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“राम” के बारे में महात्मा गाँधी के विचार

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Aalochan Drishti (A n International referred Research Journal of Humanitites) ISSN 2455-4219 August - October 2016    “ राम ” के बारे में महात्मा गाँधी  के विचार प्रो.एस.वी.एस.एस.नारायण राजू महात्मा गाँधी जी एक विशिष्ट राजनैतिक नेता और राष्ट्र पिता के रूप में विश्वविख्यात हुए.  वे वास्तव में अनन्य ईश्वर भक्ति की साधना में किसी साधु संत से कम नहीं थे.  गाँधीजी सदाचार को ही वास्तविक धर्म मानते थे.  इसके लिए उन्होंने “ नवजीवन ” में कहा कि “ धर्म कोई संप्रदाय नहीं है , केवल बाह्याचार  भी नहीं बल्कि विशाल एवं व्यापक है.  ईश्वरत्व के विषय में हमारी अचंचल श्रध्दा , पूर्वजन्म में अविचल श्रध्दा , सत्य और अहिंसा में हमारी संपूर्ण श्रध्दा , आध्यात्मिक संबंध से हीन लौकिक संबंध प्राणहीन शरीर के समान है.  व्यक्ति अथवा समाज धर्म से जीवित रहते हैं और अधर्म से नष्ट हो जाते हैं. ”   गाँधीजी हिंदू धर्म के अनुयायी थे लेकिन वे मानव धर्म को व्यक्ति का धर्म मानते हैं.  उनका अनुमान था कि विभिन्न धर्म केवल सत्य की ही खोज में लगे हैं.  गाँधीजी ने अपने अस्तित्ववादी दृष्टिकोण को भी आध्यात्मि

सोफिया (बुल्गारिया) में हिंदी शिक्षण : समस्यायें और समाधान

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VISHW MAITRI    International Seminar on "The Impact of Globalization on HIndi and other Indian Languages"  ISBN  978-93-83637-60-7  सोफिया (बुल्गारिया) में हिंदी शिक्षण    :   समस्यायें और समाधान प्रो. एस. वी. एस. एस. नारायण राजू       यह सर्वविदित बात है कि हिंदी ही नहीं कोई भी भाषा की शिक्षण में प्रांत, क्षेत्र या देश के संदर्भानुसार समस्यायें या तकलीफें उत्पन्न होना सर्वसाधारण बात है. इन समस्यायें या तकलीफों को समस्या के रूप में न देख कर अडचन या अवरोध के रूप में लेकर पार करने के लिए हम कोशिश भी करते हैं.  इस संदर्भ में सिध्दांत पक्ष पर जोर देने के बजाय मैं प्रायोगिक पक्ष पर कुछ चीजों को प्रस्तुत करना चाहता हूँ. मैं पिछले बीस वर्षों से हिंदीतर प्रदेशों में ही हिंदी पढाते आ रहा हूँ. भारत में हिंदीतर प्रांतों में पढाते वक्त आनेवाली समस्याओं की तुलना में यूरोप (अर्थात् विदेशी संदर्भ) में कुछ ज्यादा है. भारत के संदर्भ में छोटे मोटे अंतर हैं परंतु अधिकांश समान ही है. विदेशी संदर्भ अर्थात् अब मैं युरोप के संदर्भ में पेश करने जा रहा हूँ.       सबसे पहले सांस्

आत्मविश्वास एवं मानव-स्वाभिमान के संदर्भ में डॉ.धर्मवीर भारती के काव्य

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शब्द विधान   ISSN : 2394 - 0670  अंतर्राष् ट ्रीय त्रेमासिक अनुसंधान पत्रिक ा July - Sept 2014     आत्मविश्वास एवं मानव-स्वाभिमान के संदर्भ में डॉ.धर्मवीर भारती के काव्य प्रो. एस.वी.एस.एस.नारायण राजू आत्मविश्वास और मानव-स्वाभिमान भी अन्य मानव-मूल्यों की तरह नए मानव-मूल्य हैं.  जिन्हें डॉ.धर्मवीर भारती ने अपनी कृतियों में सफलतापूर्वक प्रतिष्ठित किया है. बीसवीं शताब्दी के मानव में उपजा आत्मविश्वास को भी मानव-मूल्य के रूप में स्वीकार करना अत्यंत समीचीन प्रतीत होता है.  नई कविता के कवि अपनी अनुभूतियों को जितनी ईमानदारी के साथ अभिव्यक्त करते हैं वह उनके आत्मविश्वास का ही परिणाम है.  इस संबंध में लक्ष्मीकांत वर्मा का यह कथन द्रष्टव्य है --   “ आदमी आज खीजता है, पकता है, टूटता है, बनता है और इन परिस्थितियों में वह अपने और अपने से बाहर विषाक्त वातावरण से जूझता है.  इस जूझने में, इस टूटने में, इस खीजने में और पकने की प्रक्रिया में निश्चय ही उसका आत्मविश्वास विकसित होता है. ”(1) इस से यह स्पष्ट हो जाता है कि नए कवि के लिए विश्व के आदर्श की भुजाएँ भी छोटी हैं इसलिए वह नए आद