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आत्मविश्वास एवं मानव-स्वाभिमान के संदर्भ में डॉ.धर्मवीर भारती के काव्य

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शब्द विधान   ISSN : 2394 - 0670  अंतर्राष् ट ्रीय त्रेमासिक अनुसंधान पत्रिक ा July - Sept 2014     आत्मविश्वास एवं मानव-स्वाभिमान के संदर्भ में डॉ.धर्मवीर भारती के काव्य प्रो. एस.वी.एस.एस.नारायण राजू आत्मविश्वास और मानव-स्वाभिमान भी अन्य मानव-मूल्यों की तरह नए मानव-मूल्य हैं.  जिन्हें डॉ.धर्मवीर भारती ने अपनी कृतियों में सफलतापूर्वक प्रतिष्ठित किया है. बीसवीं शताब्दी के मानव में उपजा आत्मविश्वास को भी मानव-मूल्य के रूप में स्वीकार करना अत्यंत समीचीन प्रतीत होता है.  नई कविता के कवि अपनी अनुभूतियों को जितनी ईमानदारी के साथ अभिव्यक्त करते हैं वह उनके आत्मविश्वास का ही परिणाम है.  इस संबंध में लक्ष्मीकांत वर्मा का यह कथन द्रष्टव्य है --   “ आदमी आज खीजता है, पकता है, टूटता है, बनता है और इन परिस्थितियों में वह अपने और अपने से बाहर विषाक्त वातावरण से जूझता है.  इस जूझने में, इस टूटने में, इस खीजने में और पकने की प्रक्रिया में निश्चय ही उसका आत्मविश्वास विकसित होता है. ”(1) इस से यह स्पष्ट हो जाता है कि नए कवि के लिए विश्व के आदर्श की भुजाएँ भी छोटी हैं इसलिए वह नए आद