स्त्रीवाद के नेपथ्य में द्रौपदी के चरित्र का प्रस्तुतीकरण
Yogyatha
ISSN : 2348-4225
April-June 2015
स्त्रीवाद के नेपथ्य में द्रौपदी के चरित्र का प्रस्तुतीकरण
प्रो.
एस.वी.एस.एस. नारायण राजू.
सदा पुरुष की
इच्छाओं के अनुसार चलने से पतिव्रता, साध्वी आदि उपाधियों से स्त्रियाँ अलंकृत हो
जाती है, अगर पुरुष के खिलाफ बोलने से
क्या क्या उपाधियाँ देते हैं सर्वविदित है.
लेखक ने आज बहुचर्चित स्त्रीवाद के नेपथ्य में द्रौपदी के चरित्र को
प्रस्तुत किया है यथा “स्त्रियाँ ही
इतिहास का निर्देश करती हैं इस विषय को विगत की घटनाओं के निरूपित करने के बावजूद
भी महाभारत के इतिहास की प्रधान लेखिका स्वयं वहीं थीं. वह यह नहीं जानती कि काशीराजकन्याओं को...
अंबा, अंबिका और अंबालिका को जब भीष्म स्वयंवर से उठा ले गया तो महाभारत का आरंभ
हुआ. कंस की पत्नियों के लिए जरासंध ने
कृष्ण पर चढाई की. रुक्मणी के लिए श्रीकृष्ण
से शिशुपाल ने शत्रुता मोल ली. यह शत्रुता
जरासंध और शिशुपाल के संहार से तो मिट नहीं पायी.”(1) “स्त्रियों की स्वतंत्रता के बारे में भीष्म से
न्याय की आशा कैसे करें ? द्रौपदी ने मन
में सोचा. अंबा, अंबिका और अंबालिका को
उसकी मर्जीं के अनुसार भीष्म स्वयंवर से उठाकर नहीं ले गया था न. द्रौपदी ने ठंडी सांस ली. फिर से उसमें आशा न मरी.”(2)
द्यूतक्रीडा की
घटना से द्रौपदी के मन में विद्रोह का विस्फोट होने लगता है. पाँच-पाँच पतियों से संस्कृति पत्नी को अंततः
अपनी रक्षा अपने आप करनी पडती है. उसके
दुःख को कोई समझ नहीं पाए स्वयं धृतराष्ट्र व गांधारी जो बेटीवाली होकर भी दूसरे
की बेटी का दर्द नहीं समझें और न ही उसका विद्रोह कर सके. यथा “हे राजन् ! द्रौपदी के अपने
बालों को अपने मुख पर बिखरने का एक कारण है.
जिनके अन्याय के कारण उसकी यह दुर्दशा हुई उनकी पत्नियाँ भी अपने पतियों,
पुत्रों और बन्धुओं के वध होने पर उनके शवों पर गिरकर ऐसे ही बाल बिखेरकर
रोयेंगी. ऐसा द्रौपदी ने अपना संदेश भेजा.”(3) “ मेरे बालों पर हाथ मत रखना.” द्रौपदी गरज
पडी. उसके स्वर की तीव्रता से भीम
निश्चेष्ट हो गया. क्या हुई तेरी
प्रतिज्ञा ? मेरा अपमान करने
वाले उस नीच का वध करने के बाद ही मेरे पास आओ.
उसके रक्त से मेरे बालों से सने के बाद ही उनकी मुक्ति होगी. मुझे यह साम्राज्य नहीं चाहिए और संपदा नहीं
चाहिए. उन दुर्योंधन और दुश्शासन का वध
चाहिए.” (4)
द्रौपदी का
विद्रोह व प्रतिशोध को क्राँति से जोडते हैं, जो जल्दी नहीं बुझेगी. यह द्रौपदी ही नहीं संपूर्ण स्त्री का विद्रोह
इससे झलकता है. अंत में सहनशक्ति समाप्त
होने पर एक स्त्री के मन में विद्रोह या क्रांति की चेतना जागृत हो जाती है. जिससे उसके मुख में आक्रोश फूटता है. और प्रतिशोध लेने का दृढ संकल्प करती है. यह आज की स्त्री का आवाज जो अपने ऊपर हुए अपमान
का बदला लेने के लिए संकल्प करती देखी जा सकती है. यह आग द्रौपदी के माध्यम से पूरे विश्व में
प्रेरणा स्त्रोत है. अपनी रक्षा के लिए
निडर रहना और अपने ऊपर प्रतिशोध होने पर आवाज उठाना, द्रौपदी के द्वारा यह सफल हुआ
है, और हमें सोचने पर मजबूर कर देती है. एक
स्त्री की वेदना, कैसे उस स्थिति एक स्त्री की भावना को कैसे ठेस पहूँचती है. खुद द्रौपदी कहती है कि –“जैसे सीता को रावण की तरह कोई उसे उठा ले जाए तो ? रावण
की बात क्यों ? मौका मिले तो उसे उठा ले जाने कितने ही राजा
तैयार हैं. पाँच पतियों से गृहस्थी करने
के और पाँच पुत्रों को जन्म देने के बावजूद भी उसका लावण्य लेश मात्र भी मुरझा
नहीं गया. इससे पहले वह अपने सौंदर्य को
वर सा मानती थी. अब ही शाप सा लग रहा
है. यदि कोई उसे उठा ले जाए तो रावण समान
उसका उपभोग किए बिना देखभाल करनेवाले उन्नत व्यक्तित्ववाले अब कोई नहीं है. समय बदल गया.
सभा में उसका अपमान होने पर भी उसके पतियों ने कुछ नहीं किया.”(5)
द्रौपदी नारीत्व का एक आह्वान है. कर्म, ज्ञान, भक्ति और शक्ति का मूर्त रूप
है. विश्व में द्रौपदी की जैसी अनेक
द्रौपदी आज भी यातना लांछन, मानसिक संकट एवं संघर्ष का सामना कर रही है. और अपने द्वारा अपमान होती आ रही है अपने ही
परिवार में, अपने ही सगे संबंधियों से, अपने पतियों से जो अपनी स्त्रियों पर होते
अपमान को देख कर पांडवों की भांति निस्सहाय छुप बैठता है. पुरुषों की मजबूरी के कारण आज भी बलि हो जाने
के लिए स्त्रियाँ मजबूर हो जाती हैं. यहीं
नहीं अपने ही वंश की कुलवधु अनेक ज्ञानी, गुणी, मानी पुरुषों के सामने विवस्त्र
होकर और सब चुपचाप निर्वसना की अंग शोभा देखते बैठते रहते हैं. इससे बढकर कलंक भरा अध्याय विश्व के लिए लिखित
अलिखित इतिहास हमें देखने को मिलेगा.
नारी धर्म पर
ऐसा बीभत्स अत्याचार कभी इतिहास से मिटेगा नहीं.
कुरुवंश का यह स्वेच्छाचार, अन्याय, अत्याचार सारी पुरुष जाति को अनंत काल
तक हीन बना देगा. भरत वंश की सती स्त्री
तथा सारी पृथ्वी की नारी जाति के अपमानित कर देगा. इस अपमान की कोई क्षमा नहीं, इस
पाप का कोई प्रायश्चित भी नहीं. यथा “पहले पहल, पाँचों
से विवाह करना ही उसने गलत माना. लेकिन जब
धर्मज्ञों ने ही इसे गलत नहीं माना तथा उसका परिवार ही राजी हो गया तो उसने प्रश्न
किया कि मुझे क्यों इसे गलत मानना चाहिए ? स्त्री सुख भोगों के लिए गलत काम करने को डरती है लेकिन जब
समाज ही अनुमोदन दें तो वह गलत क्यों होता है ? ‘स्त्री को पुरुष द्वारा अपना उपभोग करनेवाले दिन की
प्रतीक्षा करना है. तब तक उसे अपनी
इच्छाओं को दबाकर रखना है.’ लेकिन स्त्री को एक ही से होना चाहिए. ऊपर से, उसमें कामेच्छा पैदा होने पर, यदि पति
उसके लिए तैयार नहीं होते तो, उसे व्यक्त नहीं करना चाहिए.” (6) द्रौपदी कहना चाहती है कि किसी नारी को बहुपापी
वरण करने में जो लज्जा, ग्लानी, संकोच हो तो उसे नारीत्व क्षीण हो जाता है, परंतु
एक पुरुष तो कितनी स्त्रियों की भी ग्रहण कर सकता है, पर एक विधान किसके बनाया हुआ
है ? जो पुरुष-स्त्री के बीच पाप-पुण्य में ऐसा
अंतर करते हैं ? धनी, दरिद्र, उच्च, नीच, ब्राह्मण, चंडाल,
स्त्री, पुरुष आदि का अंतर कर समाज में जितने नीति-नियम बने हैं, पाप-पुण्य की
विचार कर जो घोर वैषम्य खडा किया गया है उसके विरुध्द आजीवन युध्द करना होगा. वास्तव में पाँच पति वरण करना समग्र नारी लोक
के लिए एक आह्वान था. एक साथ अनेक पुरुषों
को वरण करने के बावजूद भी किसी नारी के चरित्र की शुध्दता रह सकती है, मानो यह
प्रमाण करने का एक स्वर्ण अवसर है.
यहाँ द्रौपदी के
माध्यम से लेखक ने प्रश्न उठाया है कि शास्त्रकारों ने क्या सिर्फ नारी के लिए ही “पाप” की सूची बनाई है ? उसकी
अपनी भावनाएँ, इच्छाएँ, कामासक्ति होती है पुरुषों के समान. स्त्रियों को ही सदा क्यों निंदा सहना पडती है,
क्यों उसे अपनी कामेच्छा पैदा होने पर उसे व्यक्त करने का मौका नहीं मिलता. इस प्रकार साहित्य
अकादमी पुरस्कार विजेता उपन्यासकार पद्मश्री आचार्य यार्लगड्डा लक्ष्मीप्रसाद जी
ने द्रौपदी के चरित्र को आधुनिक स्त्रीवाद के नेपथ्य में अत्यंत सफलतापूर्वक
प्रस्तुत किया है.
संदर्भ :
1.
द्रौपदी - आचार्य यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद –
पृ. सं. 174
2.
द्रौपदी - आचार्य यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद –
पृ. सं. 185
3.
द्रौपदी - आचार्य यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद –
पृ. सं. 207
4.
द्रौपदी - आचार्य यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद –
पृ. सं. 200
5.
द्रौपदी - आचार्य यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद –
पृ. सं. 212
6.
द्रौपदी - आचार्य यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद –
पृ. सं. 128