कवि कालिदास की प्रतिभा की पूजारिन मल्लिका
yogyatha
International Research Journal
ISSN : 2348-4225
July - September 2015
कवि कालिदास की प्रतिभा की पूजारिन मल्लिका
प्रो.एस.वी.एस.एस.नारायण
राजू
मोहन राकेश का प्रथम नाटक
“आषाढ़ का एक दिन” संस्कृत के
काव्यकार कालिदास के जीवन के अनुमानाश्रित तथ्यों को लेकर एक आधुनिक रचनाकार के
व्यवस्था के साथ संघर्ष को प्रस्तुत करने के उद्देश्य को लेकर रचा गया है. कालिदास की प्रेयसी मल्लिका इस नाटक की कथा की
धुरी है. जिसके चारों ओर कथा का बुनावट
किया गया है. मल्लिका इसका केंद्रीय
चरित्र है. कवि कालिदास की प्रतिभा की
पूजारिन के रूप में तथा उसके काव्योत्कर्ष के लिए स्वयं के जीवन को समर्पित
करनेवाली त्यागमयी नारी के रूप में तथा स्वच्छंद प्रवृत्ति के कारण भावना के संसार में जीनेवाली अल्हड युवती के
रूप में मल्लिका का चित्रण किया गया है.
मल्लिका का अनुपम त्यागमयी, निश्चल हृदया, एवं स्वाभिमानिनी नारी है. कवि-प्रिया मल्लिका प्रणय के प्रति पूर्ण
समर्पण भावना रखनेवाली भावनामयी नारी है.
ऐसे क्षणों को वह महत्वपूर्ण मानकर भावना को ही अपनी संपत्ती मान लेती
है. इसलिए वह माता अंबिका से कहती है.- “मैं भावना में एक भावना का वरण किया है. मेरे
लिए वह संबंध सब संबंधों से बडा है. मैं वास्तव में अपनी भावना से ही प्रेम करती
हूँ जो पवित्र है, कोमल है, अनश्वर है....”(1)
मल्लिका कालिदास के साथ स्वयं के प्रेम संबंधों के लेकर किसी दूसरे व्यक्ति
के हस्तक्षेप को सहन नहीं करती है. वह
भावना के स्तर पर अपने संबंध को स्वीकार कर लेती है.
“आषाढ़ का एक दिन” नाटक में मोहन राकेश ने संस्कृत के महान काव्यकार कालिदास
को केंद्रीय-पात्र बनाना चाहने पर भी उसकी प्रेमिका मल्लिका ही केंद्रीय पात्र बन
गयी है. क्योंकि आलोच्य नाटक के सभी पात्र
मल्लिका से ही प्रभावित हैं और नाटक में कोई एक पात्र भी नहीं जो मल्लिका के
संसर्ग में न आता हो. इसीलिए मल्लिका ही
इस नाटक की मूल धुरी है. वह पाठक की करूण
एवं प्रीतिपात्रा बनी रहती है. मल्लिका
भावनामय जीवन बिताना चाहती है. वर्षा में
भीगने के बाद वस्त्र बदलते समय मल्लिका की बातों से पता चलता है कि वह एक भावनामयी
नारी है.- “नील कमल की तरह कोमल आद्र वायु की तरह हल्का और स्वप्न की
तरह चित्रमय. मैं चाहती थी उसे अपने में भर लूँ और आँखें मूँद लूँ...मेरा तो शरीर
भी निचुड रहा है माँ. कितना पानी इन
वस्त्रों ने पिया है.”(2) वह भावुक, उदार,
स्नेहिल एवं क्षण में जीनेवाली अल्हड युवती है.
मल्लिका में अल्हडता की अभिव्यक्ति एक सहज अवस्था एवं भावना की अनुकूलता
है. अल्हड युवती मल्लिका कवि कालिदास की
प्रारंभिक जीवन-संगिनी ही नहीं अपने प्रेमी की मंगल-कामना से अपने जीवन को
न्योछावर करनेवाली “कवि-प्रिया” भी
है. इसलिए मल्लिका के चरित्र-चित्रण में
संस्कारयुक्त प्रेम-समर्पण के उदास भावों की अभिव्यक्ति है. इसी कारण मल्लिका के प्रति प्रमाता की पूरी
सहानुभूति एवं संवेदना की पूरी शक्ति झुकी रहती है. इसीलिए मल्लिका का चरित्र निस्संदेह कलात्मक
स्तर पर सशक्त सुंदर संवेदसंकुल और सार्थक है.
आरंभ में मल्लिका के चरित्र-चित्रण में अति-अभिनय का आभास होता है. मल्लिका आरंभ में अल्हडयुवती के रूप में
चित्रित है किंतु बाद में मनोरम-मार्मिक रूमानी व्यक्तित्व के रूप में उसका वर्णन
किया गया है.
भावनामयी नारी मल्लिका
प्रतिकूल परिस्थितियों की मार झेल जाती है.
कालिदास उज्जयिनी जाने के बाद उदास बन जाती है. माता अंबिका की मृत्यु के कारण मल्लिका की
देखबाल करनेवाला कोई व्यक्ति नहीं रहा. विलोम से शारीरिक संबंध स्थापित करके वह उस
बच्ची की माँ बन जाती है. ग्राम-पुरुष
निक्षेप के मुहँ से कालिदास के सन्यास लेने की बात सुनकर विक्षुब्ध होकर अपने मन में स्थित कालिदास से कहती है – “व्यवसायी कहते
थे, उज्जयिनी में अपवाद है, तुम्हारा बहुत-सा समय वारांगणाओं के सहवास में व्यतीत
होता है...परंतु तुमने वारांगणाओं का यह रूप भी देखा है?” आज तुम मुझे पहचान सके हो? मैं आज भी उसी
तरह पर्वत-शिखर पर जाकर मेघ-मालाओं को देखती हूँ.
उसी तरह “ऋतु-संहार” और “मेघदूत”की पंक्तियाँ पढ़ती हूँ.
मैंने अपने भाव के कोष्ठ को विरक्त नहीं होने दिया. परंतु मेरे अभाव की पीडा का अनुमान लगा सकते हो?”(3) मल्लिका इन पंक्तियों में वह इस तथ्य का
उद्घाटन कर चुकी है कि मुझे अभावग्रस्त जीवन ने वारांगणा का रूप धारण करने की विवश
कर दिया है. प्रस्तुत पंक्तियों में वह
अपने इस पतित-रूप का संबंध इस अपवाद के साथ जोडती हुई कि कालिदास का अधिकांश समय
वेश्याओं की संगति में व्यतीत होती है.
मल्लिका के प्रस्तुत कथन में आक्रोश और व्यंग्य का गहरा पुट है, जिसे पढ़कर
हमारा हृदय कालिदास के विश्वासघात के प्रति विक्षुब्ध हो उठता है. भावनामयी मल्लिका अपने जीवन को कालिदास की
स्मृति में विनष्ट कर बैठने पर भी उन्हें भुला नहीं पाती और उनकी कृतियों का पाठ
करती रहती है, उनके साथ भ्रमण के लिए जानेवाले स्थानों पर विचरण करती फिरती
है. उसकी दशा वास्तव में ही बडी दयनीय हो
जाती है. लेकिन मल्लिका की यह टूटन तो
केवल बाहर के तौर पर ही है. नाटककार मोहन
राकेश ने भावना के संबंध को शारीरिक संबंध से अलग रखना चाहते हैं. इसलिए उन्होंने मल्लिका द्वारा वारांगणा का
जीवन अपनाए जाने की “भावना में भावना के वरण” से विसंगति न समझते हैं.
पर तन और मन के संबंध को अलग नहीं कर सकते हैं. मल्लिका भावना-सूत्र को अविच्छन्न रखते हुए भी
तन के स्तर पर अभाव के कोष्ठ में न जाने कितनी व्यक्तियों को अंगीकार करना उसके
वरण की स्वतंत्रता का सूचक है. मल्लिका की
जीवन दृष्टि अस्तित्ववादी है. लेकिन उसकी
इस जीवन-दृष्टि से उसके चरित्र की संपूर्णता नहीं मिली है. मल्लिका के चरित्र की आंतरिक विसंगति के साथ वह
न्याय नहीं कर पाती. फिर भी निस्संदेह
मल्लिका जैसी स्पंदनमयी और भावनामयी नायिका का दर्शन कराने का श्रेय मोहन राकेश को
ही मिलता है. वह कालिदास को स्वार्थ रहित
प्रेम करती है. हमेशा अपना प्रिय-कवि
कालिदास की महानता देखना चाहती है. वह
कालिदास से ऐसा प्रेम करती है कि जिस में आदान की नहीं प्रदान की भावना का
प्राबल्य है. उस में प्रेम की निश्चलता के निर्वाह के लिए दुनिया को अंगूठा दिखाने
की शक्ति है. इसलिए मल्लिका के बारे में
मोहन राकेश कहते हैं—“मल्लका का चरित्र एक प्रेयसी और प्रेरणा का ही
नहीं, भूमि में रोपित उस स्थिर आस्था का भी है.
जो ऊपर से झुलसकर भी अपने मूल में विरोपित नहीं होती.”(4) नाटककार मोहन राकेश ने अंततः उसके नारीत्व को
एक महान प्रेमी-पुरूष की घृणा-उपेक्षा का भार ढोने की नियति में डाल दिया है. नादानी करनेवाली ललनाओं को स्वीर्थी पुरूष वर्ग
की ओर से विश्वासघात उपेक्षा अवहेलना जैसे जो पुरस्कार प्राप्त होते हैं उस से
मल्लिका की नियति भिन्न नहीं है. फिर भी “आषाढ़ का एक दिन” की मल्लिका हिंदी
साहित्य के इने गिने नारी पात्रों में से है.
एक अल्हड युवती के रूप में, बाद में भावनामयी एवं स्वाभिमानिनी नारी के रूप
में मल्लिका के चरित्र का अंकन इस नाटक के आरंभ में किया गया है. पुरूष के प्रति पूर्ण समर्पण की एक छायावादी
ढर्रे की निष्ठा उसके चरित्र में दिखाई पडती है.
कवि प्रिया मल्लिका पुरूष की प्रणयिनी से अधिक उसकी पूजारिन सी लगती है
लेकिन नाटक के तीसरे अंक में वारांगणा के रूप में मल्लिका के चरित्र को विकास देने
के पीछे निश्चय ही नाटककार मोहन राकेश की मध्यकालीन पुरूष-प्रधान प्रवृत्ति की
पक्षधरता सक्रिय है. यध्यपि नाटककार ने
मल्लिका के चरित्र के विकास की इस अंतिम परिणति को “मल्लिका की बाहरी
टूटन और उसके चरित्र की आंतरिक अखण्डता”
कहकर समर्थन किया है किंतु इस संदर्भ में मोहन राकेश की
नियति नारी-चरित्र के प्रति पूर्वाग्रह ग्रस्त अवश्य है. नारी के संबंध में मोहन राकेश परंपरा ग्रंथि से
मुक्त नहीं हो पाए हैं. मल्लिका के उदात्त
स्वरुप का संरक्षण न करके नाटक के अंत में उसका वारांगणा के रूप में चित्रित करने
के पीछे मोहन राकेश की नारी के दोष-पूर्ण सामाजिक स्वरूप का चित्रण करने की
अभिलाषा का तथा रसनिष्पत्ति कराने में नाटककार मोहन राकेश की असमर्थता का परिचय भी
मिल जाता है. इस प्रकार अपने आरंभिक
नाटकों में नारी-चरित्र का अवमूल्यन करने के पीछे नाटककार की परंपरा की ग्रंथि से
जुडी नियति सक्रिय रही है. किंतु ध्यान
देने योग्य बात यह है कि मिथकीय एवं ऐतिहासिक चरित्रों का आधुनिक साहित्य में नवीन
संदर्भों के अनुकूल चित्रण प्रस्तुत करने में साहित्यकार की कई समस्याओं का सामना
करना ही पडता है. कालिदास के चरित्र के
संबंध में उसकी चारित्रिक दुर्बलताओं पर प्रकाश डालने के कारण, नाटककार मोहन राकेश
को आलोचकों की तीव्र दृष्टि सहन करनी पडी. “जातीय प्रतीकों
की अवहेलना” समझकर
मोहन राकेश की पात्र-योजना की निंदा की जा चुकी है. कालिदास की प्रेयसी के रुप में मल्लिका के
चरित्र-निर्माण के संदर्भ में भी आलोचकों की यही प्रतिक्रिया रही है. किंतु मानवीय धरातल पर कुण्ठाग्रस्त आधुनिक
व्यक्ति के जीवन से जोडने के प्रयत्न के कारण इन पात्रों का चारित्रिक विकास
परंपरागत ढ़ंग से आदर्शोन्मुख रुप में
नहीं हो पाया है. यह नाटककार की नारी
नियति का दोष कदापि नहीं. आज के असंगत
परिवेश में मानव-चरित्र को विकास के पूर्ण अवसर न मिल पाने की वजह से भी वह अधूरा
बनने लगा है. इस दृष्टि से मोहन राकेश के
ऐतिहासिक चरित्र सामयिक प्रासंगिकता के अनुकूल ही चित्रित किए गए है.
1.
मोहन राकेश – आषाढ़ का एक दिन पृ.सं. 13
2.
मोहन राकेश – आषाढ़ का एक दिन पृ.सं. 8
3.
मोहन राकेश – आषाढ़ का एक दिन पृ.सं. 100
4.
मोहन राकेश – आषाढ़ का एक दिन पृ.सं. 20