“अंधायुग” में चित्रित मानव विवेक


                 


 अंधायुग में चित्रित मानव विवेक 
                             डॉ. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू    
स्रवंति,
द्विभाषा मासिक पत्रिका,
अक्तूबर – 2003.





     मानव-विवेक मानव मूल्यों की श्रृंखला में महत्वपूर्ण कडी है। विवेक अंतरात्मा के सहायक तत्वों में संभवतः सबसे प्रमुख, सबसे विश्वसनीय है। मनुष्य को स्वतंत्र, सचेत, दायित्व-युक्त माना जाए जो अपनी नियती अपने इतिहास का निर्माता हो सकता है। इसलिए उस के विवेक और मनोबल को सर्वोपरि और अपराजेय माना जाय।”(1) युध्दों का निर्णय या अच्छे-बुरे का निर्णय तर्क से नहीं, मानव-विवेक से ही संभव है। विवेक ही नीर-क्षीर करने का सामर्थ्य प्रदान करता है तथा विवेक ही व्यक्ति के मनोभावों की उदात्त रुप प्रदान करता है। नयी कविता के प्रमुख कवि डॉ. धर्मवीर भारती ने भी मानव-विवेक को सर्वोपरि और अपराजेय माना है। वे युध्दोत्तर कालीन जीवन की विसंगतियों का चित्रण करते हुए मानव-विशिष्टता की रक्षा एवं मानव-भविष्य की सुरक्षा के लिए मानव-विवेक और मनोबल को महत्वपूर्ण माना है।
    डॉ. धर्मवीर भारती मर्यादा, धर्म और नीति आदि को विवेक से जुड़कर ही सार्थक और सफल मानते हैं और इस प्रकार युग-बोध की पृष्ठभूमि में मानव-विवेक को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। अंधायुग में कवि ने विवेक को नैतिक आचरण का मूल आधार स्वीकार करते हुए कहा है –
हम सब के मन में कहीं एक अंध गहवर हैं
बर्बर पशु, अंधा पशु वास वहीं करता है,
स्वामी  जो हमारे विवेक का,
नैतिकता, मर्यादा, अनासक्ति, कृष्णार्पण
यह सब है अंधी प्रवृत्तियों की पोशाकें
जिन में कटे कपडों की आँखें सिली रहती हैं।”(2)
   अंधायुग में युध्दोत्तर कालीन जीवन और बदलती हुई सामाजिक परिस्थितियों के अनुरुप मानवीय मूल्य चेतना के विकास की गाथा वर्णित हुई है। बीसवीं शती के पूर्वार्ध्द में लड़े गये दो विश्व-युध्दों की विभीषिका ने बहुत दूर तक विश्व के जीवन-दर्शन, मानव-मूल्यों (मानव आस्था, मानव-निष्ठा, मानव-स्वातंत्र्य और मानव-विशिष्टता की स्थापना) तथा अन्य अनेक सांस्कृतिक मान्यताओं को प्रभावित किया है। इन दोनों महायुध्दों के विश्व-व्यापी प्रभाव से संसार का कोई भी राष्ट्र तथा उसका जीवन-दर्शन अछूता नहीं रहा है।  हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन पर भी इन दोनों महायुध्दों का बहुत प्रभाव पड़ा है। युध्दोत्तर काल में हमारे विश्वास, परंपराओं, मानव-मूल्यों, मान्यताओं आदि में बड़ी तीव्र गति से क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। युध्द के पश्चात सांस्कृतिक विघटन की समस्या भारत में ही नहीं, प्रत्येक राष्ट्र के सम्मुख रही है। इसका सर्वप्रमुख कारण यह है कि प्रत्येक भयंकर युध्द के पश्चात मानव चारित्रिक दृष्टि से बड़ा हीन और गरीब हो जाता है। एक प्रकार से यह युग एक साथ ही सांस्कृतिक विघटन एवं पुननिर्माण का युग है। अंधायुग में इसी अंधे-युग का चित्रण हुआ है। कवि ने यहाँ अंधों के माध्यम से ज्योति की कथा कहने का प्रयास किया है। अंधायुग की अंधी युग-दृष्टि इस काव्य का केंद्रीय प्रतीक हैं जो विभिन्न रुपों में कई पात्रों द्वारा अभिव्यक्त हुआ है।
यह युग एक अंध समुद्र है
चारों ओर पहाडों से घिरा हुआ
और दरों से
और गुफाओं से
उमडते हुए भयानक तूफान चारों ओर से
उसे मथ रहे हैं।”(3)
   युध्द बीत जाने पर समस्त मर्यादाएँ मूल्य और सिध्दांत एक संक्रमण कालीन स्थिति में पड़ जाते हैं :
युध्दोपरांत
यह अंधायुग अवतरित हुआ
जिस में स्थितियाँ, मनोवृत्तियाँ, आत्माएँ
सब विकृत हैं।”(4)
   जो युध्दोपरांत मर्यादा का बहुत पतला, क्षीण सूत्र ही विद्यामान रहता है। जो कौरव-पांडव दोनों ही पक्षों में उलझे रुप में विद्यामान है। केवल कृष्ण में उसे सुलझाने का साहस है जो युध्द में मर्यादा को तोडते सद-असद दोनों ही पक्ष है, यदि एक कुछ कम तो दूसरा कुछ अधिक। विजयी और विजित दोनों ही इस महानाश के लिए उत्तरदायी हैं। दोनों ही पक्ष विवेकशून्य होते हैं और इस विवेकशून्यता के कारण ही युध्द प्रारंभ भी होता हैं।
अंधों से शोभित था युग का सिंहासन
दोनों ही पक्षों में विवेक था हारा
दोनों ही पक्षों में जीता अंधापन।
भय का अंधापन, मामता का अंधापन
अधिकारों का अंधापन जीत गया।”(5)
   जो कुछ भी सुंदर एवं कल्याणकारी था वह सब युध्द में चुक गया। युध्द संस्कृति को पंगु और जर्जर कर देता है। युध्दोपरांत के जीवन में व्याप्त मानव-असहायता की धृतराष्ट्र की आत्म-ग्लानि के माध्यम से बड़ी मार्मिक अभिव्यक्ति हुई। पराजय से विक्षुब्ध धृतराष्ट्र के सम्मुख आकर जब एक जीभ कटा सैनिक न जाने क्या-क्या बकता है तब धृतराष्ट्र का यह कथन - 
गूँगों के सिवा आज
और कौन बोलेगा मेरी जय।”(6)
   युध्दोपरांत की जीवन-स्थिति का सही बोध कराता है। युध्द-पूर्व की मानव विवेकशून्य संस्कृति समस्त समाज को विषाक्त बना देती है। यदि यह युध्द-पूर्व-संस्कृति इतनी विषाक्त और समयबाह्य (cut of dated)  नहीं होती तो इसको समाप्त करने की भी आवश्यकता न होती और न ही वह समाप्त हो पाती है। इसका समाप्ति के लिए ही युध्द छिडते हैं –
रक्षणीय कुछ भी नहीं था यहाँ
संस्कृति थी यह एक बूढ़े और अंधे की
जिसकी संतानों ने महायुध्द घोषित किये
जिसके अंधेपन में मर्यादा
गलित अंग वेश्या-सी
प्रजाजनों को भी रोगी बनाती फिरी।”(7)
   क्या यह युध्द विजयी के लिए लाभप्रद या शोभन  है? इस प्रश्न का समाधान भी कवि ने इस कृति में प्रस्तुत किया है। उसने विजय को आत्म-दंश के समान माना है, इसीलिए पाँचवें अंक का नाम उसने विजय : एक क्रमिक आत्महत्या रखा है।  विजय को परिभाषित करता युधिष्ठिर कहता है –
और विजय क्या है?
एक लंबी और धीमा
और तिल-तिल कर फली भूत
होनेवाला आत्मघात। ”(8)
    इसीलिए युधिष्ठिर जीतकर भी मन से हारा हुआ है। एक ओर उसके सामने युध्द ध्वंस संस्कृति के नव-निर्माण का प्रश्न है तो दूसरी ओर नव-निर्माण के लिए योग्य जन-धन और मनोयोग-संकल्प जैसे साधनों का अभाव। वह अपनी इस स्थिति से दुर्योधन की स्थिति को अच्छा मानता है जो इस आत्मघाती स्थिति को देखने से पहले ही स्वर्ग चला गया।
     विजय और विजित के अतिरिक्त युध्द का एक पक्ष और है वह है सामान्य प्रजा। सामान्य-जन को युध्द से कुछ भी प्राप्त नहीं होता है, युध्दोपरांत उन्हें तो और भी अधिक निर्बल शासन-व्यवस्था मिलती है। दो प्रहरियों के वर्तालाप के माध्यम से कवि ने स्पष्ट किया है कि -
प्रहरी 1 : हम जैसे पहले थे
प्रहरी 2 : वैसे ही अब भी हैं
प्रहरी 1 : शासक बदले
प्रहरी 2 : स्थितियाँ बिलकुल वैसी हैं
प्रहरी 1 : इस से तो पहले के ही शासक अच्छे थे
प्रहरी 1 : अंधे थे -----
प्रहरी 2 : ----- लेकिन वे शासन तो करते थे।”(9)
    सामान्य-जन को ज्ञान और मर्यादा के थोथे नारों से कुछ लेना-देना नहीं है, वे उनके ओढ़ने या बिछाने की चीजें नहीं है। 
    आधुनिक कवि ने नागाशाकी और हिरोशिमा पर गिराये गये विषाक्त बमों की विभीषिका से त्रस्त मानवता को देखा था जिनके विनाशकारी परिणामों की कल्पना तक सिहरा देनेवाली है, जिन से आगे आनेवाली न जाने कितनी संततियाँ रोगी और कुष्ठ-ग्रस्त पैदा होती रहेंगी। अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र के भयावह परिणामों के चित्रण में कवि के मन में आधुनिक महायुध्दों के विनाशकारी रुप का चित्र कौंध जाता है।...
ज्ञात क्या तुम्हें है परिणाम इस ब्रह्मास्त्र का
यदि यह लक्ष्य सिध्द हुआ ओ नर पशु!
तो आगे आनेवाली सदियों तक
पृथ्वी पर रसमय वनस्पति नहीं होगी
शिशु होंगे पैदा विकलांग और कुष्ठग्रस्त
सारी मनुष्य जाति बौनी ही जायेगी
जो कुछ भी ज्ञान संचित किया है मनुष्य ने
सतयुग में, त्रेता में, द्वापर में
सदा-सदा के लिए होगा विलीन वह
गेहूँ की बालों में सर्प फुफकारेंगे
नदियों में बह-बह कर आयेगी पिघली आग।”(10)
        युध्द में मानव-मूल्यों का हनन होना अनिवार्य है। प्रतिहिंसा और घृणा की भावनाएँ इस हनन के लिए उत्तरदायी होती हैं। अश्वत्थामा के चरित्र में प्रतिहिंसा और घृणा को बड़ी मनोवैज्ञानिकता के साथ उभरा गया है। इसलिए अंधायुग में कृष्ण के अनासक्त प्रेम की प्रतिद्वन्द्व में अश्वत्थामा अनासक्त विक्षोभ का प्रणेता बनकर सामने आया है। युधिष्ठिर के आर्ध्द-सत्य ने अश्वत्थामा के कोमलतम अंश की हत्या कर डाली थी। युधिष्ठिर से अश्वत्थामा हतः नरो वा कुँजरों वा कहकर मानव और पशु के बीच की विभाजक रेखा को मानो मिटा दिया था। इसीलिए अश्वत्थामा कहता है –
मानव को पशु से
उन्होंने पृथक नहीं किया
उस दिन से मैं हूँ
पशुमात्र,
अंध बर्बर पशु।”(11)
    योध्दा से बर्बर पशु बन जाने के बाद उसके अस्तित्व का अंतिम अर्थ वध, केवल वध, केवल वध बन गया। वह कहता है –
वध मेरे लिए नहीं रही नीति
वह है अब मेरे मनोग्रंथि।”(12)
   दुर्योधन द्वारा पराजय स्वीकार कर लेने पर पिता की निर्मम हत्या का प्रतिशोध ले सकने की असमर्थता का अनुभव अश्वत्थामा को हुआ।
   अश्वत्थामा ने उत्तरा के गर्भ तक को नष्ट करना चाहा, किंतु कृष्ण ने गर्भ की रक्षा कर ली। कृष्ण ने उसे भ्रूण हत्या का शाप देकर उससे मणि छीन ली। कृष्ण के शाप के कारण ही मणि छीन लिये जाने के बाद अश्वत्थामा के मस्तक पर जो जख्म हुआ, वह सदा ताजा बना रहा। शाप के कारण ही उसका अंग-अंग गलित कुष्ठ के कारण दुर्गन्ध से भर गया। उसका रोम-रोम अगणित रौरव नरक की यातना से पीडित हो उठा। अंत में कृष्ण के घायल चरणों में से घाव के फूट कर बह निकलने पर जब अश्वत्थामा ने अपनी निजी पीडा को शांत होते हुए अनुभव किया, तो उसकी सारी घृणा आस्था में परिवर्तित हो गयी। जो अंधा युग अंधी प्रतिहिंसा बनकर अश्वत्थामा की नस-नस में पैठ गया था, उसके कारण उसके पश्चात्तापदग्ध मन को विगलित कर गया। उसने अनुभव किया कि घृणा का तर्क अमानुषिक है। मनुष्यता की विस्तृति का यह अविस्मरणीय पात्र अंत में अनुभव करता है ----
जिसको तुम कहते हो प्रभु
वह था मेरा शत्रु
पर उसने मेरी पीडा भी धारण
कर ली
जख्म है बदन पर मेरे
लेकिन पीडा सब शांत हो गई बिल्कुल
मैं हूँ दंडित
लेकिन मुक्त हूँ।”(13)
      इस प्रकार अश्वत्थामा के चरित्र के माध्यम से कवि डॉ. धर्मवीर भारती यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि मानव-विवेक ही नीर-क्षीर करने का सामर्थ्य प्रदान करता है तथा मानव-विवेक ही मानव के मनोभावों को उदात्त रुप प्रदान करता है। डॉ. धर्मवीर भारती ने अंधायुग में युध्दोत्तर कालीन जीवन की विसंगतियों का चित्रण करते हुए मानव-विशिष्टता की रक्षा एवं मानव भविष्य की सुरक्षा के लिए मानव-विवेक को महत्वपूर्ण प्रमाणित  करते हैं।
   संदर्भ :
1.      मानव-मूल्य और साहित्य  : डॉ. धर्मवीर भारती पृ.सं. 21
2.      अंधायुग : डॉ.धर्मवीर भारती -  पृ.सं. 19
3.      अंधायुग : डॉ.धर्मवीर भारती -  पृ.सं. 57
4.      अंधायुग : डॉ.धर्मवीर भारती - पृ.सं. 10
5.      अंधायुग : डॉ.धर्मवीर भारती - पृ.सं. 11
6.      अंधायुग : डॉ.धर्मवीर भारती - पृ.सं. 40
7.      अंधायुग : डॉ.धर्मवीर भारती - पृ.सं. 12
8.      अंधायुग : डॉ.धर्मवीर भारती - पृ.सं. 90
9.      अंधायुग : डॉ.धर्मवीर भारती - पृ.सं. 83
10.  अंधायुग : डॉ.धर्मवीर भारती - पृ.सं. 73
11.  अंधायुग : डॉ.धर्मवीर भारती - पृ.सं. 29
12.  अंधायुग : डॉ.धर्मवीर भारती - पृ.सं. 32
13.  अंधायुग : डॉ.धर्मवीर भारती - पृ.सं. 98

 














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