आषाढ़ का एक दिन में सांकेतिक और भावपूर्ण दृश्यों का संयोजन




आषाढ़ का एक दिन में सांकेतिक और भावपूर्ण दृश्यों का संयोजन

प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू

  स्रवंति – द्विभाषा मासिक पत्रिका 
                                    
  जनवरी – 2004



 
       मोहन राकेश के आरंभिक दोनों नाटकों में सांकेतिक अभिव्यंजना की दृष्टि से भावपूर्ण दृश्यों का संयोजन विशिष्ट रुप में किया गया है. इन दोनों नाटकों की शिल्पगत उपलब्धियाँ उनकी विशिष्ट वस्तु-योजना से ही उपजी हैं. देश और काल की दृष्टि से इन नाटकों की वस्तु को प्रस्तुत करना एक विशिष्ट शिल्प की अपेक्षा करता है, मिथक की नयी व्याख्या तथा नाट्य-शिल्प और रंग-शिल्प को नई परिकल्पना के कारण आषाढ का एक दिन उल्लेखनीय कृति है. संस्कृत के महान काव्यकार कालिदास के जीवन चरित्र के साथ जुडे ऐतिहासिक आख्यान को इस में विषय बनाया गया है. शिल्प के स्तर पर प्रयोगधर्मिता की दृष्टि से इस नाटक में कई स्तरों पर नवीनता ही नहीं दिखाई पडती, नाटककार ने प्रयोग को इस नवीनता को अपनी जागरुकता के द्वारा सार्थक दिशा में अग्रसर भी किया है. प्रयोगधर्मिता की दृष्टि से इस नाटक में वस्तु नाट्य-शिल्प और रंग-शिल्प एक दूसरे को अन्विति में परिकल्पित है. एक रचनाकार के व्यक्तिगत और अंतरंग जीवन का उसकी रचना से अंतःसंबंध प्रस्तुत करने की दृष्टि से आषाढ का एक दिन हिंदी नाट्य-परंपरा में वस्तुगत प्रयोग-धर्मिता के अछूते आयाम खोलती है. नाट्य-शिल्प की दृष्टि से भी इस नाटक में उल्लेखनीय प्रयोग हुए हैं. मोहन राकेश ने कालिदास, मल्लिका, अंबिका, विलोम और मातुल आदि चरित्रों के द्वारा मनुष्य की नियति और उसकी संभावनाओं की खोज की है. नाट्य-शिल्प के अंतर्गत प्रयोगधर्मिता की दृष्टि से इस नाटक की विशेषता है सांकेतिक अभिव्यंजना और काव्यात्मक बिंबों या दृश्यों का उपस्थापन.

                आषाढ़ का एक दिन नाटक के पहले अंक में कालिदास मंच पर पहली बार पदार्पण करता है तो राजपुरुष दंतुल के बाण से घायल हरिणशावक गोद में उठाये हुए दुलारता हुआ दर्शकों के सामने ज्यों कहकर आता है, हम जियेंगे हरिणशावक. जियेंगे न?” एक बाण से आहत होकर हम प्राण नहीं देंगे. हमारा शरीर कोमल है तो क्या हुआ? हम पीडा सह सकते हैं. एक बाण प्राण ले सकता है, तो उँगलियों का कोमल स्पर्श प्राण भी दे सकता है. हमें नये प्राण मिल जायेंगे. हम कोमल आस्तरण पर विश्राम करेंगे. हमारे अंगों पर घृत का लेप होगा. कल हम फिर वनस्थली में घूमेंगे. कोमल दूर्वा खायेंगे न?” (1)  उस हरिणशावक से कालिदास इस प्रकार वार्तालाप करते हए प्रकट होते हैं, मानो वह कोई मानव-शिशु हो और उनकी बातों को समझ रहा हो. वे कहते हैं अरे मृगछौने. तुम्हें भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि कोई हमें मार नहीं सकता. हम इतने दुर्बल नहीं है कि  कोई हमें एक ही बाण के प्रहार से मार गिराए. वह सत्य है हमारा शरीर आतीव मृदल है, किंतु हमारा मन अथवा हमारे इतने दुर्बल-कोमल नहीं है कि हम बाण लगने की पीडा को भी नहीं सह सकें. जहाँ बाण में प्राण लेने की शक्ति होती है वहाँ उँगलियों के मृदुल स्पर्श में भी इतनी क्षमता हो सकती है कि वे मरते प्राणी की जीवन-दान दे संके. अपनी भावुकता में कालिदास को यह स्मरण नहीं रहता कि हरिण का बच्चा उनकी बातें न तो समझ ही सकता है और न उसके उत्तर ही दे सकता है. वे उस में ऐसा रागात्मक संबंध जोड लेते हैं मानो बाण उस हरिणशावक के नहीं, वरन् कालिदास के ही आकर लगा है, हरिणशावक सत्ता के द्वारा रौंदी जाती हुई सुकुमारता और सौंदर्यवृत्ति को अभिव्यंजित करता है जिसे कालिदास बचाना है. अंबिका, मल्लिका, कालिदास और दंतुल के बीच हुए संवादों में हरिणशावक यह प्रतीक अपने सांकेतिक अर्थों की गहरी अनुभूति हमें देता है. अंबिका कहते है इस घर के और आस्तरण हरिणशावक के लिए नहीं हैं.”(2) कालिदास हरिणशावक को अपनी बाहों में उठाते हुए कहता है, मैं इसे घर ले जाऊँगा. इसके लिए मेरी बांहों का ही पर्याप्त है.”(3) और उसे टोकता हुआ दंतुल का संवाद आता है,और राजपुरुष दंतुल तुम्हें ले जाते हुए देखता रहेंगे.” (4) अंत में तलवार की मूठ पर हाथ रखे दंतुल को रोकती हुई मल्लिका का यह कथन उस मानवीय मूल्य को अभिव्यक्ति देता है. जिसे इस दृश्य के द्वारा नाटककार अनुभूत कराना चाहता है.तुम्हारें लिए प्रश्न अधिकार का है, उनके लिए संवेदना का. कालिदास निःशस्त्र होते हुए भी तुम्हारे शस्त्र की चिंता नहीं करेंगे.”(5) यहाँ मल्लिका राजपुरुष दंतुल से हठ मत करने का अनुरोध करती है. वह राजपुरुष दंतुल से कालिदास का परिचय ऋतुसंहार के रुप में देकर आहत हरिणशावक पर कालिदास के अधिकार का समर्थन करती है. इस के पूर्व राजपुरुष और दंतुल के बीच अपराध, न्याय और अधिकार के संबंध में चर्चा होती है. नाटककार ने भावपूर्ण दृश्यों के संयोजन के द्वारा इस प्रसंग को महत्वपूर्ण बनाया है.

        आषाढ़ का एक दिन नाटक के आरंभ में कालिदास के साभ वर्षा विहार करके लौटी मल्लिका अपनी माता अंबिका को वर्षा में भीगने के अनुभव को अद्भुत बताती हुए उल्लासित स्वर में कहती है, नील कमल की तरह कोमल और आर्द्र, वायु की तरह हल्का और स्वप्न की तरह चित्रमय. मैं चाहती थी उसे अपने में भर लूँ और आँख मूँद लूँ. (6) मल्लिका कहती है कि माँ जल से भरे हुए बादलों से आवृत आकाश का दृश्य नील-कमल की भाँति कोमल और सोजा हुआ, पवन के समान हल्का और स्वप्नवत् सुहावना एवं मनोरम प्रतीत हो रहा था. वह वातावरण इतना चित्ताकर्षक एवं मनोहर था कि मेरी यह बलवती इच्छा जागत हो उठी थी कि किसी प्रकार उस दृश्य को अपने तन-मन में समाहित कर लूँ, उसका अपने नेत्रों के माध्यम से अनुमान करके अपने नेत्रों को बन्द कर लूँ जिस से वह मुझ से पृथक न हो सके. अभिप्राय यह मैं उस दृश्यावली का अनवतर अवलोकन करने को उत्कंठित हो उठी थी. यहाँ मल्लिका ने सौंदर्य का ऐसा साक्षात्कार कभी नहीं किया जैसे वह सौंदर्य अस्पृश्य होते हुए भी मांसल हो जिसे पहली बार अनुभव हुआ कि वह क्या है तो भावना को कविता का रुप देता है. यहाँ नाटककार ने अनिर्वचनीय सौंदर्य सुषमा का वर्णन करने तथा भावना में भावना का वरण करनेवाली नायिका मल्लिका की कोमल तथा मनोवृत्तियों की ओर संकेत देने भावपूर्ण दृश्यों की व्यंजना अद्भुत ढंग से की है.

      जब कालिदास को उज्जयिनी की राज्य-सभा की ओर से राजकवि पद का ग्रहण करने का आमंत्रण मिलता है तब वह इस आशंका को लेकर उसे अस्वीकार कर लेता है कि यहाँ की पर्वत-श्रेणियों, हरिणशावकों व अपनी प्रेयसी मल्लिका से दूर होने से उसकी प्रतिभा कुण्ठित हो जायेगी. जब उसकी प्रेयसी मल्लिका कालिदास के जीवन में इन क्षणों की महत्ता को पहचान कर उसे किसी-न-किसी तरह समझाकर उज्जयिनी भेजने का प्रयत्न करते हैं. निक्षेप द्वारा प्रबोधित किए जाने पर मल्लिका यह निश्चय कर लेती है कि वह येन-केन-प्रकारेण कालिदास को  उज्जयिनी भेजकर ही रहेगी. वह निक्षेप के साथ जगदंबा के मंदिर में जाकर कालिदास को अपने घर बुला लाती है और इस तथ्य पर बल दे दी है कि तुम्हें अवश्य ही राजधानी जाकर राजकवि का आसन ग्रहण कर लेना चाहिए. कालिदास जब यह  कहते हैं कि मैं इस ग्राम-प्रान्तर से कई सूत्रों से जुडा हुआ हूँ जिन में से एक तुम भी हो, तो मल्लिका यह सोचकर  कि कालिदास मेरी खुशी के लिए राजकवि का पद त्यागना चाहते हैं, वे कदाचित् यह सोच रहे हैं कि मैं उन से अपने अंतर्मन से जाने के लिए नहीं कह रही, तो वह कालिदास की आँखों में झाँकती हुई कहती है कि मेरी ओर देखों. तदनंतर वह उन से पूछती हैं कि, “अब भी उत्साह का अनुभव नहीं होता.......?” विश्वास करो तुम यहाँ से जाकर भी यहाँ से अलग नहीं होगे. यहाँ की वायु के मेघ और यहाँ के हरिण इन सबको तुम साथ ले जाओंगे. और मैं भी तुम से दूर नहीं होगी. जब भी तुम्हारे निकट होना चाहूँगी, पर्वत-शिखर पर चली जाऊँगी और उड़कर आते मेघों से फिर जाया करुँगी. (7) क्या तुम्हें मेरी आँखों में  झाँकने पर भी राजधानी की उमंग नहीं हो रही है, अर्थात् क्या तुम्हें मेरी आँखों में यह भाव झलकता नहीं दिखाई देता कि मैं अपने अंतर्मन से यह चाहती हैं कि तुम उज्जयिनी चले जाओ. वह उन्हें विश्वास दिलाती हुई कहती है कि तुम यहाँ से जाकर भी मुझ से दूर नहीं हो पाओंगे, मेरा और तुम्हारा संबंध-सूत्र टूटने नहीं पाएगा. तुम भी यहाँ के वातावरण से पृथक नहीं हो सकते क्योंकि यहाँ की मेघराशि, हरिणशावकों और वायु आदि तथ्यों को अपने स्मृति में संजोकर ले जाओंगे और वे सदैव तुम्हारे साथ बने रहेंगे. तुम वैसे तो मेरे अंतर्मम में निवास किया ही करोंगे, हाँ, जब कभी मैं तुम से मिलना चाहा करुँगी, मेरी यह इच्छा हुआ करेगी कि मैं तुम्हारे सन्निकट पहुँच जाऊँ, तो मैं पर्वत की चोटी पर जाकर मेघों में स्वयं को समाहित कर लिया करुँगी और उन में समाविष्ट होकर तुम्हारे समीप छा गया करुँगी. मल्लिका की इन पंक्तियों के अंतिम वाक्य से यह तथ्य भलीभाँति अभिव्यंजित हो रहा है कि वह कितनी अधिक भावनामयी नारी है और उसका मन कल्पना की कैसी उडाने भरता है यहाँ कालिदास के कवि प्रतिभा की प्रेरणादयिनी शक्ति के रुप में मल्लिका के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष को कवि कालिदास के रचना-साधना पर दिखाने नाटककार ने बिंबों का सफल संयोजन किया है. यहाँ मल्लिका यह इच्छा व्यक्त करती है कि मैं मेघ-घटाओं में समाविष्ट होकर तुम्हारे ऊपर फिर जाया करुँगी.

        इस नाटक के दूसरे अंक में राज्य कर्मचारियों के  निठल्लेपन का उपहास करने नाटककार ने कई सांकेतिक दृश्यों का अंकन किया है. जब कालिदास की नियुक्ति कश्मीर के शासक को रुप में की जाती है तब वह अपनी यात्रा के दौरान अपने ग्राम प्रान्तर में कुछ समय तक ठहरता है. तब राज्यकर्मचारियों को आदेश दिया जाता है कि उस ग्राम प्रान्तर की प्रत्येक विलक्षण वस्तु को पहचानकर उसके एक अंश को अपने साथ कश्मीर ले चलें ताकि वहाँ भी कालिदास को अपने ग्राम प्रान्तर में ही रहने का आभास हो. क्योंकि प्रियंगुमंजरी यह निश्चय करती है कि ग्राम प्रान्तर के वातावरण की मुख्य-मुख्य बातों को अनुकृति करके कश्मीर ले जाई जाएँ और उसके आधार पर वहाँ वैसे ही कृत्रिम वातावरण का निर्माण कर लिया जाए. इस उद्देश्य से वह अपने साथ बहुत चित्रकार भी लाती है और उन्हें आदेश देती है कि यहाँ की प्रत्येक उनकी वस्तु की प्रतिलिपि संचार कर लो. जैसा कि हुआ करता है, राजकीय पुरुषों (राजकर्मचारियों) के समान हो वे चित्रकार छोटी- बडी. महत्वपूर्ण और अमहत्वपूर्ण सभी प्रकार की वस्तुओं के चित्र उतारने फिरते हैं. विलोम मल्लिका और अंबिका की उपस्थिति में जब उनका उपहास करता तो मल्लिका उत्तर देती है कि इसका काई विशेष प्रयोजन हो सकता है. मल्लिका के कथन को उपहास में उडाते हुए विलोम कहता है-मैं कब कहता हूँ कि दूसरा अर्थ नहीं हैं? अर्थ बहुत स्पष्ट है. वे यहाँ की हर वस्तु को विचित्र रुप में देखते हैं और उस वैचित्रय को यहाँ से जाकर दूसरों को दिखाना चाहते हैं. तुम, मैं, यह, घर, ये पर्वत, सब उनके लिए विचित्र के उदाहरण हैं. मैं तो उनकी सूक्ष्म और समर्थ दृष्टि को प्रशंसा करता हूँ जो जहाँ वैचित्र्य नहीं, वहाँ भी वैचित्र्य देख लेती है. एक कलाकार का मैने यहाँ राज्य – कर्मचारियों के निठल्लेपन का खाका खींचने का प्रयास किया है जो महत्वपूर्ण कार्यों के करने से तो जी चुराते हैं, किंतु बेकार के कार्यों की ओर बडी दिलचस्पी दिखाया करते हैं.

       यहाँ सांकेतिक दृष्टि से नाटककार मोहन राकेश अपने ग्राम प्रान्तर से दूर हो जाने के कारण कवि कालिदास के अपने आत्मीय सूत्रों से दूर ही जाने की ओर संकेत किया है. इसी प्रकार नाटककार ने इस नाटक के आरंभ में तथा अंत में भी आषाढ़ की मुसलादार वर्षा के होने का दृश्यांकन करके नाटक की मूल संवेदना के साथ उसे जोड दिया है.

संदर्भ :

1.       मोहन राकेश : आषाढ़ का एक दिन पृ.सं. 15
2.       मोहन राकेश : आषाढ़ का एक दिन पृ.सं. 20
3.       मोहन राकेश : आषाढ़ का एक दिन पृ.सं. 20
4.       मोहन राकेश : आषाढ़ का एक दिन पृ.सं.  20
5.       मोहन राकेश : आषाढ़ का एक दिन पृ.सं. 21
6.       मोहन राकेश : आषाढ़ का एक दिन पृ.सं. 8
7.       मोहन राकेश : आषाढ़ का एक दिन पृ.सं. 49
8.       मोहन राकेश : आषाढ़ का एक दिन पृ.सं.  85  

         

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