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दलित आक्रोश की चिंगारियाँ : ‘स्फुलिंग’

                 दलित आक्रोश की चिंगारियाँ : ‘ स्फुलिंग ’ पुस्तक समीक्षा      गोलकोण्डा दर्पण,साहित्यिक मासिक पत्रिका                               डॉ.एस.वी.एस.एस नारायण राजू नवंबर, 2000        आंध्रप्रदेश में विगत पंद्रह सालों से ‘ दलितवाद ’ नाम से एक अलग कविता आंदोलन चल रहा है। विशेषकर समाज के पिछड़े वर्गों के लोगों की प्रतिक्रिया स्वरुप यह वाद शुरु हुआ। इस कविता में आक्रोश ही ज्यादा से ज्यादा दिखता है। इस प्रकार की कविताओं का अनुवाद करना, तलवार की धार पर सफर करने जैसा कठिन एवं श्रमसाध्य कार्य है। इस प्रकार का कार्य अत्यंत अनुभवी एवं सफल अनुवादक ही कर सकता है। कहीं-कहीं मूल से भी ज्यादा अनुवाद मुझको मिला है। प्रस्तुत तेलुगु दलित काव्य “ स्फुलिंग ” में 41 कवियों की 53 कविताएँ रखी गयी हैं। इन सभी कविताओं में समकालीन भारत में पिछड़ी जातियों की दुर्दशा की प्रतिक्रिया ही व्यक्त की गयी है। आरंभ की कविता की इन पंक्तियों से दलितों की निर्मम प्रतिक्रिया हम देख सकते हैं – “ मुझे तूने हमेशा गाँव के बाहर रखा ठीक है, एक तरह से मेरा जंगल में रहना अच्छा ही हुआ