“पॉलीवुड़ की अप्सरा ” में चित्रित फिल्मी जगत का यथार्थ जीवन



अंतर्राष्ट्रीय सैध्दांतिक समीक्षा
ISSN  : 2347-9116
January- June 2015  


पॉलीवुड़ की अप्सरा में चित्रित फिल्मी जगत का यथार्थ जीवन
प्रो.एस.वी.एस.एस.नारायण राजू.
     पॉलीवुड़ की अप्सरा गिरीश पंकज कृत उपन्यास है.  इस उपन्यास का मूल प्रतिपाद्य पॉलीवुड़ है.  पैरी नामक एक लडकी पॉलीवुड़ की हीरोइन बनने के लिए अपने गाँव से शहर आकर हीरोइन बनने की कोशिश करती है.  इस उपन्यास में लेखक गिरीश पंकज ने फिल्मी जगत के यथार्थ जीवन के विभिन्न पहलुओं का चित्रण अलग-अलग पात्रों के द्वारा सफलतापूर्वक किया है. लेखक ने पुरुष मानसिकता के बारे में निम्नलिखित उध्दरण द्वारा प्रस्तुत किया है, यथा... अच्छा ही हुआ.  दोनों एक दूसरे पर कीचड फेंककर अपनी असलियत बता रही थीं.  इसके बारे में जिन्हें कुछ भी नहीं पता नहीं था, उन्हें भी आज सब कुछ पता चल गया.”(1)
            पैरी और रीमा आपस में झगडा करती है.  उनके झगडे से आस – पास के औरतों को असली बात समझ में आ गयी है.  आस - पास के लोगों ने बहुत देर तक उनके झगडे का मजा लिया.  औरतों को लडते-झगडते देखना मर्दों के लिए अक्सर खुद नजारा होता है.  पैरी और रीमा के झगडे में भी सबको रस आ रहा था.  यथा ...  किसी को भी जवाब देने की कोई जरूरत नहीं, पैरी ने गुस्सा दिखाया, हमारा समाज हिप्पोक्रसी से भरा समाज है.  एक तरफ तो लोग नग्नता को देखकर लार टपकाने लगते है, तो दूसरी ओर उसी नग्नता का विरोध भी करते हैं.  आगर कहीं कोई लडकी अकेली मिल जाए, तो उसे भूखे भेडिए की तरह मारकर खा जाने की मानसिकता रखते हैं.  ऐसे चरित्रवाले ही अक्सर अश्लीलता के खिलाफ बोलना इस वक्त की सबसे बडी राजनीति है, दुकानदारी है.”(2)  पैरी सुनीता से कहती है कि तुम ऐसे लोगों की बिल्कुल चिंता मत करो.  तुमको जो अच्छा लगता है वह करो.  अगर नाम और दाम कमाना चाहती हो, तो लोग क्या कहेंगेआदि सब भूल जाओ.  पॉलिवुड  में एंट्री के लिए आवश्यक विषयों के बारे में तथा  फिल्मी जगत से संबंधित विभिन्न विषयों के बारे में लेखक गिरीश पंकज ने इस प्रकार अभिव्य़क्त किया है कि...यथा..  “अभिनय से ज्यादा बडी चीज है पॉलीवुड में एंट्री और उसके लिए अभिनय की बिल्कुल ज़रुरत नहीं,  जितना मुझे पता है, अभिनय प्रतिभा के बगैर भी इस लाइन में लडकियाँ आ रही है.  बॉलवुड में प्रवेश करनेवाली हरेक विश्व-सुंदरी को क्या ऐक्टिंग आती थी ?  लडकी सुंदर हो, उसका फिगर अच्छा हो बस!  अरे असली काम तो डायरेक्टर करते हैं.  री-टेक कर-करके सबसे बढ़िया अभिनय करवा लेते हैं.  मैं सब जानती हूँ, इसलिए मुझे उसका टेंशन नहीं है.  रही बात इस स्याह दुनिया की तो फिर प्यार किया तो डरना क्या ? स्याह दुनिया में प्रवेश करना है, तो आत्मा को भी स्याह कर लो बस ! भई, मैं तो इसकेलिए तैयार बैठी हूँ.  पहले मैं सोचती थी कि सब पाप है.  लेकिन अब सोचती हूँ कि क्या पाप और क्या पुण्य.  तूने वह गाना नहीं सुना क्या कि यह पाप है क्या, यह पुण्य है क्या, रीतो पर धर्म की मुहरे हैं ?  ये सब तो धार्मिक लोगों के बनाए गए छल-छंद है, चोचले हैं.  इस दुनिया में बडे-बडे पापी ऐश कर रहे हैं और जो पुण्यात्मा हैं, उन बेचारों का क्या हाल है ?  भूखे मर रहे हैं.  उन्हें कोई नहीं पूछता.  तो ऐसी पाप-पुण्य निरपेक्ष दुनिया में काहे की फिकर ? पाप करो और नाम भी कमाओ.  इसलिए संज्ञा, मैं अब पाप करने से भी नहीं डरती.  मैं तो सोच रही हूँ कि इस बाढ़ में उतर ही जाऊँ.  कर दूँ खुद को लहरों के हवाले.  जो होगा, देखा जाएगा.  लगा लूँ अपनी बोली.  देखूँ तो जरा कि मार्केट-वैल्यू क्या है.  खरीदकर मिल जाए बस.”(3)
            पैरी के द्वारा फिल्म में अभिनय करने की बातें सुनकर शैशनी कहती है कि सुकन्या भी अभिनेत्री थी.  वह बहुत सुंदर और पढ़ी-लिखी लडकी थी.  महेश अघोरी के जाल में पडकर सुकन्या का सब कुछ नष्ट हो गया.  इस प्रकार न जाने कितनी लडकियाँ हैं, जो इसी चक्कर में बर्बाद हो गई हैं.  लडकियों को पटाने के लिए कुछ चालू किस्म के लडके लडकियों को दीदी बोलने से भी परहेज नहीं करते.  लडकियाँ चिडियों की तरह इस जाल में फँस जाती हैं. इसका वर्णन उपन्यासकार ने अत्यंत यथार्थ ढ़ंग से चित्रित किया है, यथा  बडा अच्छा लगता है यह शब्द.  बडा ही ग्लेमरस शब्द है न ! रूमानी भी है.  सचमुच एक रस तो है इस में.  हीरोइन बोलते ही एक ऐसी युवती का बिंब तैयार होता है, जो बेहद खूबसूरत है, जिसकी सुडौल देहयष्टि है.  जिसके शरीर पर कम से कम कपडे है और जो बात-बात में अंग्रेजी बोलती है, सेक्स को लेकर जो खुले विचारों वाली है, और हर तरह की वर्जनाओं से मुक्त है.  बडा अच्छा लगता है.  इसी शब्द के चक्कर में फँसकर कभी मैं भी भुँइया मोर महनारी (धरती मेरी माँ) फिल्म में हीरोइन की भूमिका करने केलिए राजी हो गई थी.  फिल्म बनी और चली भी खूब.  थोडे बहुत पैसे भी कमाए, लेकिन पहली फिल्म करते हुए ही मैं इस मायानगरी के चाल, चरित्र और चेहरे को बहुत अच्छे से समझ चुकी थी.”(4)
            अनसूया पैरी को पॉलीवुड के चक्कर में पडकर भविष्य को खराब न करने के लिए सलाह देती है.  कितनी लडकियाँ ग्लेमर के कारण बर्बाद हो चुकी है और अभी तक हो रही है. पॉलीवुड की हीरोइन बनने के लिए खूबसूरत होना चाहिए.  शरीर पर कम से कम कपडे पहनना है और अंग्रेजी बोलना है और सेक्स से लेकर खुले विचारोंवाली होना है.  अनसूया के माध्यम से लेखक ने फिल्मी जगत के यथार्थ के बारे में इस प्रकार वर्णन किया है कि  साँप भी कभी डरना छोडता है भला ?  बंदर कितना भी बूढा हो जाए, गुलाटी मारना नहीं छोडता.  नटवरलाल जर्जर बूढा होकर भी लोगों को ठगने से बाज नहीं आता था.  इतनी मासूमियत भरी बातें मत करो पैरी.  लगता है कि तुम सब कुछ जान-समझकर भी नासमझ बनने की कोशिश कर रही हो.  अब कोई क्या कर सकता है ?  इस लाइन का ग्लैमर ही कुछ ऐसा है कि यहाँ पतन भी कुछ लोगों को उत्थान की तरह लगता है.”(5)
            अनसूया पैरी को फिल्म लाइन तथा प्रोड्यूसर्स के बारे में भी बताती है.  लेकिन पैरी पर कुछ भी असर नहीं पडा. वह खामोश होकर कुछ सोच रही थी.  फिर वह कहती है कि रंजित से मिलकर देखना है. इस संदर्भ में उपन्यासकार गिरीश पंकज ने फिल्मी जगत में स्थित नटवर जैसे   निर्मताओं के असलिय़त के बारे में इस प्रकार वर्णन किया है कि भई फिल्मी दुनिया में ज्यादातर जैसे आदमी पाए जाते हैं, कुछ-कुछ वैसा ही है.  आधा सुअर, आधा स्वान.  वैसे तो हर आदमी में अच्छाई-बुराई होती है, लेकिन फिल्मी दुनियावाले कुछ ज्यादा ही मनचले हो जाते हैं क्योंकि चारों तरफ लडकियाँ ही लडकियाँ नजर आती हैं.  कुछ तो आसानी से उपलब्ध भी हो जाती है, लेकिन कुछ लंबा नशवरा करती है.  फिर नटवर जैसे लोगों के पास जाकर ही मरती है.  वैसे नटवर आदमी ठीक ही था.  हर आदमी ठीक होना है शायद.  हालान उसे बिगाड देते हैं.  कमजोर लडकियाँ नटवर को सब कुछ समर्पित करती रहती है.  बचनेवाली बच जाती हैं.  अब यह तुझ पर निर्भर है कि तू भीतर से कितनी स्ट्रांग रह पाती हैं.  यहाँ तो मैं कितनी लडकियों को देख रही हूँ.  सबकी सब.....”(6)
     फिल्मी दुनिया में अच्छा-बुरा आदमी भी होते हैं.  कुछ लडकियाँ नटवर के पास सब कुछ समर्पित करती है.  इज्जतदार लडकियाँ समय रहते अलग हो जाती है.  सेठों के लडके फिल्म बनाते ही इसलिए कि लडकियों को शोषण करें. मैना को पहले नटवर के बारे में कुछ नहीं पता था लेकिन बाद में सब कुछ समझ में आ गयी.  यथा  वाह रे बेटा बैसाखू ! तुम तो बिल्कुल उलटी पलटी पढ़ाय रहे हो हम सबको.  शराब से होनेवाले कमाई को उचित ठहरा रहे हो ?  हद हो गई.  आजकल सरकार भी वह गोरख धंधा कर  रही है.  एक ओर गाँधी जयंती मनाती है, शहीद दिवस पर गाँधी को श्रध्दांजलि अर्पित करती है, तो दूसरी ओर शराब के ठेके देती है.  कभी-कभार जब ठेके में कोई दिक्कत आती है तो खुद ही शराब बेचने लगती है.  वाह रे गाँधी का देश !  अरे अब तू भी उसी काम को प्रोत्साहित कर रहा है.  कहीं तेरी कोई साँठ-गाँठ तो नहीं है भट्ठीवालों से.”(7)  पॉलीवुड की अप्सरा में लेखक गिरीश पंकज ने फिल्मी जगत के यथार्थ जीवन से संबंधित विभिन्न पहलुओं  को आँखों देखा हाल जैसे चित्रण किया है.
संदर्भ :
1.     पॉलीवुड की अप्सरा  -  िरीश पंकज  पृ. सं. 62
2.     पॉलीवुड की अप्सरा  -  िरीश पंकज  पृ. सं. 66
3.     पॉलीवुड की अप्सरा  -  िरीश पंकज  पृ. सं. 71
4.     पॉलीवुड की अप्सरा  -  िरीश पंकज  पृ. सं. 19 – 20
5.     पॉलीवुड की अप्सरा  -  िरीश पंकज  पृ. सं. 22 – 23
6.     पॉलीवुड की अप्सरा  -  िरीश पंकज  पृ. सं. 94

7.     पॉलीवुड की अप्सरा  -  िरीश पंकज  पृ. सं. 129

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