हे माँ ! रक्षा करो
हे माँ ! रक्षा करो
मिलाप, हैदराबाद, 28 दिसंबर, 1998
प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू
अबोध नवयुवतियाँ
सुंदर सपनों से
भव्य आशाओं से
विलासिता की उम्मीद से
शीश महलों के चित्र से
आती है गाँव से
शुरु होता है जीवन यहाँ से
एक-दो तो, पहुँचती है।
हजारों तो फंसती हैं
दलालों के हाथ में
बंदी बनती हैं शरीर बाजार में
चाह है जीवन की
लाखों में अलग पहचान
लेकिन बन गयी
लाखों में एक
बाहर से सदा बहार
अंदर बनती है पतझड़।
चल रहा है तन का सौदा
तन तो अपना, धन पराया,
बन रही है दिन-ब-दिन
गलित अंग वेश्या
पर दलाल बन रहा है
दरिद्र से करोड़पति।
नहीं मिलती इन्हें सुरक्षा,
न है कोई व्यवस्था
मन में ही चिल्लाती है
हे माँ! रक्षा करो
कौन बचायेगा इन्हें
समाज के इस बंदी गृह से?