लहरों के राजहंस और सुंदरी


 Sahitya - Sethu
ISSN  2348-6163
October-December 2014


लहरों के राजहंस और सुंदरी

प्रो. एस.वी.एस.एस.नारायण राजू


कपिलवस्तु  के राजकुमार नंद की पत्नी सुंदरीमोहन राकेश का दूसरा नाटक लहरों के राजहंस की नायिका है. इस नाटक की कथा वस्तु ऐतिहासिक है. नाटककार मोहन राकेश द्वारा नंद को नाटक का केंद्रीय पात्र बनाना चाहने पर भी सुंदरी का चित्रण अत्यंत सफलता के साथ संपन्न हुआ है.  सुंदरी आलोच्य नाटक का केंद्रीय चरित्र है.  जिस के चारों ओर अन्य सभी पात्र ही नहीं नंद भी घूमता रहता है. सुंदरी सौंदर्यगर्विता, प्रेमगर्विता नारी है. वह अपने सौंदर्य पर बहुत गर्व करती है.  सुंदरी अपने पति नंद को अपने रूपपाश में बाँधना चाहती है  सुंदरी अपने प्रसाधन में नंद को भी नियुक्त करती है. सुंदरी अपने हाव-भाव, मुद्राओं एवं स्निग्ध दृष्टि से नंद को बाँध रखती है. सुंदरी का विश्वास है कि, नारी का आकर्षण पुरुष को परुष बनाता है तो उसका अपकर्षण उसे गौतम बुध्द बना देता है.(1)सुंदरी का अभिजात वर्ग का सर्वांगीण सौंदर्य ही उसके व्यक्तित्व का प्रमुख आकर्षण है.  वह शारीरिक एवं व्यावहारिक सौंदर्य की स्वामिनी है. सुंदरी का जीवन दृष्टिकोण स्पष्टतः उपयोगिता एवं उपभोगितावादी है.  सुंदरी के अनुसार जीवन की सार्थकता तो उपभोग  ही है.  रूपगर्विता सुंदरी अहंपीडित भी है.  चार्वाक दर्शन के  खाओ पीओ और मौज करोवाले प्रवृत्ति मार्गों जीवन सिध्दान्तों का अनुसरण करते हुए सुंदरी को भोगने में विश्वास रखती है.  इस चरित्र के माध्यम से नाटककार ने जीवन के उपभोग व उसकी महत्ता से संबध्द एक व्यापक दर्शन को प्रतिपादित किया है.  स्वायभिमानिनी सुंदरी में नारीयोचित ईर्ष्या एवं शंका भी है.  इसलिए वह यशोधरा को असंपूर्ण पत्नी मानती है. स्वाभिमानिनी सुंदरी बाहरी लोगों का उपस्थित होना आवशयक नहीं समझती. कामोत्सव में अतिथियों की अनुपस्थिति से सुंदरी में निराशा छा जाती है फिर भी स्वाभिमानिनी सुंदरी इसे स्वीकार नहीं करती.  लेकिन स्वाभिमानिनी सुंदरी  का हृदय इस विषय से घायल होता है, आप स्वयं.........उन लोगों के यहाँ होकर आए हैं क्यों ?  आपका स्वयं लोगों के यहाँ जाना.........विशेष रूप से यह कहने के लिए......यह क्या अपमान का विषय नहीं है ?”(2) नंद अतिथियों को आमंत्रित करने उनके घर जाते हैं.   स्वाभिमानिनी सुंदरी को नंद के वहाँ जाना सह्य नहीं है.  नंद अतिथियों को बुलाने के लिए घर जाने पर भी लोग यहाँ नहीं आये तो स्वाभिमानिनी सुंदरी सोचती है कि लोगों को उनका आभार मानना चाहिए और स्वतः ही आ जाना चाहिए.  कामोत्सव के आयोजन में अतिथियों की अनुपस्थिति से सुंदरी का स्वाभिमान चूर्ण-चूर्ण हो जाता है.  उसने उस विपरीत स्थिति की कल्पना तक नहीं की. सुंदरी शंकालु नारी है.  अपने विलासमय जीवन का प्रदर्शन करने वह कामोत्सव का आयोजन करती है.  इसलिए कामोत्सव में अतिथियों की अनुपस्थिति में किसी के हाथ  के होने की शंका करती है.  वह अपनी इस शंका को नंद के सामने व्यक्त करती है.. क्यों  आज तक कभी हुआ है कि कपिलवस्तु  के किसी राजपुरुष ने इस भवन से निमंत्रण पाकर अपने को कृतार्थ न समझा हो? कोई व्यक्ति कभी समय पर आने से रहा हो?”(3)  अतिथियों की अनुपस्थिति की सूचना को पाकर सुंदरी का मन व्यथित होता है और उसके अहं को चोट लगता है.  वह उद्विग्न होकर उन लोगों की निंदा करती है जिन्होंने बुध्द के आगमन की प्रतीक्षा में व्यस्त होने की वजह से सुंदरी द्वारा आयोजित कामोत्सव की उपेक्षा की है.  भोग विलासों में ललक होनेवाली सुंदरी में सहानुभूति की भावना भी है.  सुंदरी एक संपूर्ण नारी है.
सुंदरी केवल देह के (इंद्रीय) स्तर पर जीनेवाले भोगाश्रित नारी है.  उसकी वैचारिक चेतना पुष्ट नहीं होने के कारण उसकी चेतना में विकृत मानसिक प्रतिक्रियाएँ पूर्वाग्रह जुडे हुए  हैं.  सुंदरी स्वकेंद्रित व्यक्तत्ववाली नारी है.  उसका अस्तित्व भौतिक जगत से संबध्द है.  वह ज्ञान के स्तर के अलावा द्वेष के स्तर पर अपना जीवन बिताती है.  सुंदरी में अहं की प्रबलता होने के कारण किसी से भी बुध्द, यशोधरा या प्रजाजनों से नहीं जुडती है.  अप्रामाणिक आस्था से प्रेरित होने के कारण वह अपने पति नंद को व्यक्ति नहीं वस्तु समझती है. सुंदरी सब को अपनी कामना के अस्त्र समझती है.  अपने लक्ष्य साधन में असफल होने से टूट जाने पर भी बाहर से ठोस बनी रहती है.  उसकी संवेदना का मूल कारण तो उसकी अहं चेतना और परिस्थिति-प्रतिकूलता है.  जब उसके अहं पर आघात हो जाता है तो वह टूट जाती है.  जो सुंदरी गौतम बुध्द की साधना को यशोधरा के नारीत्व की आकर्षण शक्ति की विफलता मानती है, वही अपने पति नंद का मुण्डित मस्तक को देखती है, तो उसके नारीत्व और स्वाभिमान को गहरी ठेस पहुँचती है.  इस प्रकार रूपगर्विता सुंदरी के अहं को नाटक के अंत में नाटककार मोहनराकेश ने एक ऊँची चोटी से गहरी खाई में ढकेल दिया है.  अपने सौंदर्य पर अधिक विश्वास रखनेवाली रूपगर्विता नारी के मन में रूप-गर्व की विफलता से उत्पन्न वेदना से ही मोहन राकेश ने नाटक को सार्थक बना लिया.  सुंदरी के व्यक्तित्व में पहले ही वैराग्य के प्रति, बुध्द दर्शन के प्रति विद्रोह की भावना है.  वह अलका से गौतम बुध्द के बारे में कहती है..लोग कहतें हैं कि गौतम बुध्द ने बोध प्राप्त किया है, और कामनाओं को जीता है.  पर मैं कहती हूँ कि कामनाओं की जीता जाए, यह भी क्या मन की एक कामना नहीं हैं और ऐसी कामना किसी के मन में क्यों जागती है?”(4).
सुंदरी का विचार है कि कोई भी व्यक्ति कामनाओं पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता.  गौतम बुध्द विजयी नहीं बन सकता है.  क्योंकि इस प्रकार कामनाओं पर जीत पाना भी एक कामना है.  जो लोग गौतम बुध्द के दर्शन करने नदी तट  पर जाते हैं उनके बारे में सुंदरी का अभिप्राय यह है..बहुत दिन एकतार जीवन बिताकर लोग अपने से ऊब जाते हैं.  तब जहाँ कुछ भी नवीनता दिखाई दे, वे उसी ओर उमड पडते हैं.  यह उत्साह दूधफेन का उबाल हैं.  चार दिन रहेगा, फिर शांत हो जाएगा.”(5)  इस से पता चलता है कि वैराग्य व दर्शन में सुंदरी को रुचि नहीं है.  सुंदरी की अपनी जीवन-दृष्टि हैं.  सुंदरी में बुध्द निवृत्तवादी प्रवृत्ति पर उपहास की भावना है.  सुंदरी का विश्वास है कि आकर्षित करनेवाले में क्षमता होती है तो कोई भी आकर्षित हो सकता है..कोई गौतम बुध्द से कहे कि कभी कमल ताल के पास आकर इन से भी निर्वाण और अमरत्व की बात कहें.”(6) सुंदरी के व्यक्तित्व में भी खण्डित होनेवाले तत्व है.  सुंदरी के व्यक्तित्व में आधुनिक नारी-जीवन के तत्वों का सुंदर समावेश हुआ है.  ऐतिहासिक एवं सामयिक परिवेश से मालूम होता है कि सुंदरी के व्यक्तित्व का खण्डित भाव वास्तव में सार्थक है.  लहरों के राजहंसनाटक में प्रवृत्ति मार्गों और चार्वाक-दर्शन के खाओ पीओ और मौज करो सिध्दांत का अनुसरण करनेवाली सुंदरी जीवन को परिपूर्ण रूप से भोगने में विश्वास रखती है.  जीवन के प्रेय पक्ष का व पार्थिव मूल्यों का समर्थन करनेवाली सुंदरी को जीवन के भोगवादी दृष्टिकोण व विलासिता का प्रतीक मानने के कारण उसके चरित्र में कई असंगतियां दृष्टिगोचर होती है.  इसी कारण से सुंदरी आलोच्य नाटक में सौंदर्य गर्विता, प्रेमगर्विता, शंकालु, विलासोन्मुखी एवं आत्मरति से पूर्ण नारी के रूप में दिखाई पडती है.  इस प्रकार लहरों के राजहंस  नाटक में सुंदरी के चरित्र में नारी सुलभ कोमलता, त्याग, निष्टा एवं बलिदान जैसे महान एवं उदात्त गुणों की अपेक्षा न करके नाटकीय संवेदना व उसके दार्शनिक पक्ष को व्यंजित बनाने में सहायक पात्र के रूप में उसे स्वीकार करना ही अधिक तर्क संगत प्रतीत होता है.  देहेच्छा से परिचालित भोगाश्रित नारी के रूप में सुंदरी के चरित्र के माध्यम से एक  विशिष्ट जीवन-दर्शन को अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया गया है.
संदर्भ
1.मोहन राकेश : लहरों के राजहंस  पृ. सं. 37
2. मोहन राकेश : लहरों के राजहंस  पृ. सं. 52
3. मोहन राकेश : लहरों के राजहंस  पृ. सं. 52
4. मोहन राकेश : लहरों के राजहंस  पृ. सं. 37
5. मोहन राकेश : लहरों के राजहंस  पृ. सं. 38

6. मोहन राकेश : लहरों के राजहंस  पृ. सं. 38

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