कोमल गांधार में चित्रित “गांधारी” के विभिन्न आयाम


शब्द विधान
ISSN : 2394 - 0670
अंतर्राष्ट्रीय त्रैमासिक अनुसंधान पत्रिका
January -March & April - June 2015



कोमल गांधार में चित्रित गांधारी के विभिन्न आयाम

प्रो.एस.वी.एस.एस.नारायण राजू


    
आधुनिक युग में विज्ञान के विकास से प्राप्त वैज्ञानिक चिंतन-पध्दति के कारण अंग्रजों की सभ्यता और संस्कृति के प्रभाव के कारण नारी जीवन में काफी बदलाव आया.  नारी के अपने दृष्टिकोण में, मूल्य चिंतन में भी परिवर्तन आया.  अब वह भी वैयक्तिक स्वतंत्रता की महत्ता को पहचान कर मनोवांचित दिशा में अग्रसर हो रही है.  पर नारी जीवन की यह विडंबना है कि पुरुष सत्तात्मक समाज में पारिवारिक जीवन में भी नहीं वैयक्तिक जीवन में भी शोषण का शिकार हुए बिना अंतर्बाह्य यातनाओं से ग्रस्त हुए बिना अपनी कोई विशेष छवि इतिहास के पत्रों पर अंकित करने में सफल नहीं है, चाहे वह शिक्षित हो या अशिक्षित, उच्च वर्ग की हो या निम्न वर्ग की. नाटककार ड़ॉ. शंकर शेष ने कोमल गांधार नाटक के माध्यम से भारतीय समाज में परंपरा से ग्रस्त हुई नारी जीवन की आंतरिक एवं बाह्य स्थिति से संबंधित विभिन्न पक्षों का चित्रण अत्यंत सफलतापूर्वक किया है.
     गांधारी के चरित्र में हमें स्त्री सुलभ मत्सर तथा स्पर्धा-भाव के भी दर्शन होते हैं.  गांधारी जाने-अनजाने ही कुंती से स्पर्धा करने लगती है.  उसके चरित्र का यह पहलू सर्वथा स्वाभाविक, नितांत सहज और सर्वसामान्य है.  यहाँ उसके चरित्र में चित्रित कथाकथित असाधारण दृढता आदि कुछ भी नहीं है..यथा ..
शकुनि :  .......कुंती सब कुछ खोकर बहुत कुछ जीत गयी.”(1) शकुनि के इस विचार को वह स्वीकार नहीं करते हुए गांधारी इस बात पर विश्वास कराना चाहती है कि कुंती नहीं जीत पाएगी.  यथा ..
गांधारी : नहीं शकुनि,.....कुंती नहीं जीत पाएगी.  मैं कहती हूँ, कुंती नहीं जीत पाएगी.............”(2)  ऐसे सोचने और कहने के पीछे क्या उसका स्पर्धा भाव ही कार्यरत नहीं हैं ?  उसकी मत्सराग्नि में घी डालने का काम धृतराष्ट्र कदम-कदम पर उसकी तुलना कुंती से करके करता रहता था.  केवल धृतराष्ट्र ही नहीं, उसका अपना बेटा भी उसके मत्सर भाव को ठेस पहुँचाता है.. निम्नलिखित उध्दरण से यह स्पष्ट साबित होता है.  यथा...
दुर्योधन :  ,.....आखिर कुंती ने पांडवों को लडना नहीं सिखाया.... कहाँ रह गया अधूरापन हमारे जीवन में.... रह-रहकर कुंती प्रतिमा उभरती है मन में.... ऐसा क्या किया उसने कि बिना बाप के बच्चे जीत गए और हम बेडों के जत्थे की तरह मार दिए गए.”(3)  मत्सर, स्वार्थ या तुलना केवल वहाँ संभव है जहाँ साम्य है.  कुंती और गांधारी के बीच साम्य अनेक बातों को लेकर है.  दोनों ही राजकन्याएँ हैं, कुरुवंश की पुत्रवधुएँ हैं और दोनों के साथ छल हुआ है.  एक का पति अंधा तो दूसरी का रोगी.  ऐसा होते हुए भी दोनों में अंतर अथवा वैषम्य किस धरातल पर है ?  गांधारी के मत्सर भाव और दोनों के बीच तुलना का क्या कारण है ?  स्पष्ट है कि कुंती ने अपने दुःख को जडता और संज्ञा हीनता की भाषा नहीं दी.  उसने उसका उदात्तीकरण किया और निराशा में उसने जीवन की एक सार्थक व्याख्या ढूँढी.  किंतु गांधारी ने अपने दुःख में जीवन की गतिशीलता को नकार दिया.  वह अपने जीवन के प्रति उदासीनता और कडवाहट आजन्म उगलती रही और अनगिनत अनदेखी दीवारों में जकडती गयी.
     महाभारत की गांधारी ने स्वेच्छा से आँखों पर पट्टी बाँधी और जहाँ स्वेच्छा से स्थिति को स्वीकार किया जाता है वहाँ विद्रोह की गुंजइश नहीं होती.  लेकिन कोमल गांधारी के साथ विश्वासघात हुआ है.  यहाँ एक बात को स्पष्ट करना जरुरी है कि यद्यपि आलोच्य नाटक में नाटककार ने मिथकीय चरित्रों तथा घटनाओं को चुना है तथापि उनमें थोडा-सा परिवर्तन किया.  परिवर्तन यह है कि प्रस्तुत नाटक में गांधारी को धृतराष्ट्र के अंधेपन की सूचना न तो उसका पिता देता है न भाई.  इसके विपरीत वह इस बात को अपनी दासी द्वारा जानती है और इसीलिए हम कह सकते हैं कि उसके  साथ विश्वासघात हुआ है.  और यहीं उसमें प्रतिशोध का बीज बोया गया है और इसी में इस मिथकीय चरित्र के आधुनिक बोध की जडे हैं.  आलेच्य नाटक में गांधारी के अस्तित्व को पूर्णरूप से नकार दिया गया है इसलिए वह क्षुब्द है.  वह विद्रोह कर उन समस्त लोगों को यह अनुभव कराना चाहती है कि स्त्री पर अन्याय करने का नैसर्गिक अधिकार उन्हें प्राप्त नहीं है.  इस संदर्भ में डॉ. सुनील कुमार लवटे अपनी पुस्तक नाटककार शंकर शेष  में लिखते हैं कि... ......पत्नी को पति की जानकारी होना आवश्यक नहीं माना जाता था.  तभी तो गांधारी को विवाह की घडी तक इस बात का पता नहीं रहता कि  उसके लिए मनोनीत पति अंधा है.”(4)  लेकिन महाभारत कालीन रीति-रिवाजों को देखते हुए यही ज्ञात होता है कि तब स्त्री को अपना पति स्वयं चुनने का अधिकार था और इसी हेतु स्वयंवर आयोजन हुआ करता था.  तभी तो गांधारी पूछती है कि ..
गांधारी : ....स्वयंवर के मामले में मुझे ही अपवाद बनने की क्या जरुरत पड गई, संजय ?”(5)  इससे यह स्पष्ट होता है कि गांधारी के साथ छल हुआ था.
     प्रस्तुत नाटक में नाटककार ने पतिव्रता धर्म की अंतिम व्याख्या के संबोधन  से सम्मानित महासती गांधारी के महासतीत्व पर आधुनिक दृष्टिकोण से विचार किया है.  गांधारी को महासती घोषित करने में भी सत्ताधारी रीजनीतिज्ञों का एक चाल थी.  अन्यथा वह पत्नी महासती कैसे हुई जो अपने पति के अधूरेपन को पूर्ण करने के बजाय शून्य में मिलाये.  गांधारी के पट्टी बाँधने से धृतराष्ट्र के साथ भी यही हुआ.  उसके फैलाव और प्रगति के सभी रास्ते बंध हो गए और गांधारी का महासतीत्व केवल एक जल कुण्ड का पानी बनकर रह गया जिस पर समय के साथ-साथ अहं और दंभ जम गई और अंत में वह निरुपयोगी सिध्द हुआ. कटु सत्य तो यह है कि उसकी कथा पतिव्रता धर्म और महासतीत्व, सब कुछ खोखला है.  अगर गांधारी सचमुच ही दृढ, असाधारण और महासती होती तो क्या द्रौपदी-वस्त्रापहरण रोक न पाति ? आंखों पर पट्टी बाँध कर ही तो वह महासती बनी थी.  क्या एक बार फिर भरी सभा में पट्टी खोलकर महासतीत्व की शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकती थी क्या ऐसे समय पर भी नहीं जब उसी के समान एक असहाय स्त्री पर अत्याचार हो रहा था ?  वास्तव में महासतीत्व से वह स्वयं शंकित है, क्योकि महासतीत्व उसकी  स्वार्जित शक्ति नहीं अपितु सत्ताधारियों द्वारा लादा गया बोझ है जिसके तले एक स्त्री की हैसियत से उसका अस्तित्व पूर्णतः मिट गया है.  इस प्रकार उसका महासतीत्व उसका जीवन-संघर्ष से पलायन का द्योतक बनकर रह जाता है.
     आधुनिक नारी के विचारों में स्वातंत्र्य भावना के प्रति वे परंपरागत स्त्री-पुरुष संबंधों को भी प्रभावित किया है.  परंपरा से ही स्त्रियों के प्रति किये गये अत्याचारों के विरुध्द आधुनिक नारी के हृदय में विद्रोह भाव अंकुरित हुए है.  आधुनिक ऐतिहासिक और पौराणिक नाटकों में भी युग की प्रवृत्ति को यथासंभव समर्थन देने का प्रयत्न किया है.  नाटककार ने कोमल गांधार के माध्यम से गांधारी के जीवन को शोकांतिका के रुप में प्रस्तुत कर यह बताने का प्रयास किया है कि आड में पाप करना ही हमारी नियति हो गई है.  इस नियति को हम महाभारत काल से ही देख रहे हैं.  गांधारी स्त्री, इसलिए उस पर अन्याय़ करने का उसके पिता, भीष्म और यहाँ तक कि उसका भावी पति धृतराष्ट्र को क्या अधिकार है ?  उसकी सहमति का कोई अर्थ नहीं है क्या ?  क्यों नकार दिया गया उसके अस्तित्व को पूरी तरह ?   सब लोगों ने एक योजना बनाकर उस पर अन्याय नहीं किया क्या ?   स्त्री के स्वाभिमान का कोई अर्थ नहीं रखता क्या अपने परिवार में  ?  इस प्रकार के अनेक प्रश्न उपस्थित कर डॉ. शंकर शेष ने कोमल गांधार लिखकर दुबारा इसे अपनाया था.
     नारी शब्द से अभिप्राय वस्तुतः न +  अरि से  था अर्थात जिसका कोई शत्रु नहीं वह नारी है  लेकिन अजातशत्रु नारी को शोषित करने की परंपरा न जाने कब से आ रही है.  नारी को पुरुष समाज केवल खाली जमीन, उत्पादकता की मशीन से ऊपर कभी नहीं स्वीकार किया.  गांधारी को इन्हीं बातों से विरोध है.  वह नारी पर अन्याय करने की परंपरा को खण्डित करना चाहती है.  इस संदर्भ में एक उदाहरण इस प्रकार है कि....
गांधारी :  अब क्या, ये लोग समझते क्या हैं !  मैं स्त्री हूँ, इसलिए मुझ पर अन्याय करने का इन्हें एक नैसर्गिक अधिकार प्राप्त है ?  सब एक जात के हैं.  मेरा पिता, भीष्म और यहाँ तक कि मेरा भावि पति धृतराष्ट्र भी !
दासी :  पर तुम  कर ही क्या सकती हो....
गांधारी : मैं इस परंपरा को तोड ही सकती हूँ, दासी ! इन्हें अनुभव करा सकती हूँ कि स्त्री पर अन्याय करने का नैसर्गिक अधिकार इन्हें प्राप्त नहीं है.”(6)  जब अपने विरुध्द की गई दुराभिसंधि का उसे पता चलता है तभी वह अपनी असाधारण दृढता के साथ, नारी पर अन्याय करने की सनातन परंपरा को तोडते हुए, विवाह-मण्डप में आँखों पर घृणा आक्रोश से उपजी पट्टी चढा लेने की घोषणा करती है.
     लेकिन दुराभिसंधि से उपजी इस घृणा और तिरस्कार का अर्थ समाज ने ठीक उसके विपरीत लगाया और उसे महासती के पद पर प्रतिष्ठित कर दिया.  इसी तरह के हत्कण्डे अपनाकर भारतीय पुरुष ने आज तक नारी को शोषित करने के लिए कभी उसे महासती का रुप दिया तो कभी सीता का, कभी आदर्शों की दुहाई दी तो कभी भारतीय सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों की, कभी उसकी उपमा तपती, भुनती धरती से दी तो कभी उसे त्याग और श्रध्दा का रूपक बना दिया.  इसलिए शोषण के विरुध्द आज तक उसका प्रतिरोध सार्वजनिक शक्ति बनकर नहीं उभर सका.  वह अपने तिरस्कार को सार्वजनिक भाषा नहीं दे पाई.
     शिक्षा और आर्थिक स्वातंत्र्य ने आज कम से कम महानगरीय नारी को इतना जाग्रत और स्वावलंबी अवश्य बना दिया है कि वह अपना उपर हो रहे अत्याचार का विरोध कर सके.  लेकिन परंपरा से पुरुष समाज स्त्री अस्तित्व को छीन कर अपने अधिकार को स्थापित करने का प्रयत्न किया.    गांधारी अपने आक्रोश को इस प्रकार व्यक्त करती है कि ...
गांधारी : मेरी सहमति कोई अर्थ नहीं है क्या ? क्यों नकार दिया गया मेरे अस्तित्व को पूरी तरह ?  ...... “(7)    नाटक के प्रारंभ में ही गांधारी संजय से यह पूछना चाहती है कि ..
गांधारी :   ....मुझ से मेरा अधिकार क्यों छीना गया, संजय ?”(8)  उसके अधिकारों के प्रति सजगता का प्रमाण है.  अधिकारों के प्रति यह चेतना-भाव नाटक के अंत तक विद्यमान है.  हमारे अवचेतन में बैठी विवश गांधारी क्षण-क्षण हुंकारती जरुर है लेकिन जुगुप्सित राजनीति के ताजमहाली खोखले आवरण का सौंदर्य ओढकर हमारे मन, आत्म संपूर्ण जीवन से छल करती  आई है.  और मानवता के भविष्य से वह बीभत्स राजनीति उसी प्रकार रहेगी जैसे बिल्ली चूहे से खेलती है.  कोमल गांधार ने तो अंततः जीवन का अमृत पी लिया लेकिन हम निश्चिंत रुप से गांधारी के पूर्वार्ध्द जीवन की तरह अभिशप्त है, कोढी व्यवस्था का मशीनी टूटा खण्डित निरर्थक पुर्जा बनने के लिए, क्यों कि हमारा भाग्य लेख अब भगवान नहीं, राजनीतिक समीकरण लिखते हैं.  ठीक अंधायुग के संजय की तरह यह निराशावाद नहीं है, बल्कि जीवन का व्यापक सत्य है जो प्रत्येक व्यक्ति के मन में गांधारी की तरह हुंकार रहा है लेकिन वह उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं होता है.
     स्पष्ट है कि आधुनिक नारी कहीं भी किसी भी क्षण अपने को दुर्बल प्रदर्शित नहीं करती.  आज वह हर प्रकार सबल है और इस दृष्टि से कहती है तो पुरुष को भी उसने पीछे छोड दिया है.  कोमल गांधार नाटक में चित्रित नारी गांधारी भी अपने आपको किसी से कम नहीं समझती.  इसलिए अपने ऊपर रचे गए षडयंत्र को विरोध करके अन्याय और दमन की अवरोधक शक्ति के रुप में उभरी गांधारी प्राचीन परंपरा को तोडती हुई आधुनिक नारी के निकट आ जाती है.  नाटककार डॉ. शंकर शेष ने इस प्रकार गांधारी के विभिन्न आयामों को अत्यंत सफलतापूर्वक चित्रण किया है.
संदर्भ :
1.     कोमल गांधार -  डॉ. शंकर शेष  पृ. सं. 56
2.     कोमल गांधार -  डॉ. शंकर शेष  पृ. सं. 56
3.     कोमल गांधार -  डॉ. शंकर शेष  पृ. सं. 67
4.     नाटककार शंकर शेष  - डॉ. सुनील कुमार लवटे  पृ. सं. 74
5.     कोमल गांधार -  डॉ. शंकर शेष  पृ. सं. 11
6.     कोमल गांधार -  डॉ. शंकर शेष  पृ. सं. 27
7.     कोमल गांधार -  डॉ. शंकर शेष  पृ. सं. 26
8.     कोमल गांधार -  डॉ. शंकर शेष  पृ. सं. 11

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