इतिहास के संघर्ष को आधुनिक “अर्थ” देने का सफल प्रयत्न – लहरों के राजहंस
इतिहास के संघर्ष को आधुनिक “अर्थ” देने का सफल प्रयत्न – लहरों के राजहंस
प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू
स्रवंति – द्विभाषा मासिक पत्रिका
जून - 2005
“लहरों के राजहंस” नाटक में गौतम बुद्ध के चचेरा भाई राजकुमार नंद और उसकी पत्नी सुंदरी की कथा
कही गयी है. नाटकीय परिवेश में देश-काल और वातावरण के चित्रण का भी विशेष महत्व
होता है. क्योंकि देश-काल के परिवेश में ही जीवन का कोई सत्य या तथ्य युग-सत्य बन
पाता है. तभी उसका प्रभाव भी स्थायी हो सकता है. आलोच्य नाटक ऐतिहासिक परिवेश में
शुरु होता है. कपिलवस्तु के राजकुमार नंद की पत्नी सुंदरी वर्षों बाद आज कामोत्सव
मनाना चाहती है. इसलिए राजकर्मचारी-गण सुंदरी के कक्ष और राजभवन को सुसज्जित करने
में व्यस्त हैं. नेपथ्य में बौद्ध-भिक्षुओं का समवेत स्वर “धम्मं
शरणम् गच्छामि, संघं शरणम् गच्छामि बुद्धं शरणम् गच्छामि-------.”(1) सुनाई देता है. “सौंदरनंद” में
किसी कामोत्सव की तैयारी नहीं हो रही है, किंतु काम-वासना में लिप्त नंद और सुंदरी
के लिए युवतियाँ श्रृंगारिक प्रसाधनों तथा उसके मनोनुकूल सुंदर- कार्य में लगी हुई
हैं. इसे ही नाटककार की सृजनशील मेधा ने कथा के आरंभ में एक विस्तृत नाटकीय फलक
दिया है. प्रस्तुत नाटक का आधार भी ऐतिहासिक है, परंतु उतने ही अर्थों में जितना
इस व्याख्या में आता है. कथा का आधार अश्वघोष का “सौंदरनंद” काव्य
है, परंतु समय के विस्तार में स्थितियों का परिक्षेपण करने के कारण यह काल्पनिक भी
है. काल्पनिक अश्वघोष का सौंदरनंद भी है, क्योंकि संस्कृत तथा पालि-साहित्य में जो
कथा उपलब्ध है, उसका अश्वघोष ने अपनी दृष्टि से परिक्षेपण किया है, एक काल्पनिक
अन्विति से उसे विस्तार दिया है.”(2) दरासल, ऐतिहासिक कथानकों के आधार पर श्रेष्ट और
सशक्त नाटकों की रचना तभी संभव है, जब नाटककार ऐतिहासिक पात्रों और कथा-
अभिप्रायों को ऐतिहासिकता के स्थान पर युगीन बना दे. साथ ही, इतिहास के संघर्ष को
आधुनिक अर्थ-व्यवस्था प्रदान कर दे. इस अर्थ में मोहन राकेश का यह नाटक सबसे सशक्त
नाटक है.”(3) ऐतिहासिक गवाक्षों से नंद, सुंदरी, श्यामांग आदि
के जिस आधुनिक जीवन का अन्तर्द्वंद्व झाँकता हुआ दिखायी देता है. इससे सर्वथा भिन्न
जगन्नाथ प्रसाद “मिलिन्द” ने
अपने “गौतम
नंद” नाटक
में मानव-जीवन के कल्याण के लिए गौतम नंद के चरित्र का उन्नायन किया है. नाटककार
का मत है कि “गौतम
बुद्ध के गृह-त्याग के उपरान्त महाराज शुद्धोदर की संपूर्ण आशा अपने कनिष्ट पुत्र
गौतम नंद पर केंद्रित हुई. किंतु गौतमनंद ने भी गौतम बुद्ध के आदेश से अपने विवाह,
नवगृह-प्रवेश तथा राज्याभिषेक के ऐन मौके पर भिक्षु-धर्म स्वीकार किया. इसी घटना
को नाटक के रुप में दिखाना नाटककार का
अभीष्ट है.”(4)
देश-काल के परिवेश में ही कोई सत्य या तथ्य व्यापक
होकर युग-चेतना को आन्दोलित भी कर सकता है. इस दृष्टि से “लहरों
के राजहंस” में
दुहरे वातावरण का चित्रण हुआ है. एक ओर तो यह दर्शाया गया है कि अतीत के पृष्टों
में कपिलवस्तु में एक नव्य निर्वाणोन्मुख चेतनी का जो दीपक जला था, उसका छोटे-बडे
सभी को अपनी ओर आकर्षित कर रहा था, पर लोग, विशेषतः उच्च वर्गों के लोग उसकी ओर
एकाएक ही आकर्षित होते नहीं चले जा रहे थे. उस मत-वाद को वे सहसा नहीं ओढ़ते चले
जा रहे थे. क्योंकि उनके सामने प्रत्यक्ष जीवन के रुपाकर्षण भी थे, विलास-भाव भी
थे, पारिभाषिक एवं दार्शनिक शब्दावली में मायाजन्य विविध आवरण भी चेतना को आवृत
किए हुए थे उन्हें अनावृत कर पाना सहज नहीं था. अतः उससे मुक्त होने के लिए उन्हें
स्तरीय चेतना के द्वन्द्वों के साथ संघर्ष करना पडा होगा. सुंदरी के रुप-पाश एवं
विलासमय बंधनों की कारा में पडे नंद का द्वन्द्व या फिर अलका के प्रेम से आहत
श्यामांग का अंतर्मुखी द्वन्द्व एक ओर उसी ऐतिहासिक परिवेश को प्रतिध्वनित करता
है. इतिहास में तो बुद्ध- मत की स्वीकृति के रुप में नंद की द्वन्द्वग्रस्त चेतना
की अंतिम परिणाम भी स्पष्टतः अंकित है. जब कि नाटक में उसका संकेत ही है. क्योंकि
यहाँ लक्ष्य द्वन्द्व चित्रण ही अधिक है. यहाँ कपिलवस्तु के राजकुमार नंद के
शासनकाल से संबंद्ध कथा कही गयी है. भगवान बुद्ध के आदेश पर राजकुमार नंद के केश
कर्तित किए जाते हैं. फिर भी वे भिक्षा पात्र को टुकराकर अपनी पत्नी सुंदरी को
देखने फिर से राजभवम को लौट आता है उसके साथ भिक्षु आनंद भी है. यहाँ बुद्ध के
जीवन काल में जन- मानस पर आक्रांत परस्पर विरोधी जीवन-दर्शनों के संघर्ष का सजीव
चित्रांकन करने नाटककार लिखते है-----“ और नहीं भिक्षु... यह बातों खेल का हमारे बीच और नहीं खेला जाएगा, स्वर्ग और
नरक, वैराग्य और विवेक, शील और संयम, आर्य सत्य और अमृत.... मैं जानता हूँ वाणी के
छल से तुम मुझे किस ओर से जाना चाहते हो. मैं तथागत के सामने कह चुका हूँ और अब से
कहे देता हूँ कि वह दिशा मेरी नहीं है, कदापि नहीं है.”(5)
इस नाटक में कामोत्सव का आयोजन करना,
यशोधरा का दीक्षा-ग्रहण, भगवान बुद्ध की प्रतीक्षा में नदी के तट पर कपिलवस्तु के
लोगों का इंतजार करना, नंद के घर पर भिक्षा पात्र लिए याचना करने बुद्ध का आ जाना
इत्यादि कई संदर्भों को लेकर तद्युगीन वातावरण से कथानक को जोडने का सफल प्रयास
हुआ है. इसी ऐतिहासिक परिवेश में नाटककार ने अपने देश-काल और वातावरण की भी
प्रतीकात्मक रुप में बडी कुशलता के साथ रुपायित किया है. क्योंकि चेतना का
द्वन्द्व कोई नवीन बात नहीं. जब भी कोई नया दर्शन एवं जीवन-दर्शन जन-मानस के सामने
आता है तब उसका होना अनिवार्य एवं स्वाभाविक है, आज के जिस नितांत भौतिक मूल्यों
वाले युग में हमारी चेतना अनवरत अंगडाइयाँ ले रही है, उस में सुख, शान्ति एवं
संतोष का नितांत ह्रास देखकर भी मनः चेतनाओं का निरंतर हो रहा विघटन निहार कर भी
कोई मार्ग नहीं पा रहे. द्वन्द्वात्मक भौतिकवादों ने हमारे मनों और चरित्रों तक को
विघटित करके रख दिया है, परिवार विघटित हो रहे हैं, जीवन के शाश्वत मूल्य विघटित
हो रहे हैं, भौतिक अतिवादों की परिणति हम लोग निरंतर असंतोष के रुप में कर रहे
हैं, किंतु इन से विनिर्वाण का मार्ग क्या है? चेतना ग्रसित है, दिशा-बोध अवरुद्ध है. हम अंधेरे में भटक रहे हैं. हाथ-पाँव
पटक रहे हैं, पर क्या है मार्ग?
मार्ग, जिसे पाने के लिए आज सभी स्तरों पर निरंतर द्वन्द्व चल रहा है. जिसे पाने
के लिए धर्म, समाज, राजनीति, ज्ञान-विज्ञान, मनोविज्ञान, देश-काल राष्ट्रवाद,
मानवतावाद सभी केवल तडप रहे हैं. निश्चित ही आज की समस्त, संतप्त एवं
द्वन्द्वग्रस्त चेतना एक निर्णायक मोड चाहती है, व्यापक असंतोष उसी का परिणाम है.
पर वह क्या है, नंद एवं श्यामांग के समान हमें भी तो समझ नहीं आ रहा. इसी कारण तो
हम भी कमलताल की लहरों पर तैरनेवाले हंस बनकर रह गये हैं. नियति जिधर भी उडाये लिए
जा रही है हंस और नंद के समान उधर ही उडते
जा रहे हैं. अनिश्चत-से-अनिश्चित बस धारा में आहत पंख फडफडाते हुए वह रहे हैं, और
वह रहे निरंतर. ऐतिहासिक परिवेश को साकार बनाने नाटककार ने “कामोत्सव”, “चषक”, “श्रृंगारकोष्ट”, “परिव्रज्या”, “आखेट”, “प्रसादन”, “मदिराकोष्ट”, “अग्निकाष्ट”, “गवाक्ष”, “दीपाधार”, “कमलताल”, “आपानक” आदि
शब्दों का सटीक प्रयोग किया है. उस प्रकार स्पष्ट है कि नाटक में चित्रित देश-काल
और वातावरण दोहरे अर्थों में सार्थक है. यह सार्थकताओं में ही नहीं आ गई, बल्कि इसके प्रति नाटककार की सजगता ही
सापेक्षता की उत्तरदायी है और इस उत्तरदायित्व को उसने बडी कुशलता से निभाया है.
संदर्भ :
1. मोहन राकेश : लहरों के राजहंस – पृ.सं. 82
2. मोहन राकेश : लहरों के राजहंस की भूमिका – पृ.सं. 20
3. डॉ. विजय बापट : प्रसादोत्तर नाट्य – साहित्य – पृ.सं. 93
4. डॉ. दशरथ ओझा : हिंदी नाटक उद्भव और विकास - पृ.सं. 309
5. मोहन राकेश : लहरों के राजहंस – पृ.सं. 110