर राजनीति को पवित्र बनाना चाहते हैं लेकिन जब स्वयं मंत्री होते हैं तो ऐसा नहीं
कर पाते हैं.
विगत दशक में बहु चर्चित कहानियों में उदय प्रकाश की “पॉल
गोमरा का स्कूटर” एक है. जिसमें बडे तीखे रुप में अपने समय के भ्रष्टाचार, कदाचार, जीवन में
चारों ओर फैल रही मूल्य हीनता पर कुठाराघात करते हुए आधुनिक जीवन की विसंगतियों पर
प्रहार किया गया है. कहानी का परिदृश्य बहुत बडा है, कहानी अपने विराटत्व में युग
जीवन की संपूर्णता को समेटने. का प्रयत्न करती है. इन पंक्तियों से ही पूरी कहानी
के रंग और प्रकृति को समझने के लिए पर्याप्त होगा. सन्यासी वातानूकूलित गाडियों
में तीर्थयात्रा कर रहे थे और एन. आर ऐ. पूँजी तथा पेट्रो डालर्स से कारसेवा करा
रहे थे. अंतरर्राष्ट्रीय शस्त्र बाजार में तांत्रिक विभिन्न राष्ट्रों के बीच
मिसाइलों, पनडुबियों और लडाकू विमानों की खरीद-फरोख्त में दलाली कर रहे थे. पच्चीस साल
तक गले तक गड्दे में धँसे एक योगी ने कई देशों के कई शहरों में पाँचताराहोटल खोल
रखे थे और पचास साल से पेड की मचान पर टंगे एक बाबा के पैर के अंगूठे की छाप अपने
माथे पर लगवाने के लिए विश्व के सबसे बडे लोकतंत्र का समूचा कैबिनेट कतार बनाकर
कीचड में खड़ा था. प्रधान मंत्री इतिहास के सब से बडे ठग को सार्वजनिक रुप से
लगातार चूमे जा रहा था पांच साल पहले एक गाँव के सोते हुए सडसठ लोगों को गोलियों
से भून डासनेवाले डाकू की जीवनी पर बनी फिल्म सूपर हिट हो गई थी और उसे आस्कार
अवाई मिलनेवाला था. महात्मा गाँधी को अश्लील गलियाँ देकर राष्ट्र का एक सम्मानित
समलैंगिक मीडिया, स्टार बन चुका था. भूतल राज्य परिवहन की हजारों खूनी रंग की बसों में नादिरशाह का जिन सवार हो
गया था और हर रोज पचासों बन्नों, औरतों और साधारण लोगों को अपने टायरों के नीचे
कुचल रहा था इस प्रकार यह कहानी समकालीन कहानी के विकास में एक महत्वपूर्ण और
निर्णायक मोड है.
मैत्रेयी पुष्पा का “ललमनियाँ”
कथा-संग्रह आया है. उन्होंने गाँव की जिंदगी की बदलती हुई तस्वीर में नारी की
बदलती भूमिका में कशमकश करती नरी की जिंदगी का जो पहलू चित्रित किया है, हिंदी
कहानी में वह बिल्कुल नया है. उनकी अविस्मरणीय कहानी फैसला में गाँव की पंचायतों
में महिलाओं का प्रधान के रुप में आना कितना बेमानी होकर रह गया है. भले ही वह
प्रधान हो गई हो किन्तु अभी भी उसका अस्तित्व रबड की मोहर बनकर रह गया है, उसके
नाम पर फैसले उसके तेज-तर्रार पति, भाई देवर आदि ही करते हैं. ब्लॉक प्रमुख की
पत्नी वसुमती देवी को प्रधान बनाया जाता है, इसलिए नहीं कि वे सचमुच की ग्राम
प्रधान बनकर पंचायत में हिस्सा लें अपितु इसलिए कि पत्नी से ज्यादा भरोसे का आदमी
कौन मिलता पति रनवीर सिंह को. उलका मन हाहाकार करता है लेकिन विद्रोह की हिम्मत
नहीं पडती किन्तु जब हरदेई के आत्महत्या करने पर ईसुरी गड़कनी उसे धिक्कारती है तो
उसका हदय-क्रंदन कर उठता है. तभी वह बडा फैसला लेकर अगले चुनाव में अपने पति को
वोट नहीं देती और वह एक सामान्य से लुहार के सामने एक वोट ले ही पराजित होता है.
मृदुला गर्ग का कहानी-संग्रह समागम में आठ कहानियाँ हैं. मृदुला गर्ग की इन
कहानियों में एक समर्थ कथाकार की कलाकरिता तो मिलती ही है. इन कहानियों के कथ्य
में बहुत वैविध्य है. कहीं इन कहानियों में नारी स्वातंत्र्य का प्रबल स्वर है.
चित्रा मृद्गल का जिनावर संग्रह अपने व्यापक फलक के कारण आकर्षित करता है. नारी को
अपने विभिन्न भूमिकाओं में जो अत्याचार, अन्याय, उपेक्षा समाज में पग-पग पर मिलती
है, उसकी बिल्कुल अनजानी और अनचाही स्थितियों को उभारती हैं ये कहानियाँ.
नारी-स्वातंत्र्य की चिन्ता उनकी कहानियों की अंतर्धारा है.
बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों हरिजन एक्ट का जिस प्रकार दुरुपयोग हो
रहा है पुन्नी सिंह की “नागफाँस” कहानी
में वर्णन किया है. ममता कालिया ने अपनी कहानी “मुखौटा” में
आरक्षण की समस्या को बिल्कुल नए कोण से उठाया है. ब्राह्मण युवक ओ.बी.सी.
सर्टिफिकेट लेकर अपने कैरियर में सफलता की ऊँची सीढ़ी तो चढ़ता चला जाता है किन्तु
जब उसकी ब्राह्रमण प्रेमिका इसीलिए उससे विवाह के लिए तैयार नहीं हो पाता कि वह
पिछडी जाति का है, तो वह उस “मुखौटे” को
नहीं उतार पाता.
इनके
साथ-साथ उदय प्राकश की “वारेन हेस्टिंग्स’ का सांड अवधेश प्रीत की “ग्रासरुट’
विजयकांती की “पुश्त-दर-पुश्त’ ओम
प्रकाश वाल्मीकी की “अम्मा’ केशव
की “अशेष”
सूर्यबाला की “दादी
और रिमोट कंट्रोल” हृदयेश की “दिल्ली में दो बैल” प्रियंवदा की “रेत” ज्ञान
प्रकाश विवेक की “उजाड” आदि
यादगार कहानियाँ हैं.
उदय
प्रकाश की “वारेन
हेस्टिंग्स का सांड” जैसी चुनौती पूर्ण कहानी न केवल अपने कथ्य की दृष्टि से अपितु शैली एवं
शिल्पगत नए प्रयोग एवं प्रक्रिया की दृष्टि से भी भारतीय साहित्य की एक बेजोड कृति
है. विश्वास नहीं होता कि कहानी को इतने बडे औपन्यासिक विराट धरातल पर विचार-संवहन
का ऐसा प्रबल अस्त्र बनाया जा सकता है. स्वयं कहानीकार की यह टिप्पणी- “इस कहानी
में इतिहास उतना ही है जितना दाल में नमक होता है. अगर आप इस में इतिहास खोजने की
कोशिश करेंग तो आपके हाथ में रेत की ढूह या कनेर की टहनी-भर आएगी. असल में जब
इतिहास में स्वप्न, यथार्थ में कल्पना, तथ्य में फैंटसी और अतीत में भविष्य को
मिलाया जाता है तो आख्यान में लीला शुरु होती है और एक ऐसी माया का जन्म होता है
जिसका साक्षात्कार सत्य की खोज की ओर एक यात्रा ही है. इसलिए हर लीला और प्रत्येक
माया उतनी ही सच है जितना स्वयं इतिहास”. यह कथन इस कहानी के कथ्य और शिल्प का कुछ परिचय देता है. अंग्रेजों द्वारा
भारत को अपनी औपनिवेशिक चालों में फंसाकर दास बनाना, दास बनाकर भारत की सांस्कृतिक
अस्मिता को नष्ट करना उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रसार में यहाँ के सारे श्रेष्ठ
मूल्यों का क्रमशः क्षरण आदि अनेक-अनेक प्रश्न और चिन्ताएँ कहानी का अंग सहजता से
बनाती हैं. यह जटिल संरचना भी एक सशक्त कहानी है.
विगत दशक की कहानियों को देखने से देश में प्रचलित भ्रष्टाचार, अत्याचार,
आतंकवादी समस्या, सांप्रदायिक दंगे, ज्यादातर राजनैतिक भ्रष्टाचार, मनोविज्ञान,
पारिवारिक संबंधों मे तनाव, मध्यवर्गीय समस्यायें, शिक्षित वर्ग का अहं, विशेषकर
हर जगह स्त्रियों पर किए गए अत्याचार, आदि विभिन्न अंश कहानियों की कथा वस्तु बनने
पर भी ज्यादातर पक्षपात रहित या तटस्थ होकर कहानीकार कथा को नहीं चला रहे हैं.
अधिकांशतः एक वाद या वर्ग के चक्कर में पडते जा रहे हैं. कहानी तो कहानी है. फटाक
से दस या पन्द्रह मिनट में पढ़ना या सुनना है. सशक्त कथोपकथन एवं सरल भाषा से
युक्त लघु कथाएँ ही ज्यादा प्रभावित कर रही हैं कहने में कोई अत्युक्ति नहीं है.
स्त्रीवादी, दलित आदि आदि तरह की कहानियाँ आने के बावजूद भी विगत दशक की कहानी ने
हर दृष्टि से हिंदी कहानी भण्डार को और अधिक श्रीवृद्धि ही नहीं की समकालीन समाज
में प्रचलित विभिन्न समस्याओं को सफलतापूर्वक उजागर करने में सफल हुई.
इन
समस्त कहानीकारों ने हिंदी कहानी के शिल्प और शैली को नवीन आयाय प्रदान किए हैं.
इस में भी संदेह नहीं है कि समकालीन कहानी की रचना प्रक्रिया न तो प्रेमचंद के समय
की कहानी के समान है और न ही नई कहानी के उदयकाल में लिखी गई डॉ. शिवप्रसाद सिंह
की “दादी
माँ” अथवा
निर्मल वर्मा की “परिंदे” के
समान ही है. आज का कथाकार तीव्र गामी सूचना तंत्र के दबाव को भी महसूस करता है.
इसलिए उसकी कहानी में शैली और शिल्प की नवीनता का आग्रह दिखाई देता है.