दलित तथा पतितों के उध्दारक के रूप मे विश्वामित्र
शब्द विधान
अंतर्राष्ट्रीय त्रैमासिक अनुसंधान पत्रिका
ISSN : 2394-0670
January - March & April - June 2015
प्रो.
एस.वी.एस.एस.नारायण राजू.
विश्वामित्र क्षत्रियत्व से भरे हुए ब्रह्मर्षि हैं. वे पहले राजा थे. उन्होंने अपने राजत्व छोडकर तपस्या की और
ब्रह्मर्षि तक बन गए. उनको ठीक तरह मालूम
है कि राज्य क्या है, राजा कौन है, प्रजा कौन है, हर एक का धर्म क्या है ? उनको
यह भी अच्छी तरह मालूम है कि दुर्बलों को ही राजा की अधिक देखरेख की आवश्यकता है.
लेकिन जब राजा ही अन्यायी बन जाएँ तो क्या हाल होगा राज्य की. इंद्र के शासन में यही हालत देखा है
विश्वामित्र ने.
ब्रजेश के. वर्मन कृत उपन्यास (विश्वामित्र) का विश्वामित्र एक
संविधान सम्मत समतामूलक प्रगतिशील राष्ट्र निर्माण के लिए कृत संकल्प है. उसके लिए पहले उन्होंने कठिन साधना द्वारा
क्षत्रियत्व से ब्राहम्णत्व को प्राप्त किया, उनका ब्राह्म्णत्व उस समाज के
नीच-जाति-संकल्प पर बडा आघात पहुँचाता है.
दलित नेता जीवा को उन्होंने साथ लिया.
उसके भरोसे पर इंद्र के विरुध्द युध्द किया. जीवा विश्वामित्र की परिभाषा में ब्राह्म्ण बन
गया. इंद्र के विरुध्द युध्द तो प्रथम
दृष्टि में पराजय था, पर जिन मुध्दों को लेकर युध्द छिडा. वे संसार के सामने
ज्वलंत समस्या बनकर रह गए. पर इतिहास
साक्षी है कि सभी महत्वपूर्ण युध्दों की यही नतीजा है. समाज को भेदहीन बनाने के
काम में विश्वामित्र लगे रहते हैं.
विश्वामित्र मानते हैं कि दासों से भरा समाज आत्मविश्वासहीन और षडयंत्रों से भरा होता
है. एक समतुल्य समाज ही शांतिपूर्ण जीवन
जी सकता है. इसीलिए उन्होंने वेद-सम्मत
राष्ट्र की संकल्पना सामने रखी है. वे
जानते हैं कि ऋग्वेद तो समरस चेतना का संस्थापक है, जहाँ भेद कम, एकता की बात अधिक है, लेकिन स्वार्थी और पदच्य़ुत इनसानों के हाथों
में पडकर वेद भी मलिन हो गया, समाज भी मलिन हो गया. उन बेइन्सानियत कर्मों को राजा लोग तक धर्म और
नीति मानने लगे तो समान्य जनता का जीवन नरक बन गया. दुर्बलों की दुर्गति ही हो गयी. नवीन उत्पादन व्यवस्था चातुर्वर्ण को तोडे बिना
नहीं बनाया जा सकता. विश्वामित्र के
अनुसार न्याय की संस्थापना की आवश्यकता है
यथा .. “न्याय एक
व्यवस्था संचालन है. संतुलित कर्म और
न्याय की व्यवस्था ही राज्य-संचालन की धुरी है.”(1)
स्त्रियों की
हालत पर विश्वामित्र दुखी है. अहल्या से
इंद्र ने जो धोखा दिया उस मुध्दे को लेकर उन्होंने इंद्र से युध्द किया. वास्तव में यह एक प्रत्यक्ष कारण था. इसे हम निमित्त कहते हैं. इंद्र के शासन में दुर्बलों को किसी प्रकार की
सुरक्षा नहीं थी. भारत अधर्मों से भरा गया
था. जैसे..
“धर्म से बाहर आकर
भारत को एक करने का कोई अभियान, इतनी व्यापक अवधारणा थी कि वह इंद्र के समझ के
बाहर की बात थी.”(2) इंद्र अपने राजा होने की हालत को लेकर अंधा हो
गया है. वह अपने अधिकार को केवल भोग-विलास
के लिए प्रयोग करता रहता है. वह अपनी
पत्नी तक को न्याय का पालन नहीं कर पाता है.
वह केवल एक साधारण से साधारण पुरुष बनकर रहता है. वह तो ऐसा पुरुष बन गया है कि हमेशा स्त्री को
भोगनीय सामग्री समझता है. स्त्री की
मांसलता को घूरने, छूने, चखने से लेकर अगर उसका वश चले तो खा जाने तक. अपने यौवन को ढलने से रोकने के प्रयास में पूरी
स्त्री जाति कितने मानसिक और शारीरिक दबाव में आ चुकी है. विश्वामित्र ने अहल्या को देखा है. इंद्र से पृथक हुई शची को देखा है. शबरी को देखा है. इंद्र के षडयंत्र के औजार के रुप में मेनका को
देखा है. सब इंद्र से धोखा खा गए थे. सबको इंद्र
के प्रति विरोध भी है. इस हालत पर
विश्वामित्र तो सबको सुख पहुँचाने के काम में लगे. अहल्या और शबरी को राम से भेंट करवाकर उनके
दुःख विमोचन का अवसर प्रदान किया. शची को
इंद्र से ही मिलाया. मेनका को इतना प्यार
और सुख प्रदान किया कि उसे एक अप्सरा होने से अधिक गौरव एक स्त्री होने में महसूस
हुआ. यहाँ तक कि मेनका ने अपने आगमन का
उध्देश्य तक भूलकर विश्वामित्र को अपनाया और इंद्र-विश्वामित्र युध्द के अवसर पर
विश्वामित्र के विजय की कामना तक करने लगी थी.
इन मुध्दों पर विश्वामित्र का हर कदम विजय का झंडा फहराता ही रहा.
जाति-व्यवस्था द्वारा मनुष्य को ऊँच-नीच गिनना कितना अपमानजनक है,
अत्याचार है. इससे मुक्ति पाए बिना
समतामूलक समाज की सृष्टि नहीं होगी. इस पर
विश्वामित्र का विचार इस प्रकार है कि “जब तक हम समाज को जातियों से परिभाषित करेंगे तब तक
अत्याचार से भी मुक्ति नहीं मिलेगी.”(3) विश्वामित्र की शिक्षा का प्रभाव था कि जब दशरथ
ने राम को आशीर्वाद देते हुए कुछ माँगने को कहा तब राम ने उन राजाओं के लिए अभयदान
माँगा जो अयोध्या में कैद थे, ये सभी ऐसे राजा थे जो कर्म से वीर होते हुए भी
जातिवाद षडयंत्र के तहत निम्न जाति के ठहराए गए थे और धर्म-विरुध्द काम करने के
आरोप में दंडित होकर अयोध्या के राज-कारागार में अभिशप्त जीवन बिता रहे थे. वे एक ऐसे साहस की सजा पा रहे थे जिसे दुःसाहस
घोषित किया गया था. जाति के नाम पर उनकी बलि दे दी गयी थी. जाति व्यवस्था पर आघात पहुँचाते हुए विश्वामित्र
इंद्र की सभा में वाद रखते हैं कि अगर धर्म-विरुध्द आचरण करने पर ईश्वर को भी
पदच्युत कर दिया जाता है तो ऊँची जाति की क्या बिसात है. बिना कर्त्तव्य के मिली अधिकार की कोई सत्ता
नहीं होती. आगे वे पुराणों को साक्ष्य
बनाकर कहता है कि “व्यास की माता मल्लाह थी.
शुकदेव की माता शुकी बंजारा जाति की थी.
पराशर की माँ चांडाल जाति की, कणाद की माँ उल्लूनी जाति की, ऋष्य शृंग की
माँ मृगी जाति की, वशिष्ठ की माँ कंजर जाति की, इसलिए अगर संतों ने कहा कि जाति ना
पूछो साधु की तो सही कहा है. अब संत बडा
है या जात, तो इस पर तुम्हारी राय क्या होगी मुझे पता है.”(4) कहकर इंद्र सभा
का उपहास करने तक का धैर्य विश्वामित्र दिखाते हैं. अपने जीवन के निरंतर संघर्षों से विश्वामित्र
बडे धीर बन गए हैं.
फिर भी ज्ञान की गरिमा ने विश्वामित्र को सरल, पर उज्जवल
चरित्रवाला बनाया है. विश्वामित्र अपना
परिचय इस प्रकार देते हैं कि “मैं कौन
हूँ. मैं दलितों की पुकार, विधवाओं के
आँसू, पतितों की प्रार्थना, अछूतों की हाय... मुझे मनु की नीति, इंद्र का ऐश्वर्य,
वरुण की राजनीति या वशिष्ठ का पद नहीं चाहिए.
नहीं चाहिए. मैं स्वर्ग का
आकांक्षी नहीं, मोक्ष का दाता नहीं. मैं
हूँ भारत भाग्य विधाता. मैं एक सामान्य
धरती-पुत्र हूँ और इसलिए मैं हूँ भारत
राष्ट्र.”(5) इधर “मैं” सर्वनाम का अर्थ
अधिक गंभीर और सार्वकालीन एवं सार्वजनीन हो गया है.
इस प्रकार विश्वामित्र का हर कदम, चाहे मानसिक हो या शारीरिक,
दलितों और पतितों के विकास के लिए ही रखा गया है.
उनका जीवन पूर्ण रूप से राष्ट्र के समतामूलक विकास के लिए समर्पित है. समरस समाज की परिकल्पना में विश्वामित्र अपने
को पूर्ण रूप से समर्पित कर धीर और साहसी बनकर चलते हैं. उपन्यासकार ब्रजेश के. वर्मन ने विश्वामित्र के
माध्यम से वेदकालीन भारतीय संस्कृति का पुनःपरिचय इस प्रकार करवाया है कि वह भारत
के नवोत्थान के लिए सर्वथा प्रेरणा बनकर रहेगा.
संदर्भ :
1. विश्वामित्र -
ब्रजेश के. वर्मन पृ. सं. 164
2. विश्वामित्र -
ब्रजेश के. वर्मन पृ. सं. 71
3. विश्वामित्र -
ब्रजेश के. वर्मन पृ. सं. 94
4. विश्वामित्र -
ब्रजेश के. वर्मन पृ. सं. 159
5. विश्वामित्र -
ब्रजेश के. वर्मन पृ. सं. 208