डॉ. विनोद दीक्षित की कविताओं का इंद्रधनुष : ‘आकाश के सात रंग’




   डॉ. विनोद दीक्षित की कविताओं का इंद्रधनुष :


आकाश के सात रंग

प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू

पूर्णकुंम्भ – साहित्यिक मासिक पत्रिका 
     
जून – 2002

              आज भारत देश में सब लोगों के मन यह विचार भीषण आँधी के रुप में बैठा हुआ है कि देश में कुछ भी होते रहने पर भी हम किस प्रकार अमीर बन सकते हैं. लेकिन राष्ट्रीयता की बात तो भूल गए हैं. विशेषकर सृजनरत साहित्यकार ही कम-से-कम इसके बारे में सोच रहे हैं. लेकिन साहित्यकार का कर्त्तव्य देश के प्रति सद्भाव, श्रद्धा और प्रेम को जगाना है. यह भाव शत प्रतिशत जनता तक पहुँचाने की शक्ति सिर्फ साहित्यकार के भीतर ही आधिक रहती है. पहला कार्य देश की परिस्थितियों से पूर्ण रुप से जनता या पाठक को अवगत कराना है. यह कार्य कभी-कभी उपन्यास, नाटक, कहानी तथा कविता के माध्यम से किया जा सकता है. प्रस्तुत यंत्र युग में अधिक समय पुस्तक को पकडकर बैठना तो असंभव-सा हो गया है. यदि प्रस्तुतीकरण छोटी-छोटी कविताओं के माध्यम से है, तो यह सुविधा पाठक को मिलती है कि तीन-चार मिनटों में एक कविता समाप्त है. इसीलिए प्रस्तुत युग लघु कविताओं का युग-सा लगता है. डाँ. विनोद दीक्षित ने अपनी लघु कविताओं को  आकाश के सातरंग नामक संकलन द्वारा हिन्दी कविता क्षेत्र को एक नये आभूषण के रुप में दिया है. 

            आकाश के सांतरंग माने इन्द्रधनुष ही है. जिस प्रकार इंद्रधनुष में सातरंग हैं. इसी प्रकार प्रस्तुत कविता संग्रह में राष्ट्र और जीवन से संबंधित अनेक कविताओं को संकलित किया गया है. इस में कुल 65 (पैंसठ) कविताएँ हैं. प्रथम कविता बलिदान मे कवि ने अमर शहीदों को याद किया है. यह कविता अत्यन्त प्रेरणादायक है. मेरा देश कविता में वर्तमान भारत का यथार्थ चित्रण हुआ है.

भीम पेटु बना
तोड रहा है हलवाई की दुकान-और अर्जुन
धृतराष्ट्र की वसीयत के लिए
उलझ पड़ा दुर्योधन से.

यहाँ महाभारत के पात्रों के माध्यम से कवि ने वर्तमान काल के भारतीय गाँवों का यथार्थ चित्रण किया है. नेतृत्व की होड कविता में भारतीय नेताओं के बारे में अत्यन्त व्यंग्यपूर्वक परिचय दिया है.
मेरे देश के भाल का
मुकुट
नोंच रहे हैं
ओर
कर रहे हैं
ताण्डव मृत्यु
का
देव भूमि पर
जिनको गले लगाया
वे ही
भोंक रहे हैं खंजर
अपनी
रक्त पिपासा की
शान्ति के लिए
में कवि वर्तमान कश्मीर का आँखों देखा हाल का चित्रण करता है. इस कविता के द्वारा भारत माता के स्वर्ण मुकुट कश्मीर की प्रस्तुत परिस्थितियों का चित्रण अपने ढंग से प्रभावपूर्ण शैली में प्रस्तुत किया है.

नीलकंठ!
तुमने सभी को
अपना सा बना दिया
तुमने पिया था
गरल
मानवता को बचाने
और.....आज
पीते हैं
गरिबी के विष को
अपना जीवन
धकेलने के लिए-

मिथकीय आधार से आधुनिक मानव की स्वार्थपरता का सटीक वर्णन इस कविता में मिलता है. भगवान शंकर ने लोक-कल्याण हेतु जहर को अपने कंठ में रखा था जबकि आज का स्वार्थी मानव अपने लिए दूसरों के खून को पी रहा है. इस कविता में भारत वासियों की बढती हुई स्वार्थ लिप्सा की ओर इशारा किया गया है. कुछ दिनों के बाद भारत देश का नाम लल्लूदेश या कोई देश बनेगा. सदियों से रहने वाले पुराने लोग अपने देश में ही पराये लोग बनते जा रहा है. इसका कारण है कि लोग राष्ट्रीयता के स्थान पर अपने व्यष्टि स्वार्थ को ही अधिक प्रधानता दे रहे हैं. दूरदर्शी कवि ने इस कविता में व्यक्किगत स्वार्थ के बारे में मिथकीय तुलना से और अधिक प्रभाविष्णुता लायी है.
शहर की सडकों को
नापता
अपने रिक्षे को
पैडिल मारता घूमता है
सुबह से आधी रात तक

बेबस जिन्दगी कविता में रिक्शा चलानेवाले की दयनीय गाथा का आँखों देखा हाल वर्णन किया है.
अंत में थके हारे बोतल को खोल
मिटाने अपनी
दिन भर की यकान
एक ही घूँट में पी गया
और
निढ़ाल हो
उस गंदली-सी जगह पर
पसर गया
और यूँही अपनी
उम्र काटता रहा
बेबसी के आलम में.

शराब के दुष्परिणामों का वर्णन किया है. प्रस्तुत भारत में अधिकांश लोग रात में ही नहीं हर पल शराब के अधीन ही रहते हैं, ऐसा कहने में कोई अत्युक्ति नहीं है. धनवान तो अलग है लेकिन शराब साधारण दीन हीन निर्धन लोगों को बुरी तरह बर्बाद करती है. शराब पीकर थकान को ही नहीं अपने स्वास्थ्य को भी मिटाते हैं. इस विषय को कविता में सुंदर उदाहरण के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है.
धर्म निरपेक्षता का अर्थ
चुनावी नारों के बीच
दबकर रह गया
और
चुनाव सापेक्ष बन गया.

भारत में राजनीतिज्ञ अपने लाभ के लिए बार-बार प्रयोग करते हैंधर्म निरपेक्ष शब्द. खेद की बात यह है कि वास्तव में आज इस शब्द का अर्थ तो संकुचित हो गया और इसे जनता को धोखा देने का एक साधन मात्र बना दिया गया है. इस विषय पर धर्म निरपेक्षता शीर्षक कविता में संक्षेप में विस्तृत भावार्थ व्यंजित करने में कवि को सफलता प्राप्त हुई है’.
पास के शहर में
बादलों ने
प्रेम के झरने खोल दिये
पर
न जाने क्यों
रुठा हुआ है हमारे गाँव से वह
क्या बिगाडा था मेरे गाँव ने उसका

इस कविता में भारतीय गाँवों का तथा वर्षाभाव के कारण सूखे हुए गाँवों का वर्णन सटीक ढंग से प्रस्तुत किया है.बादल तुम आ जाओ कहकर भारतीय किसान को याद किया गया है.
अब मेरा गाँव
ऐसा तो नहीं रहा
मील की चिमनियाँ
उगलती हैं आग
चेतना में दब गई है कुण्ठित
आस्था की बाँसुरी के स्वर
बौखला गये
अनस्तित्व के घाव से

भूत काल से वर्तमान की तुलना के माध्यम से गाँव के यथार्थ का चित्रण करते हुएमेरा गाँव कहाँ है?’ पूछकर कविता पाठक की चेतना को झकझेरती है.

       आकाश के सातरंग की काफी कविताओं के माध्यम से कवि ने राष्ट्र के प्रति प्रेम तथा समाज को पथभ्रष्ट करनेवाली विभिन्न आतंककारी शक्तियों के प्रति अपने आक्रोश को व्यक्त किया है. संकलन के नामकरण आकाश के सातरंग को शतप्रतिशत समुचित कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है. कवि विनोद दीक्षित अभिनंदनीय है. इस प्रकार के संकलनों का सह्रदय हिन्दी पाठकगण सदा स्वागत करते हैं, इस संकलन का भी वैसा ही स्वागत होगा, इस में संदेह नहीं.
   
समीक्षित कृति : आकाश के सात रंग (कविता- संग्रह)
कवि         : डॉ. विनोद दीक्षित.
प्रकाशक      : व्यास बालाबक्स शोध संस्थान, व्यास भवन, नाहरगढ़ रोड, जयपुर, (राजस्थान).
प्रथम संस्करण  : सन् 1994    

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