गाँधीजी के एकादश व्रत



गाँधीजी के एकादश व्रत


                                  डॉ.एस.वी.एस.एस.नारायम राजू



स्रवंति, अक्तूबर 2004




    एकादश व्रत का नाम लेते ही हमारे भारतीय परंपरा के अनुसार एकादश के दिन उपवास करके पूजा, भजन आदि करने का व्रत हमारे मन में याद आता है। लेकिन गाँधीजी का एकादश व्रत इससे नितांत भिन्न है। गाँधीजी ने सन् 1915 में गुजरात के अहमदाबाद के पास अपने प्रयोगों को चलाने के लिए साबरमती आश्रम की स्थापना की। वहाँ रहने वाले आश्रमवासियों के मार्गदर्शन के लिए उन्होंने कुछ नियम बनाये। ये ग्यारह नियम ही बाद में एकादश व्रत के नाम से विख्यात हुए। बनारस के हिंदी विश्वविद्यालय में गाँधीजी द्वारा दिए गए भाषण से आकर्षित होकर श्री विनोबा भावे गाँधीजी के पास आए और साबरमती आश्रम में बस गए। उन्होंने आश्रम के सूचना पट्ट पर लिखे गए ग्यारह नियमों को पढ़ा और बार-बार उन्हें याद करने की सुविधा के लिए मराठी में उनका एक श्लोक बनाया जिसका हिंदी अनुवाद इस प्रकार है –
                  अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य असंग्रह
                    शरीरश्रम अस्वाद सर्वत्र भयवर्जन
                  सर्वधर्म समभाव स्वदेशी स्पर्श भावना
                   विनम्र व्रत निष्ठा से एकादश सेव्य।
   समय-समय पर गाँधीजी अपने आश्रम के इन एकादश व्रतों के संबंध में प्रकाश डालते रहे और अपने प्रवचनों के संबंध में इनकी व्याख्या करते रहे। फिर भी जब नमक सत्याग्रह (12.10.1930) के बाद गाँधीजी को यरवाड़ा जेल में बँदी बना दिया, अपने आश्रमवासियों के मार्गदर्शन के लिए हर मंगलवार के दिन एक-एक व्रत के बारे में व्याख्या करते हुए पत्र लिखे। बाद में इनका संकलन मंगल प्रभात नाम से प्रकाशित हुआ।
   अहिंसा : गाँधीजी ने अहिंसा को अपने एकादश व्रतों में प्रथम स्थान दिया। इसका कारण यह है कि वे अहिंसा को अपने सभी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक कार्यों में प्रधान साधन मानते थे। गाँधीजी शुध्द साधन द्वारा ही शुध्द साध्य को प्राप्त करने के विषय पर अटल विश्वास रखते थे। इसीलिए वे साधन शुध्द पर जोर देते थे। वे यहाँ तक कहते थे कि अगर अहिंसा के द्वारा स्वराज्य नहीं मिलेगा तो हिंसा द्वारा प्राप्त स्वराज्य नहीं चाहिए। वे भारत को युग-युगों से अहिंसा की तपोभूमि मानते थे। गाँधीजी की दृष्टि में अहिंसा का अर्थ किसी को मारना, पीटना या हत्या करना छोडना नहीं है। उनकी अहिंसा केवल नकरात्मक नहीं बल्कि सकारात्मक है। हर प्राणी पर प्रेम दिखाना, सबकी सेवा करना और आवश्यकता पड़ने पर दूसरों के हित के लिए अपना स्वार्थ का परित्याग करना भी उनकी अहिंसा के अंतर्गत है। उनकी अहिंसा कायरों की नहीं बल्कि बहादुरों की है। शस्त्र से दूसरों का प्राण हर कर अपने प्राण बचाने की चेष्टा करनेवाला कायर होता है। अहिंसा वीर अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साहसपूर्वक अपने प्राणों की बाजी लगाता है। वह कभी भी पीठ नहीं दिखाता बल्कि छाती पर शस्त्र का प्रहार झेलता है गाँधीजी ने दक्षिण आफ्रिका और भारत में भी निरंकुश शासन के विरोध में अहिंसात्मक प्रतिशोध को ही शस्त्र के रुप में अपनाया। गाँधीजी के एकादश व्रतों में अहिंसा का सर्वप्रथम स्थान है मन, वचन कर्म से अहिंसा का आचरण करना उनका ध्येय था।
  सत्य : सत्यमेव जयते यह हमारे स्वतंत्र भारत की एक आदर्श उक्ति है। सत्य का अर्थ उनकी दृष्टि में यथार्थ कहना ही नहीं था, सत्य को वे पूर्ण ब्रह्म का स्वरुप मानते थे और पूर्ण सत्य की इस मानव जन्म में प्राप्त करना असंभव भी मानते थे। प्रारंभ में वे ईश्वर को सत्य मानते थे। बाद में सत्य को ही ईश्वर मानने लगे। उन्होंने अपने आंदोलन की प्रक्रिया को नाम देने के संबंध में काफी सोच-विचार किया, अंत में सत्याग्रह रखा। इसका अर्थ है सत्य का आचरण करने के लिए आग्रह’, चाहें उसके लिए तन-मन-धन सर्वस्व का बलिदान क्यों? करना पड़े। सत्य के आचरण पर दृढ़ में विश्वास न रखनेवाला व्यक्ति उनकी दृष्टि में सच्चा सत्याग्रही नहीं बन सकता। अहिंसा के साधन से सत्य के साध्य तक वे पहुँचना चाहते थे। सत्य और अहिंसा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इस प्रकार सत्य और अहिंसा को मिलाकर उन्होंने अपना सारा आंदोलन और सारे कार्यक्रम चलाकर दुनिया के सामने एक अनूठा उदाहरण पेश किया।
  अस्तेय : इसका अर्थ है चोरी नहीं करना। दूसरों की वस्तु को उनके अनुमति के बिना लेना भी गाँधीजी चोरी मानते थे। इतना ही नहीं अपनी मुख्य आवश्यकता से अधिक वस्तुओं को लेना भी चोरी मानते थे। समुचित परिश्रम किए बिना अधिक वेतन लेना भी वे चोरी मानते थे।
 ब्रह्मचर्य :  साधारण रुप से अविवाहित रहना ब्रह्मचर्य कहलाता है। हमारी पुरानी व्यवस्था के अनुसार विद्यार्थी आश्रम को ब्रह्मचर्य आश्रम कहा जाता था। किंतु गाँधीजी गृहस्थ के लिए भी इन्द्रिय निग्रह की आवश्यकता मानते थे। समाज के लिए वे ब्रहमचर्य जरुरी समझते थे। यदि कोई दांपत्य जीवन में लगे रहने पर अपने परिवार के पालन-पोषण की चिंता में ही तत्पर हैं तो वह समाज या देश की सेवा क्या कर सकता है। केवल शरीर से ही नहीं मन-वचन से भी इस ब्रह्मचर्य का पालन होना चाहिए, नहीं तो वह मिथ्याचार्य हो जाता है। इसीलिए गाँधीजी इस विषय में सदा सतर्क रहते थे और दूसरों को भी सचेत करते थे। राम नाम का स्मरण, निरंतर सेवा कार्य में रहना, रात को सोने तक शरीर श्रम करना, कभी एकांत में न रहना, स्वाद के आकर्षण में न पड़ना, वे ब्रह्मचर्य व्रत की साधना के लिए आवश्यक मानते थे।
 असंग्रह : इसका अर्थ है आवश्यकता से अधिक वस्तुओं या रुपयों, पैसों को संग्रह न करना। यदि कोई आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का उपयोग करने से वह दूसरों का अधिकार छीनने का दोषी बनता है। संग्रह के प्रलोभन से ही सामाजिक अपराध या हिंसाकाण्ड होते हैं। किसी के संग्रह को देखकर ही दूसरों को चोरी की प्रेरणा मिलती है। जब समाज के सब लोग स्वेच्छा-पूर्वक असंग्रह व्रत का आचरण करने से देश में गरीबी समस्या अपने आप हल हो जाती है।
   शरीरश्रम : हमारे देश और कई दूसरे देशों में भी जीवियों का आदर नहीं होता है। शरीर श्रम करना हीन कार्य माना जाता है। सब लोग शरीरश्रम से बचने और केवल सफेद पोश, काम-धंधे या नौकरियाँ करना ही पसंद करते हैं। हमारे देश की शिक्षा प्रणाली में शरीरश्रम का कोई स्थान ही नहीं हैं। इसके फलस्वरुप श्रमजीवी और बुध्दजीवी के नाम पर दो वर्गों में बँट गया। अतः इस भेद को मिटाने के लिए श्रम, प्रतिष्टा बढ़ाने के लिए उन्होंने शरीर श्रम को अपने एकादश व्रत में स्थान दिया। हर एक नागरिक काम करने से समाज में उत्पादक शक्ति बढ़ती है और बेरोजगारी भी समाप्त होती है। उन्होंने चरखे को इस शरीरश्रम का प्रतीक माना है।
अस्वाद :  स्वाद के प्रलोभन से हम आवश्यकता से अधिक मात्रा में भोजन करते हैं और बीमारियों के शिकार बनते हैं। इसीलिए स्वास्थ्य की दृष्टि से आहार संयम की आवश्यकता है। चित्तवृत्तियों को रोकने के लिए हमारे पूर्वजों ने सात्विक आहार लेने का उपदेश दिया। ज्यादा मिर्च-मसालेदार चीजों को खाने से एक ओर स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है तो दूसरी ओर मनोवृत्तियों की उत्तेजना होती है इसीलिए गाँधीजी ने ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए इंद्रियों पर विजय पाना अनिवार्य बताया, प्राकृतिक तथा बिना मिर्च-मसालों का भोजन खाना, स्वादाकर्षण से वशीभूत न होना ही इस अस्वाद व्रत का आशय है।
सर्वत्र भयवर्जन :  इसका अर्थ है निर्भयता। सत्य बोलना और सदा सत्य का आचरण करने और असत्य का विरेध करने के लिए निर्भयता बहुत अनिवार्य है। गाँधीजी ने अत्याचारी और निरंकुश विदेशी शासन के प्रति विरोध करने के लिए सत्याग्राहकों को निर्भयता का पाठ पढ़ाया। घर में लोक-लाज के मारे पड़े रहनेवाली स्त्रियों को भी उन्होंने निर्भयता का पाठ सिखाकर सत्याग्रह संग्राम में वीर नारियों के रुप में उन्हें प्रोत्साहित किया। निर्भयता को समाज विरोधी कामों के लिए दुरुपयोग न करके लोक-हित के लिए सदुपयोग करना चाहिए।
सर्वधर्म समभाव :  सभी धर्म ईश्वर की प्राप्ति के लिए साधन मात्र है। इनमें कोई बड़ा या छोटा नहीं है। धार्मिक असहिष्णुता या सांप्रदायिकता के कारण हमारे देश में और दूसरे देशों में भी अनेक प्रकार के झगड़े होते रहते हैं। गाँधीजी के अनुसार सबका ईश्वर एक है। सर्वमानव सौभ्रातृत्व की वृध्दि करने के लिए सर्वधर्म समभाव की जरुरत है। गाँधीजी आश्रम में प्रार्थना करते समय सभी धर्मों के मुख्य ग्रंथों से कुछ अंशों को पढ़ाया करते थे। उनके आश्रम में सभी धर्मों के लोगों को समान स्थान मिलता था। हमारे देश में सांप्रदायिक सदभावना के लिए सर्वधर्म समभाव का व्रत पालन करना अत्यंत आवश्यक है।
  स्वदेशी भावना :  अपने देश में बनी वस्तुओं के प्रति आदर रखना, अपने ग्रामीण उद्योग धंधों को प्रोत्साहित करके गरीबी और बेरोजगारी की मिटाना ही इसका आशय है। इसीलिए गाँधीजी ने विदेशी वस्तु बहिष्कार आंदोलन शुरु किया। किसी भी देश की सभ्यता, संस्कृति, साहित्य, भाषा इत्यादि के प्रति श्रध्दा बढ़ाने और संसार के देशों में प्रतिष्ठापूर्वक अपनी अस्मिता को सुस्थिर रखने के लिए स्वदेशी भावना अत्यंत आवश्यक है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि विदेशों से द्वेष करना या उनसे पारस्परिक संबंध न रखना।
  स्पर्श भावना :  इस देश  में सदियों से जड़े जमाकर बैठी छुआछूत को अंत करने के लिए गाँधीजी ने स्पर्श भावना को अपने एकादश व्रतों में जोड़ा। मनुष्य मात्र की समानता को स्वीकार करना, किसी को भी आवश्यकता पड़ने पर छूने से इनकार न करना इसका मतलब है। गाँधीजी ने अपने आश्रम में अनेक अछूत परिवारों को आदारपूर्वक स्थान दिया। इसके लिए अनेक कष्टों को झेलने पर भी गाँधीजी कभी भी विचलित नहीं थे। देश भर में भ्रमण करके उन्होंने छुआछूत का खण्डन किया।
   इन एकादश व्रतों को नम्रतापूर्वक आचरण में लाने के लिए गाँधीजी कहते थे। कुछ लोगो ने नम्रता को भी व्रत बनाने की सलाह दी। लेकिन गाँधीजी ने कहा कि नम्रता को व्रत के रुप में नहीं रख सकते हैं क्योंकि इन एकादश व्रतों के शुध्द आचरण के फलस्वरुप सहज ही नम्रता प्रकट होती है। गाँधीजी के एकादश व्रत केवल भारतवासियों के लिए ही नहीं बल्कि विश्व-मानव हित के लिए भी शत-प्रतिशत अनुसरणीय है।     


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