“राम” के बारे में महात्मा गाँधी के विचार




Aalochan Drishti
(An International referred Research Journal of Humanitites)
ISSN 2455-4219
August - October 2016 


 रामके बारे में महात्मा गाँधी  के विचार
प्रो.एस.वी.एस.एस.नारायण राजू




महात्मा गाँधी जी एक विशिष्ट राजनैतिक नेता और राष्ट्र पिता के रूप में विश्वविख्यात हुए.  वे वास्तव में अनन्य ईश्वर भक्ति की साधना में किसी साधु संत से कम नहीं थे.  गाँधीजी सदाचार को ही वास्तविक धर्म मानते थे.  इसके लिए उन्होंने नवजीवन में कहा कि धर्म कोई संप्रदाय नहीं है, केवल बाह्याचार  भी नहीं बल्कि विशाल एवं व्यापक है.  ईश्वरत्व के विषय में हमारी अचंचल श्रध्दा, पूर्वजन्म में अविचल श्रध्दा, सत्य और अहिंसा में हमारी संपूर्ण श्रध्दा, आध्यात्मिक संबंध से हीन लौकिक संबंध प्राणहीन शरीर के समान है.  व्यक्ति अथवा समाज धर्म से जीवित रहते हैं और अधर्म से नष्ट हो जाते हैं.  गाँधीजी हिंदू धर्म के अनुयायी थे लेकिन वे मानव धर्म को व्यक्ति का धर्म मानते हैं.  उनका अनुमान था कि विभिन्न धर्म केवल सत्य की ही खोज में लगे हैं.  गाँधीजी ने अपने अस्तित्ववादी दृष्टिकोण को भी आध्यात्मिकता से समन्वित किया है क्योंकि वह आध्यात्मिकता के विकास में सहायक होता है.  उनकी धारणा है कि ईश्वर से पृथक जिस सच्चाई की धारणा की जाती है, वह जीवन रहित है.  उनकी ईश्वर निष्ठा, सत्य निष्ठा का पर्याय है.  वे ईश्वर को सत्य मानते थे.  परंतु अपने जीवन के विविध क्षेत्रों में सत्य के प्रयोग करते-करते वे इस नतीजे पर पहुँच गए हैं कि सत्य ही ईश्वर है.   अखण्ड और व्यापक सत्य को उन्होंने अपना आराध्य माना और इसी सत्य के भक्त या सत्याग्रही के रूप में अंत तक वे बने रहे.  इस सत्य साधना के परिप्रेक्ष्य में ही उन्होंने राम का नाम स्वीकार किया.  ईश्वर के प्रति उनकी इसी निष्ठा के कारण चाहे आश्रम में रहते या प्रवास में या जेल में प्रातः एवं संध्या समय में नियमित रूप से सामूहिक प्रार्थना चलाते थे और सब धर्मों के प्रमुख उपदेशों का पाठ करते थे.  सर्वधर्म समभाव का संदेश देते थे.
यह सर्वविदित  है कि संस्कृत के आदि कवि वाल्मीकि से लेकर आज तक राम भक्ति की आखण्ड धारा भारतीय जन जीवन के सिंचित करती आ रही है.  हिंदी साहित्य के क्षेत्र में अद्वितीय रामभक्त महाकवि के रूप में विश्वविख्यात तुलसीदास के अनुसार---
राम नाम मणि दीप धरू जीभ देहरी व्दार .
तुलसी भीतर बाहिरौ जो चाहसि उजियार .
अर्थात् बाहरी एवं भीतरी नहीं, तिमिर का अंत करके ज्ञान रूपी प्रकाश को प्राप्त करने का संदेश प्रस्तुत है.  गाँधीजी इस देश के जन साधारण के प्रतिनिधि थे, इसलिए उनका राम भक्त होना स्वाभाविक ही है.  परंतु उनकी रामभक्ति की परिकल्पना क्या है ? क्या भारत की परंपरागत भक्ति का अनुगमन करना ही उनका ध्येय था, किस परिप्रेक्ष्य में उन्होंने राम को स्वीकार किया, इन पर विचार करना आवश्यक है.
गाँधीजी की आत्मकथा से विदित होता है कि उनके बचपन में उनके मन का भय दूर करने के लिए घर की नौकरानी रंभा ने उन्हें राम का नाम लेने का उपदेश दिया.  उनकी माता पुतलीबाई की पुनीत भक्ति भावना ने भी उनके हृदय पर अमिट छाप डाली.  तब से उनके मन में राम नाम पर अचंचल श्रध्दा जाग गई.  जब कभी उनकी व्यक्तिगत, सामाजिक या राष्ट्रीय जीवन में कोई संकट उपस्थित होने से उन्होंने राम पर भरोसा रखकर  ही उनका सामना किया.  सत्य निष्ठा का संदेश बचपन में ही सत्य हरिश्चंद्र नाटक को देखने से मिला.  पिता के वचन का पालन करने के लिए सम्राज्य वैभव को तृण समान परित्याग करके वनवास स्वीकार करनावाला मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के प्रति श्रध्दा होना स्वाभाविक ही था.  गोस्वामी तुलसीदास का रामचरितमानस का पाठ उनकी दैनिक प्रार्थना का प्रधान अंश बन गया.  रघुपति राघव राजा राम पतीत पावन सीता राम धुन उन्हें अत्यंत प्रिय थी. अंत में एक भूले-भटके युवक की तीन गोलियों की मार खाकर भी हे राम ! “ कहते हुए उन्होंने अपनी आखरी साँस छोड दी.  इससे यह पता चलता है कि राम के प्रति गाँधीजी को कितना अपार एवं अचंचल श्रध्दा थी.
भले ही गाँधीजी की राम भक्ति आरंभ में राजा राम तक ही सीमित रही हो परंतु कालांतर में वह मानव मात्र के हृदय में रमते राम की भक्ति में परिवर्तन हो गई.  उनका कहना है कि लाखों करोडों मूक जनता की हृदय में निवास करने वाले ईश्वर के सिवा मैं किसी और ईश्वर को नहीं जानता. उन्होंने सबसे अधिक दीन-दुःखी और शोषित एवं पीडित जनता के हृदय में ही अपने आराध्य राम का निवास माना, दरिद्र नारायण अर्थात् दरिद्र मानव की सेवा को ही उन्होंने माधव की सेवा समझे.
मानव की सेवा ही माधव की सेवा है,
दोनों की सेवा ही दीन बंधु की सेवा है.
सबसे पिछडे और दबे अस्पृश्य माने जाने वाले लोगों के हरिजन नाम देकर उनके उध्दार के लिए उन्होंने कमर कस ली और उच्च जातिवालों के विरोध का साहसपूर्वक सामना किया.  उन्होंने जीवन भर दीन-दुखियों की सेवा की और इसी को दरिद्र नारायण की सेवा नाम देकर सबको इस सेवा के लिए प्रोत्साहित करते रहें.  वे सदा इस प्रकार कहते थे कि मैं राज्य नहीं चाहता हूँ न ही स्वर्ग और न ही मोक्ष बल्कि पीडित दुःखियों के दुःख का नाश चाहता हूँ.  इस प्रकार गाँधीजी अंतिम क्षण तक दुःखित प्राणियों के दुःख दूर करने के लिए निरंतर प्रयास किया और सर्वव्यापी और सर्वांतर्यामी ईश्वर के अर्थ में ही राम का नाम लिया.  उनका राम अल्ला, खुदा, गाड, अल्मैटी, नारायण आदि का पर्यायवाची है.
ईश्वर अल्ला तेरे नाम,
सब को सनमति दे भगवान.
गाँधीजी ने अपने स्वराज्य अथवा ग्रामराज्य के स्वरूप को राम राज्य कहा.  उनका रामराज्य एकतंत्रवाला निरंकुश सम्राज्यवादी राज्य नहीं है.  नीचे-से-नीचे आदमी तक की आवाज को मान्यता देनेवाले जन कल्याणकारी लोक तंत्र राज्य का नाम ही उनके अनुसार राम राज्य है.  उनके राम राज्य में जाति, धर्म, वर्ग और उच्च नीच का कोई स्थान नहीं है.  सर्वजन श्रेय या सर्वोदय सुख प्रतिष्ठित करनेवाले राम राज्य की स्थापना करना उनका ध्येय था.  गांधीजी की राम की संकल्पना असांप्रदायिक है.  दशरथ पुत्र राम तक वह सीमित नहीं है बल्कि मानव मात्र के हृदय में रमता राम ही उनका राम है.  इसी कारण से हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई, बौध्द, जैन आदि सभी धर्मों को माननेवाले समस्त भारतीय जनता के लिए ही नहीं सारे विश्व के लिए बापू बन गए.
Prof. S.V.S.S.Narayana raju
Head, Dept. of Hindi.
School of Social Sciences and Humanities,
Central University of Tamilnadu
Neelakudi campus,
Thiruvarur 610 005.
Tamil Nadu.
Email id  profsvssnraju@gmail.com



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