रंग शिल्पगत प्रयोगधर्मिता और लहरों के राजहंस में अभिनय की कुशलता



Sankaly
ISSN : 2277-9264
July - September 2014

रंग शिल्पगत प्रयोगधर्मिता और  लहरों के राजहंस में अभिनय की कुशलता

प्रो. एस.वी.एस.एस.नारायण राजू
अभिनय की दृष्टि से मोहन राकेश कृत लहरों के राजहंस एक विशिष्ट रचना है.  इस नाटक की कथावस्तु, पात्र-योजना, संवाद एवं भाषा-शैली सभी अभिनय के अनुकूल है.  अभिनेयता नाटक का अनिवार्य गुण है.  नाटक जब तक अभिनेय बना रहता है तब तक उसकी सार्थकता है.  अभिनेयता की कीमत पर नाटक को सफल कहना कोई अर्थ नहीं रखता है.  लहरों के राजहंस का अभिनय भी कई बार हुआ है और उस में सफलता की गंध भी मिलती है, अभिनय बने रहने के लिए किसी भी नाटक को वस्तु का व्यवस्थित संगठित और आवश्यक विस्तार पूर्ण होना पहली शर्त है. इस दृष्टि से देखे तो नाटक की वस्तु में कहीं कोई शिथिलता नहीं है.  यह प्रत्येक घटना और परिस्थिति में सुसंबध्द है.  अन्विति उसकी विशेषता है.  तीन अंकों में जो कथा सिमटा हुआ है वह पूरी तरह श्रृंखलित और पुष्ट है.  नाटक का आकार संक्षिप्त है.  प्रथम अंक में नंद और सुंदरी की कथा को प्रस्तुत करते समय यह संकेत भी दिया गया है कि नंद गौतम की ओर आकृष्ट है.  द्वितीय अंक में बुध्द की ओर के आकर्षित नंद उनके द्वार से बिना भिक्षा लिए लौट जाने पर क्षमा याचना करता है.  तीसरे अंक में ये घटना चरम स्थिति तक पहुँचती है.  नंद के मन में बौध्द धर्म के प्रति भी उतनी ही ललक है जितनी सुंदरी के प्रति.  फिर भी तथागत के पास जाकर वह उनके आदेश का विरोध नहीं कर पाता जैसे उसकी सारी शक्ति समाप्त हो गयी हो.  उसके केश काट दिये जाते हैं. वह उद्विग्नमना होकर पत्नी की ओर भी खींचता है और बुध्द की ओर भी.  अतः वन की ओर चल देता है.  सुंदरी लौटने की प्रतीक्षा करते-करते अपने मस्तक के विशेषक को गीला करती रहती है.  अंततः थकित, हताश और दर्प-चूर्णित होकर वह अलका के आग्रह पर सो जाती है.  किंतु अंततः उसे नंद की आकृति देखनी पडती है और भोचक्की-सी होकर वह अलका से कहती है अलका वे लौटकर नहीं आये, अपितु उनके स्थान पर कोई दूसरा ही व्यक्ति लौटकर आया है.”(1)  स्पष्ट ही कथा संक्षिप्त है.  उस में छोटे-छोटे तीन अंक है और हरेक अंक में एक ही दृश्य बंध पर नाटक की कथा घटित होती है और यथार्थवादी नाट्यरचना पध्दति में एक दृश्य बंध और तीन अंकों वाले नाटकों का विकास आधुनिक रंगमंच के स्वरूप और प्रदर्शन की परिस्थितियों  तथा साधनों के कारण हुआ है और उसके पीछे एक शिल्पगत अनिवार्यता भी है.  भारी भरकम और ठोस पदार्थों से निर्मित यथार्थवादी दृश्य बंध के बदलने की कठिनाई से बचने के लिए ही इस शैली के नाटक ने अपने लिए एक दृश्य बंध स्वीकार किया है.  नाटकीय कथा के जिन प्रमुख संचरणों कथोद्घाटन, विकास और चरमोत्कर्ष के आधार पर ही इस शैली के नाटकों में तीन अंकों का विधान कहता है. प्रत्येक अंक कथा के एक उत्कर्ष पर समाप्त होता है क्योंकि अंक की समाप्ति पर यवनिका मंच पर गिरने की व्यवस्था है.  इस नाटक की कथा-वस्तु की संरचना अभिनय के बिल्कुल अनुकूल है.
लहरों के राजहंस नाटक में पात्रों की संख्या सीमित है.  प्रमुख पात्र तो केवल दो हैं ... नंद और सुंदरी.  नाटककार ने व्यर्थ में पात्रों की भीड खडी नहीं की है.  यदि ऐसा होता है तो वह कदापि अभिनेय नहीं होता.  यों अलका, श्यामांग, श्वेतांग और भिक्षु आनंद जैसे पात्र और हैं जिन्हें रंगमंच पर लाया है या आते हैं.  ये पात्र विशेषकर चार पात्र नंद, सुंदरी, अलका और श्वेतांग ही नाटक की घटनाओं से जुडे हुए हैं.  इन से संबध्द घटनाएँ ही विशेष महत्व रखती है.  अतः पात्रों की अत्यल्प संख्या होने के कारण भी यह नाटक अभिनेय है.  अभिनेय की दृष्टि से सफल नाटक के स्थान और समय की अन्विति भी आवश्यक है.  तात्पर्य यह है कि नाटक में घटित घटनाएँ जहाँ तक संभव हो कम-से-कम समय में और कम-से-कम स्थानों पर घटित दिखाई जानी चाहिए.  प्रस्तुत नाटक में ऐसा ही है.  लहरों के राजहंस आधुनिक यथार्थवादी नाट्य-रचना-पध्दति पर लिखा गया है और उसी पध्दति के व्यवहारों और रूढियों का पालन किया गया है.  एक ही दृश्यबंध (सेट) पर नाटकीय कथा घटित होती है, और कथा विभाजन तीन अंकों में किया गया है, अंकों को दृश्यों में नहीं विभाजित किया गया है.  यथार्थवादी नाट्य-रचना-पध्दति में एक दृश्यबंध और तीन अंकोंवाले नाटकों का विकास आधुनिक रंगमंच के स्वरूप और प्रदर्शन की परिस्थितियों तथा साधनों के कारण हुआ है और उसके पीछे एक शिल्पगत अनिवार्यता है.  वह अनिवार्यता वास्तव में उपलब्ध रंगमंच की परिस्थिति एवं स्वरूप ही है.  दृश्य बदलने की कठिनाई से बचना और व्यवहारिक दृष्टि से इस अस्वाभाविकता से बचना भी इस अनिवार्यता का एक कारण है.  इसलिए लहरों के राजहंस के लेखक ने सुंदरी के कक्ष को ही मुख्य दृश्य बनाकर समूची घटनाओं  एवं क्रिया-कलापों को चित्रित किया है.  यहाँ रंगमंच की अनिवार्यता का निभाना स्वाभावतः हो गया है.  एक ही दृश्यबंध की स्वाभाविकता को बनाये रखने के लिए नाटककार ने स्थान-स्थान पर रंग-संकेत दिए हैं, जिनसे उचित मंच-सज्जा सहज एवं स्वाभाविक हो जाती है.  फिर यहाँ रंगमंच की सज्जा और दृश्य-विधान किसी भी प्रकार से जटिल नहीं है, बल्कि अत्यंत सहज एवं सीधी-साधी है.  ऐसा करने के लिए नाटककार ने रंग और प्रकाश के साथ-साथ पार्शव-संगीत-स्वरों से भी सहायता ली है.  इसी कारण पात्रों की मनोदशाओं के अनुकूल ही रंग-संकेत, ध्वनि-योजना, जैसे कमलताल के हंसों का स्वर और पंखों की फडफडाहट आदि के संकेत.  इसी प्रकार भिक्षुओं के स्वर, प्रत्यूष-सूचक शंख-ध्वनि. पग-चाप आदि की योजना भी विशेष प्रयोजन है और रंगमंच के विधान की दृष्टियों से उचित भी.  लहरों के राजहंस में स्थान के समान समय की एकता या अन्विति का भी सें समग्रतः ध्यान रखा है.  यहाँ समय का विस्तार नहीं है.  सभी कुछ थोडे ही समय अर्थात केवल दो रातों में ही सिमटकर घटित हो जाता है.  इतने लंबे कार्य-व्यापार को इतनी कम सीमा में समेटना लेखक की कुशलता का परिचायक है.  नाटक के अभिनेयता के तत्वों को इस से विशेष बल और प्रभाव प्राप्त हुआ है.  स्थान, समय की एकता या एकान्विति के समान कार्य अथवा व्यापार की एकता-एकान्विति का ध्यान तो यहाँ रखा ही गया है.  वास्तव में एक ही क्षण-बोध व्यापक होकर सारे नाटकीय व्यापार पर छाया हुआ है.  वह क्षण-बोध है प्रवृत्ति एवं निवृत्ति में ग्रसित चेतना में से एक का चयन.  यद्यपि यहाँ स्पष्टतः एक का चयन नहीं होता, पर एकान्विति तो होती ही है.  अतः कहा जाता है कि नाटककार ने कार्यान्वति का भी समग्रतः ध्यान रखा है कि जो रंगमंच एवं अभिनेय की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है.  इस में स्थान और समय की एकता मिलती है.  नाटक का घटना चक्र प्रधानतया नंद और सुंदरी के प्रसाद में ही बंद है.  नाटक के आरंभ में स्यामांग और श्वेतांग का दीपक जलाना, पत्तियाँ सुलझाना और अलका व सुंदरी की उपस्थिति और नंद और मैत्रेय की उपस्थिति आदि सभी संदर्भ इसी भवन में घटित होते हैं.  द्वितीय अंक की घटनएँ भी भवन से ही संबंधित हैं, हाँ तृतीय अंक में जो घटनाएँ भवन में घटित नहीं हो सकी हैं वे नदी तट पर घटित होती है किंतु सूच्य रूप से.  नंद का तथागत के पास आना केश काटे जाना और वन में व्याघ्र से भिडन्त आदि ऐसी ही घटनाएँ हैं.  कुछेक संदर्भ और भी है जो रंगमंच पर घटित नहीं हो सकते हैं उन्हें भी सूच्य रूप में प्रस्तुत किया है.  तात्पर्य यही है कि आलोच्य नाटक में स्थान ऐक्य का पूरा पूरा ध्यान रखा गया है.  अभिनय और समय-ऐक्य की दृष्टि से भी यह नाटक पूर्णतः सफल है.  नाटक की शुरुआत रात्रि के उतरने से होती है और उसका अंत दूसरे दिवस की रात्रि के उतरने तक हो जाता है.  इस संदर्भ में डॉ. सुरेश अवस्थी का यह मत उल्लेखनीय है, एक ही स्थान पर नाटक की सभी घटनाएँ दिखाकर नाटककार ने स्थान अन्वति  का पूरी तरह पालन किया है.  स्थान अन्वति के साथ-साथ इस नाटक में काल और व्यापार की अन्वतियों का भी पालन किया गया है.  नाटक में घटना स्थलों तथा पात्रों की मनोदशाओं का परिचय देनेवाले रंग निर्देश भी यथार्थवादी नाट्य-पध्दति और शिल्प-विधान के अनुसार एक सुगठित और तर्क संगत रूपबंध का निर्माण करता है.”(2)  नाटक का प्राणतत्व उसका क्रिया व्यापार है.  अतः इस दिशा में भी मोहन राकेश पूरी तरह जागरूक रहे हैं.  उन्होंने दृश्य और सूच्य प्रसंगों और घटनाओं का चयन बडी कुशलतापूर्वक किया है.  इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है कि कौन सी घटना रंगमंच पर दिखाई जा सकती है और कौन सी मात्र सूच्य हो सकती है.  श्यामांग प्रसंग इस संदर्भ में उल्लेखनीय उपलब्धि है. नंद को रंगमंच पर तथागत से क्षमायाचना करते, उनके द्वारा उपदेश देते और उनके आदेश से भिक्षु आनंद द्वारा उसके केशों को कटवाते न दिखाकर मात्र संवादों से काम लिया गया है.  अलका और श्वेतांग के संवाद इस के लिए व्यवहार हुए हैं.  यदि नाटककार रंग-मंच पर इन्हें दिखाता तो दृश्यबदलता, स्थान बदलता और अभिनेयता में कठिनाई आती.  इस से सिध्द है कि आलोच्य नाटक पूर्णतः अभिनेय है.  एक दो कमियों की अहिमयततों यों खत्म हो जाती है कि वे नाटक की मूल चेतना से मिलकर देखने में कमियाँ ही नहीं रह जाती है.  नाटक की अभिनेयता में संक्षिप्तता और प्रभावपूर्ण कथोपकथनों की योजना का विशिष्ट स्थान होता है.  प्रेक्षक, नाटककार के उद्देश्य, पात्रों के मनोभाव उनके चारित्रिक गुण अवगुणों आदि का परिचय पात्रों के संवादों से ही प्राप्त करता है.  आलोच्य नाटक के संवादों में भी इन गुणों का समावेश मिलता है.  वे सरस, संक्षिप्त और प्रवाहपूर्ण हैं.  कहीं-कहीं भावातिरेक में बडे भले हो गये हों, अन्यथा वे सटीक और औचित्यपूर्ण ही है.  स्वगत-कथन विशेषकर नंद के स्वगत-कथन अपेक्षाकृत लंबे, गहरे और अंतर्व्दन्द्व पूर्ण हो गये हैं.  इतने लंबे स्वगत कथनों में  भी पाठक यदि ऊबता नहीं है तो उसका कारण लेखक की भाषा शैली  और उसकी क्रियात्मकता में छिपा है.  नाटककार ने अभिनेय कला की दृष्टि  से महत्वपूर्ण संवादों की योजना की है.
लहरों के राजहंस का अभिनय आडंबरयुक्त नहीं है.  हाव-भाव-विभाव, दृश्य-परिदृश्य, विचार-बिंब, अंतर्व्दन्द्व-कौतुहल और इनके अतिरिक्त किसी भी वस्तु-स्थिति को अभिनय के स्तर पर उतारने के लिए यहाँ किसी रूढ़ि का अनुसरण या परंपरा का अनुकरण नहीं है. इस अभिनय का अपना मौलिक आदर्श है अधिकाधिक सहज-संप्रेषण के स्तर का अन्वेषण करके वस्तु, पात्र, चरित्र-चित्रण, अंतर्व्दन्द्व और आत्म-संघर्ष का प्रस्तुतीकरण करना.  तदनुकूल यहाँ भाषा-शैली और संवाद-योजना को सक्षम बनाए रखने का भी एक हद तक ख्याल रखा गया है.  हालांकि मंचीय सफलता के अनुरूप सुधार-संशोधन की कुछ जरूरत भी कहीं-कहीं महसूस होती है जिसकी अन्यत्र भी कहीं कुछ जिक्र किया गया है.  जयशंकर प्रसाद के नाटकों में उनके दिक्कतों के साथ-साथ भाषा की दिक्कत भी है.  भाषा अलंकरण, लाक्षणिकता या व्यंजना पध्दति सर्व-सामान्य के लिए बोधगम्य नहीं हुआ करती.  इस दृष्टि से यहाँ कोई बाधा नहीं.  लहरों के राजहंस की भाषा सामान्यतः सरल, चलती, प्रवाहमयी, प्रसाद गुण से संपन्न एवं चित्रात्मक है.  ऐतिहासिक परिवेश रहते हुए भी भाषा में दुरूहता नहीं.  कुछ एक ऐतिहासिक शब्द अवश्य हैं – जैसे विशेषक, आपानक आदि.  नाटककार ने भाषा की दृष्टि से सरलता रोचकता और रंगमंच के सब प्रकार के दर्शकों का पूरा ध्यान रखा है.  भाषा पर स्वच्छंदतावादी प्रवृत्तियों का प्रभाव स्पष्ट है.  कुल मिलाकर भाषा रंगमंच एवं अभिनय के सर्वथा उपयुक्त है.  लहरों के राजहंस  नाटक में अभिनेय के उपयुक्त जिस सरस, सीधी व सुलझी हुई भाषा की अपेक्षा होती है, वह भी मिलती है.  सामान्यतः भाषा सीधी और सपाट ही है, किंतु उसकी सपाटता में तभी बाधा आई है जबकि पात्र की मनःस्थिति उलझी हुई और क्लिष्ट हो गयी हो.  भाषा में बीच में बिंदुओं का प्रयोग मिलता है जो इस बात का प्रतीक है कि मनःस्थिति के अनुरूप पात्र ठहर-ठहर कर बोल रहा है, कोई स्वर नहीं है.....कोई किरण नहीं है.....सब कुछ .........सब कुछ इस अंधकूप में हुआ है.......मुझे सुलझाने दो....सुलझा लेने दो....नहीं तो अपने हाथों का मैं क्या करूँगा.........कोई उपाय नहीं है.......कोई मार्ग नहीं......(3)  अभिनय की दृष्टि से लहरों के राजहंस मोहन राकेश की एक सर्वांग सफल सर्जना है.
संदर्भ
1.      मोहन राकेश - लहरों के राजहंस पृ.सं. 120-121
2.      डॉ. सुरेश अवस्थी – लहरों के राजहंस की भूमिका पृ.सं. 13
3.      मोहन राकेश - लहरों के राजहंस पृ.सं. 64.

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