“कबीर के दृष्टिकोण में गुरु”





कबीर के दृष्टिकोण में गुरु

प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू

    पूर्णकुंम्भ – साहित्यिक मासिक पत्रिका                  
    मई     - 2002



                भक्तिकालीन सभी सन्तों में से कबीर की वाणी सबसे अधिक सशक्त एवं सक्षम है. कबीर ने तत्कालीन समस्त धर्म साधनाओं, उपासना- पद्धतियों साधना प्रणालियों आदि का गहन अध्ययन करके अपने विचार प्रकट किए हैं. साथ ही वे उच्चकोटि के साधक भी रहे हैं. कबीर का साहित्य जन-जीवन को उन्नत बनानेवाला है, मानवता का पोषक है, विश्व बन्धुत्व की भावना को जाग्रत करनेवाला है. कबीर की साधना में गुरु को अत्यधिक महत्व प्रदान किया गया है. कबीर की दृष्टि में गुरु गोविन्द से भी बढ़कर है, क्योंकि

         हरि रुँठे गुरु ठौर है, गुरु रुँठे नहिं ठौर

कहकर कबीर ने गुरु को सबसे बडा आश्रय-स्थान माना है, जो ईश्रर के रुँठने पर भी भक्त की रक्षा करता है, किन्तु गुरु भी उच्च कोटि का होना चाहिए. वह ज्ञान का भण्डार होना चाहिए, उसमें शिष्य के पथ-प्रदर्थन की पूर्ण क्षमता होनी चाहिए और वह भी सच्चा साधक होना चाहिए, ऐसे गुरु को कबीर ने सतगुरु के नाम से अभिहित किया है तथा उसकी अनंत महिमा का गुण गान किया है. कबीर के संबंध में एक रुढ़ धारणा बन गई है कि ये पढ़े-लिखे नहीं थे. इसकी पुष्टि में बीजक में संकलित निम्र साखी उद्धृत की जाती है-

          मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ.
         चारिड जुग को महातम, मुखहिं जनाई बात.

  उपर्युक्त साखी कबीरदास जी की कही गई है, किन्तु प्राचीनतम संग्रह कबीर ग्रंथावली में यह नहीं है. कबीर तो शायद चारिउ जुग महातम कहने का दावा नहीं करते. यह उस कबीर पंथी धारणा का प्रतिफलन है, जिसके अनुसार कबीर चारों युगों में अवतरित हुए थे. यदि इसे उनकी प्रामाणिक रचना मान भी लिया जाए तो भी, इस से यह सिद्ध नहीं होता कि वे एकदम बिना पढ़े-लिखे थे. वे सच्ची अनुभूति को पढ़ाई लिखाई का अंग नहीं समझते थे. बीजक में ही कहा गया है कि-

मसी बिनु, द्वात कलम बिनु, कागज बिनु, अच्छर सुधि होई.

इसी सिद्धान्त के अनुसार वे कह देते है.-

        पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोइ.

        कबीर ने ऐसे ज्ञान के लिए गुरु की आवश्यकता स्वीकार की है. गुरु सैद्धन्तिक ज्ञान के साथ प्रयोगात्मक ज्ञान का भी धनी होता हैं. वह श्रवण और मनन के साथ दर्शन भी करता है. वास्तव में ऐसा ही गुरु, गुरु बनने के योग्य है.

       कबीर को ऐसे ही सद्गुरु मिल गए थे, जिन्होंने धैर्य बँधाकर कबीर को स्थितप्रज्ञ बना दिया. भगवद्भक्तों में उनकी स्थापना हुई और वे मानसरोवर के तट पर बैठकर हीरे का वाणिज्य करने लगे, सात्विक, निर्मल, प्रशान्त प्रकाश की अवस्था में पहुँचकर दूसरों को ज्ञानलोक से आलोकित करने लगे .जिस दिन से महागुरु रामानंद ने कबीर को भक्ति रुपी रसायन दी, उस दिन से उन्होंने सहज समाधि की दीक्षा ली, आँख मूँदने और कान रुँधने के टंटे को नमस्कार कर लिया, मुद्रा और आसन की गुलामी को सलामी दे दी. उनका चलना ही परिक्रम हो गया, काम-काज ही सेवा हो गए, सोना ही प्रणाम बन गया, बोलना ही नाम-जप हो गया और खाने-पीने ने ही पूजा का स्थान ले लिया. हठयोग के टंटे दूर हो गए, खुली आँखों से ही उन्होंने भगवान् के मधुर मादक रुप को देखा, खुले कानों से ही अनहद नाद सुना, उठते-बैठते सब समय समाधि का आनंद पाया और अत्यन्त उल्लास के आवेग में उन्होंने घोषित किया कि- 
साधो,सहज समाधि भली.
गुरु प्रताप जा दिन तैं उपजी, दिन, दिन अधिक चली.
जहँ-तहँ डोलों सोई परिकरमा, जो कुछ करो सो सेवा.
जब सोवों तब करों दण्डवत, पूजों और न देवा..

      कबीर से पूर्व ही भारत में गुरु की महत्ता प्रतिष्टिता हो गई थी. कबीर दास ने उसी परम्परा को मुखर करते हुए गुरु को गोविन्द से भी अधिक ऊँचा स्थान प्रदान किया-
      गुरु गोविन्द दोऊ खडे, काके लागों पाया
      बलिहारी गुरु आपणै, गोविन्द दियो बताय

     कबीरदास गोविन्द से मिलानेवाले गुरु का गुणगान अनेक रुपों में करते हैं. उनकी दृष्टि में गुरु असाधारण एवं अलौकिक पराक्रम दिखानेवाला शूर है. उसके साखी रुपी वाणी की चोट बाहर नहीं दिखाई पड़ती किन्तु उनकी चोट लगते ही शिष्य का अन्तःकरण इस प्रकार विद्ध हो जाता है कि उसका विकृत रुप तो नष्ट हो ही जाता है, साथ ही प्रेम की पीर उत्पन्न होने से वह परम प्रिय से मिलने के लिए आकुल भी हो उठता है. ऐसा महत्वपूर्ण गुरु किसी प्रकार के दोष से युक्त नहीं हो सकता.
     सतगुरु के बारे में कबीर इस प्रकार कहते हैं कि-

     सतगुरु सवाँन को सगा, सोधी सई न दाति.
     हरिजी सवाँन को हितू, हरिजनसई न जाति.

अर्थात् सच्चे गुरु के समान कोई अपना नहीं, परमत्व के खोजियों के समान कोई दाता नहीं, परमात्मा के समान कोई भलाई करनेवाला नहीं तथा भगवद्-भक्तों के समान कोई जाति नहीं, क्योंकि सगे-संबंधी सांसारिक भलाई करते हैं, गुरु परमात्मा से मिलाता है, दाता सांसारिक नश्वर वस्तुएँ देता है, तत्व का खोजी तत्व से साक्षात्कार कराकर अमरता देता है, अन्य व्यक्ति सांसारिक विषय-संबंधी भलाई करते हैं, परमात्मा अपने में मिला लेता है तथा अन्य जातियाँ कुछ सांसारिक स्वार्थों के आधार पर गठित होती हैं, किन्तु हरि भक्ति, भक्ति-रस के आस्वादन के लिए संगठित होते है. जिस में स्वार्थ की गंध नहीं.

     सतगुरु हमेशा शिष्ये के अहं भाव को जड़ से मिटाते हैं, इस प्रकार के सतगुरु का वर्णन कबीर इस प्रकार किया है.

सतगुरु मारया बाण भरि, धरि करि सूधी मूठि.
अंगि उघाड़ै लागिया, गई दवा सूँ फूटि..

मतलब यह है कि सतगुरु ने शब्द रुपी बाण को पूरा खींचकर लक्ष्य बेध के उपयुक्त सीधी मूँठ करके, मुझ पर छोड दिया, मेरे वस्त्रहीन शरीर पर उसके लगते ही दावाग्नि-सी अर्थात् दवा रुपी अग्नि सारे शरीर में फूट पडी. सारा का सारा अहंभाव जलकर राख हो गया.
       कबीर गुरु की महानतम कृपा के बारे में इस प्रकार विचार व्यक्त किया है कि-
       पीछे लागा जाई था, लोक बेद के साथि.
       आगै थै, सतगुरु मिल्या, दीपक दीया हाति...

       अर्थात् – कबीर का कहना है कि मैं लोकाचार एवं वेदाचार को मानता हुआ, सबका अन्धानुसरण करता हुआ, अज्ञान के अन्धकार में चला जा रहा था, सौभाग्यवश सामने से आते हुए गुरु मिल गए, उन्होंने ज्ञान-दीपक मेरे हाथ में रख दिया.
      कबीर गुरु महिमा का उल्लेख इस प्रकार किया है.

      कबीर गुरु गारवा मिल्या, रलि गया आटैं लूँग.
      जाति पाँति कुल सब मिटे, नाँव धरौगे कौण..

इस का अर्थ यह है गुरु गले लगाकर क्या मिले, मानो आटे ने चुटकी भर नमक को अपने में मिला लिया. उनसे अभेदावस्था प्राप्त हो गई है, अब मेरी कोई जाति-पाँति नहीं, कोई मेरा नाम ही क्या रखेगा. इस प्रकार कबीर गुरु महिमा का उल्लेख किया है.
   कबीर सद्गुरु के अभाव में आनेवाले दुष्परिणामों के बारे में भी इस प्रकार वर्णन किया है.

जाका गुरु भी अंधला, चेला खरा निरंध.
अंधै अंधा ठेलिया, दून्यूं कूप पडंत..

   इस का अर्थ इस प्रकार है-जिस शिष्य का गुरु अज्ञान के परदे के कारण अन्धा है, वह गुरु से बढ़कर अंधा है, परिणाम यह होता है कि गुरु मार्ग नहीं बता पाते और माया की दिशा में एक दूसरे को ठेलते हुए वे दोनों नरक कूप में गिर पडते हैं.

   कबीर दास अपने को धन्य मानते हुए कहते हैं कि – यह अच्छा हुआ कि मुझको सद्गुरु मिल गए, यदि ऐसा नहीं होता तो बडा भारी अनिष्ट होता,  मैं शलभ की दृष्टि लिए हुए, भोग दीपक को ही परम-काम्य समझकर उसमें पड जाता.
   कबीर कहते हैं कि गुरु की कृपा से ही माया से बच सकते हैं-

माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पडंत.
कहै कबीर गुरु ग्यान थैं, एक आध उबरंत..

उपर्युक्त दोहा के माध्यम से कबीर कहना चाहते हैं कि – माया दीपक के समान आकर्षक है, मनुष्य उसके प्रति पतंगों का प्रेम लिए बढ़ते रहते हैं तथा चक्कर काटते हुए उस पर निछावर होने रहते हैं, केवल एक-आध गुरु  की कृपा से बच पाते हैं.

  इस संसार रुपी भव सागर से गुरु जिस प्रकार रक्षा करता है. उसका वर्णन इस प्रकार किया है –

बूडे ते परि ऊबरे, गुरु की लहरि चमंकि.
भेरा देख्या जरजरा, ऊतरि पडे फरंकि..

अर्थात् - भव-सागर में हम डूव ही गए थे, गुरु की ज्ञान लहर तभी चमक पडी, उसके प्रकाश में हमने देखा कि हमारा तन-रुपी बेडा अत्यन्त जर्जर है, अतः उससे शीघ्रता के साथ बाहर कूद पडे-शरीर से अनासक्त हो गए.

   गुरु और गोविन्द दोनों की अभिन्न स्वरुप का भी एक जगह चित्रित किया है जैसे-

   गुरु गोविन्द तो एक हैं, दूजा यहू आकार.
   आपा मेट जीवन महै, तौ पावै करतार..

    अर्थात् गुरु और गोविंद आत्म-रुप अभिन्न है अन्तर तो मायात्मक शरीर के कारण है, अतः यदि जीवितावस्था में अपने अहं भा को मिटाकर, शिष्य मृतक तुल्य बन जाय, तो वह परमात्मा को प्राप्त कर सकता है.

   कबीर सदुगुरु की महिमा का वर्णन इस प्रकार किया है कि-

   सतगुरु की महिमा अनत, अनंत किया उपगार.
   लोचन अनन्त उघाडिया, अनंत दिखावणहार..

   अर्थात् गुरु अनंत उपकार करने वाला होता है, उसमें अनंत दृष्टि प्रदान करने की शक्ति होती है और वह उस अनंत एवं असीम ब्रहा का साक्षात्कार कराने में समर्थ होता है.
  सद्गुरु अपने शिष्य को ज्ञान का ऐसा दीपक प्रदान करता है, जिससे वह ठीक मार्ग पर चल सके और वेद-विहित एवं लौकिक मार्ग का आँख बन्द करके अनुसरण न करे.

  कबीर ने केवल सतगुरु की ही सेवा करने के लिए आग्रह किया है और इस गुरु सेवा को भक्ति का एक अनिवार्य साधन घोषित करते हुए गुरु - सेवा से भक्ति कमाई कहकर कबीर ने स्वयं गुरु- सेवा के द्वारा ही भगवद्भक्ति की प्राप्ति की ओर संकेत किया है.

   कबीर ने बार-बार कहा है कि सद्गुरु भक्ति ले आयों हैं. कबीर अपने जीवन में गुरु को सबसे बडा, महत्वपूर्ण अनुपम स्थान दिया है. कबीर कहते हैं कि-

            कबीर बादल प्रेम का, हम परि बरस्या आइ.
            अंतरि भीगीं आत्मा, हरी भई बनराइ..
            पूरेसूँ परचा भया, सब दुख मेल्या दूरि,
            निर्मल कीन्हीं आतमा, तायैं सदा हजूरि..

            धन्य हैं वे गुरु वे सच मुच उस भ्रमरी के समान है जो निरन्तर ध्यान का अभ्यास कराकर कीट को भी भ्रमरी अर्थात् तितली बना देती है. कीडा भ्रमरी हो गया, नई पाँखें फूट आई, नया रंग छा गया, नई शक्ति स्फुरित हुई. उन्होंने जाति नहीं देखी, कुल नहीं विचारा अपने-आप में मिला लिया. नाले का पानी गंगा में जाकर गंगा हो जाता है. कबीर गुरु में मिलकर तद्रूप हो गए. धन्य हो गुरु, तुमने चंचल मन को पंगु बना दिया, तत्व में तत्वातीत को दिखा दिया, बन्धन से निर्बन्ध किया. अगम्य तक गति कर दी. केवल एक ही प्रेम का प्रसंग तुमने सिखाया, पर कैसा अचरज है कि इस प्रेममेघ की वर्षा में ही यह सारा शरीर भीग गया. इस प्रकार कबीर ने गुंरु को ही सबसे प्रमुख एवं मुख्य स्थान दिया है.     
 


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