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फिर जनम लेंगे हम, नसीमा

                     फिर जनम लेंगे हम , नसीमा दक्षिण समाचार , 23 दिसंबर 1998                                          तेलुगु मूल : पाटिबंडला रजनी                           हिंदी अनुवाद : प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू मानवहार बनी थीं हम डालकर गलबहियाँ एक लय से एक कदम से मनुष्य और मनुष्य के हाथों में हाथ आने पर , मन से मन मिलाकर मिट्टी के सने परिमल से खुश हुई थीं। अचरच हुआ था जानकर हमारे जन्म से पूर्व औलाद की आस में जाने कितनी बार तुम्हारी माँ ने मंदिर के पीपल पर झूले बाँधे और पीर के जलूस में आँचल पसारा था मेरी माँ ने लेकिन नहीं किया था कुतर्क। मेरी खातिर तुम्हारे मजहब का मतलब बीमारी के वक्त बाँधे गये मस्जिद के पवित्र ताबीज तुम्हारी खातिर मेरे धर्म का अर्थ मेरे साथ छोडी हुई झिलमिल झिलमिल फुलझड़ियाँ। याद है नसीमा कितनी पसंद है मुझे तुम्हारी माँग में चमकती हुई चमकी और कितने पसंद है तुम्हें मेरी रंग-बिरंगी बिंदी तुम्हारी दो बानी-बेली की तरह नारियल और शक्कर मिला के खाते हुए मीलों दूर चले जाते

जय जवान

जय जवान मिलाप , 26 जुलाई 1999                                      प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू अब आ गया समय , एकत्रित होने का , सब भेद-भाव भूलकर , रहना है हमारे जवानों का साथ। सबक सिखाना है , पापी पाकिस्तान को। बोलते हैं एक। करते हैं एक। मारते हैं हमारे भाइयों को अमानुषिक ढंग से। अब समय आ गया , कर देना है दो भाग , पापी ‘ पाक ’ को। इस समस्या का यही शाश्वत समाधान। खेद की बात यह है कि यहाँ कुछ स्वार्थी राजनीतिज्ञ अपनी भलाई के लिए पहले किया था देश का नाश अपने व्यक्तिगत नाम के लिए , उनके वारिस भी अब तैयार हैं , उसी रास्ते पर। अब समय आ गया। भारतीय जनता में , एकता भाव लाने का। पहले पहल जीतना है युध्द में। इसके लिए साथ हैं सौ करोड़ भारतवासी इसमें शामिल नहीं सिर्फ देशी नामी विदेशी , कोई परवाह नहीं , सारा हिंदुस्तान अपने जवानों के पीछे हैं। हे जवान तुम भारती माँ के सुपुत्र हो। हम सब साथ हैं। अब समय आ गया। तुम वहाँ रक्षा करो। हम सब तैयार हैं यहाँ एकत्रित होकर रक्षा करेंगे ‘ भारतीयता ’ की।

हे माँ ! रक्षा करो

                        हे माँ ! रक्षा करो  मिलाप ,  हैदराबाद, 28 दिसंबर, 1998 प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू               अबोध नवयुवतियाँ   सुंदर सपनों से भव्य आशाओं से विलासिता की उम्मीद से शीश महलों के चित्र से   आती है गाँव से शुरु होता है जीवन यहाँ से एक-दो तो , पहुँचती है। हजारों तो फंसती हैं दलालों के हाथ में बंदी बनती हैं शरीर बाजार में चाह है जीवन की लाखों में अलग पहचान लेकिन बन गयी लाखों में एक   बाहर से सदा बहार अंदर बनती है पतझड़। चल रहा है तन का सौदा तन तो अपना , धन पराया , बन रही है दिन-ब-दिन गलित अंग वेश्या पर दलाल बन रहा है दरिद्र से करोड़पति। नहीं मिलती इन्हें सुरक्षा , न है कोई व्यवस्था मन में ही चिल्लाती है हे माँ ! रक्षा करो कौन बचायेगा इन्हें समाज के इस बंदी गृह से ?

गरीबी नमो नमः

                           गरीबी नमो नमः स्वतंत्र वार्ता , दिसंबर 27 , 1998            प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू   हे गरीबी , नमो नमः हम हैं भारतवासी यह था एक दिन रत्न गर्भ आज अपने पेट भरने के लिए करते हैं लोग क्या नहीं सौ रुपयों के लिए अमानुषिक हत्या , आखिर बेच रहे हैं संतान को भी। अधिकांश लोग करते हैं पूजा-पाठ देते हैं भगवान को सब कुछ मांगते हैं एक संतान- घूम रहे हैं अस्पतालों के पीछे , दे रहें हैं लाखों-लाख औलाद की कामना से। इसी देश में और एक पार्श्व ,   अपनी गरीबी के कारण बेचने आया था एक   अपनी ही आत्मा के टुकड़े को। इसका कारण क्या है ? देश में अकाल एक ओर , दूसरी ओर बाढ़ , बढ़ रही है स्वार्थ लिप्सा , दलालों का राज्य आ गया , किसान बन गया मजदूर , अब मजदूर ने भी भिखारी का रुप धारण किया परिणाम है इसी का , अपनी ही संतान को बेच रहे हैं , ‘ है-टेक ’ महानगर के बाजार में। मैं करता हूँ प्रणाम गरीबी को , गरीबी नमो नमः