द्रौपदी के चरित्र को नए सिरे से प्रकाश में लाने का प्रथम प्रयास Sahitya-Sethu
Sahitya-Sethu
ISSN : 2348-6163
July - September 2015
द्रौपदी के चरित्र को
नए सिरे से प्रकाश में लाने का प्रथम प्रयास
प्रो.एस.वी.एस.एस.
नारायण राजू
द्रौपदी उपन्यास में
आचार्य लक्ष्मी प्रसाद ने द्रौपदी के पौराणिक मिथक के द्वारा नारी अस्मिता का
प्रश्न उठाते हुए, समकालीन परिप्रेक्ष्य में नारी की वास्तविक स्थिति उद्घाटित
करने का सार्थक प्रयास किया है. इनके उपन्यास में सामाजिक प्रतिबध्दता,
संघर्षधर्मी जिजीविषा, कटुता, विसंगति
समता तथा आर्थिक संकट से उत्पन्न जटिलताओं समस्याओं के मार्मिक चित्रण के साथ ही वर्तमान परिवेश की जबर्दस्त
पकड महाभारतकालीन मिथक के माध्यम से मिलती है.
यथा “पाँच बलवान व श्रेष्ठ पुरुषों की पत्नी होकर भी
तुमने अनेक कष्ट झेले. भरी सभा में एक
क्षुद्र से अपमानित हुई. मेरे पुत्र भी
तुम्हें बचा नहीं पाये.”(1) माँ के आशीर्वाद
से पाँच पतियों में बंटी हुई द्रौपदी की मनः स्थिति वास्तव में किसी नारी की
सहनशीलता की पराकाष्ठा तो है ही. धर्मराज
ने मृदस्वर में पूछा “ क्या तुम ऐसा
सोच रही हो तुम्हें अर्जुन ने जीता लेकिन मुझे भी विवाह करना पडा.” “यह प्रश्न अब
क्यों पूछते हैं ? मेरा जो भी
समझने पर भी अब क्या किया जा सकता .”(2)
भारतीय इतिहास
में अनेक तेजस्वी नारियाँ हुई, जिनमें द्रौपदी तो जगमगाता हुआ तेजपुंज है, जो घने
तम में भी स्वप्रकाश से प्रकाशित है, अनोखी त्रासदी पाँच पतियों की पत्नी. पाँच पतियों की पत्नी जिसने हृदय से एक मात्र
अर्जुन का वरण किया, जिसका मन अजीवन अर्जुन में ही रत रहा किंतु पाँच पतियों का
पंचग्रास कंठ में ऐसा अटका कि द्रौपदी उसे
न उगल सकी न निगल सकी. यही उसकी मूल व्यथा
थी, जिससे जुडे थे अपशब्द, लांछन और विचित्र मर्यादाओं का पालन. मानों अर्जुन वरण को राहु ग्रस्त लिया हो, मानो
द्रौपदी दो नारियों में विभाजित हो गई है, जिसके एक स्वरुप में पति रुप में अर्जुन
और दूसरे रुप में शेष चार पति. मन हृदय से
एक अर्जुन में अनुरक्त होते हुए भी अन्य चार पतियों की सेवा-अनुपालन इस त्रासदी से
उसे माधव भी नहीं बचा पाए. “द्रौपदी चकित हो
गई. धर्मराज को उसे दाँव पर लगाने का क्या
अधिकार था ? यदि
वे समझते कि उन्हें अधिकार हैं , उनके पराजित होने के बाद उसे दाँव पर लगाते अपने आप से प्रश्न किया.”(3) यही नहीं
युधिष्ठर द्वारा दाँव पर द्रौपदी को लगाना तथा भरी सभा में उसे अपमानित एवं चीरहरण
के समय कौरवों की स्त्रियाँ ठठा-ठठाकर हंसना तथा अपने अपमान का प्रतिशोध लेना,
न्याय के प्रति विद्रोह करना आदि आज की द्रौपदी के प्रतीक के रुप में सामने रखा
है. “ मेरे बालों पर हाथ मत रखना.” द्रौपदी गरज
पडी. उसके स्वर की तीव्रता से भीम
निश्चेष्ट हो गया. क्या हुई तेरी
प्रतिज्ञा मेरा अपमान करने वाले उस नीच का
वध करने के बाद ही मेरे पास आओ. उसके रक्त
से मेरे बालों से सने के बाद ही उनकी मुक्ति होगी. मुझे यह साम्राज्य नहीं चाहिए और संपदा नहीं
चाहिए. उन दुर्योंधन और दुश्शासन का वध
चाहिए.” (4)
अर्थात् “द्रौपदी” मात्र मिथकीय
पात्र नहीं अपितु नारी की शाश्वत संवेदना को प्रकट करनेवाली आधुनिक पात्र भी है. “द्रौपदी” हिंदी उपन्यास न केवल महाभारत कथा की द्रौपदी के गरिमामय
चरित्र को नए आयामों से उद्घाटन किया है, बल्कि मनोसामाजिक यथार्थ के धरातल पर
भारतीय नारी की शक्ति संकल्प का यशोगान कर उसके देदीप्यमान व्यक्ति को नए सिरे से
प्रकाश में लाने का प्रथम एवं सफल प्रयास को अविष्कृत किया है.
“द्रौपदी” के माध्यम से
समस्त नारी की समस्याओं एवं अपने निस्सहाय अवस्था को उद्घाटित किया है. यह उस युग में द्रौपदी की जो निस्सहाय अवस्था
तथा अकेलापन का महसूस होना वह आज की नारी की भी है जो अपने शत्रुओं के बीच अपने आप
को दुर्बल महसूस करती है. उपन्यासकार ने
द्रौपदी को मात्र ही नहीं बल्कि समस्त नारी के मनोविश्लेषणात्मक पध्दति का चित्रण
किया है. यथा “हे अग्रज ! जुआरी के भी
पत्नियाँ होती हैं. लेकिन कोई भी जुआरी
अपनी पत्नी को दाँव पर लगाए अभी तक मैंने नहीं देखा. पत्नी चाहे कैसी भी हो कोई भी उसे जुए में दाँव
पर न लगाएंगे. तुमने हमारे राज्य को दाँव
पर लगाया है. यह तो ठीक ही है. लेकिन इन पापात्माओं की दासी के रुप में हमारी
पत्नी को दाँव पर लगा देना जघन्य है.
द्रौपदी हमारी सहधर्मिणी है. उसका
ऐसा अपमानित करना अच्छी बात नहीं है.”(5)
द्रौपदी आदि
स्त्री वर्ग पुरुष सत्तात्मक समाज द्वारा छल बल से सताकर मात्र भोग्या बन डालने का
प्रतीक है. राजनीति ने स्त्री को मनुष्य
कभी नहीं समझकर उसका सदैव चालों की भांति प्रयोग किया. राजनीति की सताई द्रौपदी की यंत्रणा मात्र महाभारत
काल की नहीं आज की नारी की त्रासदी है. महाभारत काल में मात्र युधिष्ठिर ने ही उसे
दाँव पर नहीं लगाया बल्कि आज भी ऐसे अनेक उदाहरण अखबारों में पढने को मिल जाते हैं
जो मात्र गरीबी से तंग आकर या महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए पति अपनी
पत्नी को कुछ रुपयों के लालच में बेच देता है. “इस महाभारत में
अलग-अलग शाश्त्रों के विद्वान आचार्यगण और गुरु तुल्य हैं. ऐसी सभा में एक राजपुत्री को घसीटते लाना क्या
कहाँ तक न्याय है ? यह पापी इतने
कुरुश्रेष्ठों के समक्ष में मुझे बलात् खींच लाकर अपमान करता है एक भी इस दुश्चर्या
का खण्डन क्यों नहीं करते ? आप सब इससे सहमत
हैं क्या ? भरत वंशियों की
धर्मपध्दति यही है क्या ? भीष्म,
द्रोणाचार्य महाधर्मज्ञ विदुर शक्तिहीन हो गए क्या ? राजाओ
बोलिए मेरे प्रश्न का उत्तर
दीजिए.... धर्मानुसार मुझे इन्हीं ने जीता
क्या ? बोलिए...”(6) लेखक ने द्रौपदी को पौराणिक मिथक के माध्यम से
नारी अस्मिता का प्रश्न उठाते हुए समकालीन परिप्रेक्ष्य में नारी की वास्तविक
स्थिति उद्घाटित करने का सार्थक प्रयास किया है.
द्रौपदी के अपमान को खुली आँखों से देखकर भी प्रतिकार नहीं करते. अन्याय को होते देख अपने आँखें मूँद लेते हैं,
आज अकेली नारी की सुरक्षा मात्र देख भ्रम जाल हो गई है. एक स्त्री का अपमान होते देख सब पंगु बनकर और
अन्याय सहने के लिए मजबूर हो जाते हैं.
द्रौपदी आज की आधुनिक संस्करण है.
कौरव सभा के सभी विद्वत जनों के साथ गुरु द्रोणाचार्य भी द्रौपदी के चीर
हरण का विरोध नहीं कर पाते और न ही दण्ड दे पाते हैं. व्यवस्था के आगे झुकाने वाली परिस्थितियाँ उस
युग की भाँति इस युग में भी व्यक्ति को अपनी अंतरात्मा को कुचल देने को बाध्य कर
देती है.
सच्चाई से पलायन
मिथकीय युग से आज तक सुविधाभोगी वृत्ति के
कारण चला आ रहा है. परिवेश बदलने पर भी
परिस्थितियाँ नहीं बदलती. आज की स्त्री को
भी बहुत हद तक उस युग की द्रौपदी की भाँति ही झेलनी पडती है. इसका वर्णन उपन्यासकार आचार्य यार्लगड्डा
लक्ष्मीप्रसाद जी के शब्दों में इस प्रकार है कि
“इस समाज ने पुरुषों और स्त्रियों के लिए
अलग-अलग धर्म सूत्रों का निर्धारण किया.
मुनियों और ब्राह्मणों से
निर्धारित धर्मसूत्रों को ही समाज ने स्वीकारा.
पुरुष चाहे कितनी ही स्त्रियों से शादी कर सकते हैं. लेकिन स्त्रियाँ एक ही के प्रति अपना तन और मन अर्पित कर देना
है.”
“स्त्री को पुरुष द्वारा अपना उपभोग करनेवाले दिन की
प्रतीक्षा करनी है. तब तक उसे अपनी
इच्छाओं को दबाकर रखना है.”
“पुरुष एक स्त्री से संतुष्ट नहीं होता. उसे हर दिन एक नया सुख चाहिए. नए सौंदर्य के अन्वेषण में और नयी गहराईयों के
शोधन में वह आनंद पाता है. एक ही पुष्प की
सुगंध का आघ्राण करने से उसका जी नहीं भरता उसे रंग-बिरंगे फूल चाहिए और तरह तरह
की सुगंध चाहिए.”
“लेकिन स्त्री को एक ही से संतुष्ट होना चाहिए. ऊपर से, उसमें कामेच्छा पैदा होने पर यदि पति
उसके लिए तैयार नहीं होते तो, उसे व्यक्त नहीं करना चाहिए.”(7)
नारी भावना को
अभिव्यक्त करते हुए स्त्री और पुरुष के संबंधों, उसकी भावनाएँ, उसकी इच्छाएँ पुरुष
की तरह समान होती है स्त्रियों में यौन संबंधों के लेकर अनेक प्रश्न उठाए गए
हैं. यौन विषयक नैतिकता के विषय में द्रौपदी की दृष्टि पश्चिमी संस्कृति से आयातीत
आधुनिकता बोध को प्रभावित करती है. द्रौपदी
की मान्यता है कि भूख के समान भोग भी ऐसी शक्ति है जिसे रोका नहीं जा सकता. उनके अनुसार भूख के पश्चात भोगलालसा की
उत्पत्ति मानव की स्वाभाविक वृत्ति का परिचायक है. स्त्री पुरुष संबंधों पर आधारित प्रवृत्ति को
केंद्र में रखने वाले उपन्यासकार द्रौपदी के चरित्र में पश्चिमी चिंतन के प्रभाव
को अनुप्रेरित किया है. इस प्रकार विभिन्न संदर्भों के माध्यम से द्रौपदी के
चरित्र को नितांत नए सिरे से उपन्यासकार पद्मश्री आचार्य यार्लगड्डा लक्ष्मी
प्रसाद जी ने प्रस्तुत किया है.
संदर्भ :
1. द्रौपदी - आचार्य
यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद – पृ. सं. 53
2. द्रौपदी - आचार्य
यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद – पृ. सं. 130-131
3. द्रौपदी - आचार्य
यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद – पृ. सं. 180
4. द्रौपदी - आचार्य
यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद – पृ. सं. 200
5. द्रौपदी - आचार्य
यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद – पृ. सं. 186
6. द्रौपदी - आचार्य
यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद – पृ. सं. 184
7. द्रौपदी - आचार्य
यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद – पृ. सं. 128