एक पुरुष चार भूमिकाएँ : नाटकीय संवेदना के साथ रंग-प्रयोग का एकात्म्य (आधे-अधूरे)




एक पुरुष चार भूमिकाएँ :  नाटकीय संवेदना के साथ रंग-प्रयोग का एकात्म्य (आधे-अधूरे)

प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू

पूर्णकुंभ – साहित्यिक मासिक पत्रिका 
                                
जनवरी – 2002 
           
            रंग-शिल्प की दृष्टि से मोहन राकेश के नाटकों में अनेक प्रयोग हुए हैं. इस दृष्टि से आधे-अधूरे नाटक का उपस्थापन खण्ड नाटककार के प्रयोगवादी स्थान को तो संकेतित करता ही है साथ ही नाटक विधा को नये आयाम का दिशा निर्देश भी करता है. परंपरा का जिक्र करना मैं यहाँ आवश्यक समझता हूँ. हमारे नाटकों को एक रुढ़ परम्परा यह रही है कि उनमें नंदी वाक्य अथवा सूत्रधार कथन मंगलाचरण एवं भरत वाक्य का समावेश आत्याँतिक एवं अनिवार्य होता था. किन्तु इधर कुछ वर्षों से यह रुढ़ परम्परा टूटती आयी है और अब मोहन राकेश के इस नये प्रयोग ने उस भव्यता एवं आधुनिकता के मार्ग को और प्रशस्त किया है. नाटककार की यह दिमागी उपज की भाव-भंगिमा एवं वस्त्र परिवर्तन के कारण एक ही व्यक्ति से चार पुरुषों की भूमिकाएँ अभिनीत करवायी जाएं, निस्संदेह आधुनिक हिन्दी रंगमंच को और अधिक सुदृढ बनाने के निमित्त अत्यन्त मूल्यवान एवं उपयोगी सिद्ध होगी. आधे-अधूरे में एक पुरुष द्वारा चार पुरुषों को भूमिका निभाने का प्रयोग प्रेक्षक और अभिनेता को निकट लाता है. का.सू.वा. काले सूटवाला आदमी जो कि पुरुष एक, पुरुष दो, पुरुष तीन तथा पुरुष चार को भूमिकाओं में भी है. उम्र लगभग उनचास-पचास चेहरे की शिष्टता में एक व्यंग्य. पुरुष एक के रुप में वेशाँतरः पतलून-कमीज. जिंदगी से अपनी लडाई हार चुकने की छटपटाहट लिया. पुरुष दो के रुप मेः पतलून और बंद गले का कोट. अपने आप से संतुष्ट फिर भी आशंकित. पुरुष तीन के रुप मेः पतलून-टीशर्ट. हाथ में सिगरेट का डिब्बा. लगातार सिगरेट पीता. अपनी सुविधा के लिए जीने को दर्शन पूरे हाव-भाव में. पुरुष चार के रुप में : पतलून के साथ पुरानी काट का लंबा कोट. चेहरे बुजुर्ग होने का खासा अहसास काइयॉपना (1) ब्रेखंत के निरपेक्षता सिद्धंत (एलिमनेशन) के आधार पर यह प्रयोग प्रेक्षक की तन्मयता को भंग कर इस बात का संकेत देता है कि वह जीवन की प्रतिरुपता को नहीं नाटक को देख रहा है. यह स्थिति उसे वस्तु स्थिति को पहचानने और उसका विश्लेषण करने का भी अवसर प्रदान करती हैं. कुछ लोगों ने इस प्रयोग को रंगमंच की दृष्टि से अनुपयोगी और अव्यावहारिक बताया है, पर ओम शिवपुरी ने एक ही साथ चार भूमिकाएँ अदा करके वैविध्य को सफलतापूर्वक निभाया है. चार अलग-अलग व्यक्तियों का प्रयोग कर उन्होंने भी यह अनुभव किया है कि एक ही पुरुष द्वारा चार भूमिकाएँ अदा कराना अधिक कलात्मक अनुभव देता है. पर यह अनुभव जागरुक रंग-कल्पना की मांग करता है. हम तो इतना ही कहना है कि मोहन राकेश ने एक ही व्यक्ति से चार पुरुषों की भूमिका अभिनीत करवाने का जो प्रयास इस नाटक में किया है वह एक क्राँतिकारी कदम है और साहित्यिक जडता तथा नाटक और रंगमंच की खाई को पाटने का एक सशक्त सक्षम प्रयास है.
 रंग-शिल्प की दृष्टि से मोहन राकेश के नाटकों में आधे-अधूरे दो कारणों से विशेष महत्वपूर्ण हैं एक तो इसलिए कि इस में ऐतिहासिकता की आड लिए बिना आधुनिक मानव की यातनापूर्ण नियति को परिवार जैसी सामाजिक संस्था के संदर्भ में मनोवैज्ञानिक आधार पर अंकित करने की चेष्टा की गयी है, दूसरे इसलिए कि यह नाटक प्रयोगशील रंग-चेतना से संपन्न है. चार पुरुषों की भूमिका में बार-बार एक ही अभिनेता मंच पर उतारा गया है. नाटक के आरम्भ और अंत में मोहन राकेश ने संकेत किया है कि यह केवल शिल्प-प्रयोग नहीं है, इसके मूल में इस नाटक का आधारभूत विचार निहित है. काले सूट वालों की भूमिका की सार्थकता यही है कि वह नाटक की केंद्रिय संवेदना के साथ इस प्रयोग के एकात्मय पर, प्रकाश डालता है. उसका कहना हैं आप शायद सोचते हों कि मौं इस नाटक में कोई एक निश्चित इकाई हूँ..... परंतु मैं अपने संबंध में निश्चित रुप से कुछ भी नहीं कह सकता, उसी तरह जैसे इस नाटक के संबंध में कुछ नहीं कह सकता क्योंकि यह नाटक भी अपने में मेरी ही तरह अनिश्चित है. (2) ऐसा इसलिए कि मैं इस में हूँ और मेरे होने से ही सब-कुछ इस में निर्धारित या अनिर्धारित है. (3) इस अनिश्चितता का अभिप्राय यह प्रतीत होता है कि यह नाटक किसी खास आदमी की कहानी न होकर किसी भी आदमी की कहानी हो सकता है. इस लिए काले सूट वाला पहले ही बतला देता है कि वह दर्शकों के सामने किसी एक व्यक्ति के रुप में नहीं, बल्कि अनेक व्यक्तियों के रुप में रह-रह कर प्रकट होता रहेगा. नाटक के आरम्भ में कालेसूटवाला अपने आपको एक अनजाने आम आदमी के रुप में ही पेश करता है, सडक के फुटपाथ पर चलते आप अचानक जिस आदमी से टकरा जाते है, वह आदमी मैं हूँ. (4) लेकिन उसका स्रष्टा स्वयं अपने भीतर इस संबंध में आश्वस्त नहीं जान पडता कि भिन्न-भिन्न मुखौटों के नीचे वह वास्तव में एक ही चेहरा पेश कर रहा है, इसलिए उसने एक दूसरे तरीके से भी अपने पात्र की अनिश्चितता की व्याख्या की है. प्रत्येक मनुष्य में अंशतः अमूर्त्त मनुष्य ही व्यक्त होता है, हर मनुष्य से मानव सामान्य का ही कोई न कोई अंश प्रकट होता है. काले सूट वाले का कहना है, विभजित होकर मैं किसी-न-किसी अंश में आप में से हर एक व्यक्ति हूँ.(5) इस अर्थ में प्रत्येक मनुष्य अंशतः अमूर्त मानव की प्रतिनिधि के रुप में अभिव्यक्ति है, टकराने के क्षण में आप मेरे लिए वही होता है जो मैं आपके लिए होता हूँ. इसलिए जहाँ इस समय मैं खडा हूँ वहाँ मेरी जगह आप भी हो सकते थे. दो टकराने वाले व्यक्ति होने के नाते आप में और मुझ में बहुत बडी समानता है. (6) समानता यही है कि दोनों टकराने वाले एक दुसरे के लिए व्यक्तित्वहीन कोई आदमी भी रह जाते हैं क्यों कि, राह चलते टकरा जाने की स्थिति में आप सिर्फ घूर कर मुझे देख लेते हैं, इसके अलावा मुझ से कोई मतलब नहीं रखते कि मैं कहाँ रहता हूँ, क्या काम करता हूँ, किस-किस से मिलता हूँ और किन-किन परिस्थितियों में जीता हूँ. आप मतलब नहीं रखते क्योंकि मैं भी आप से मतलब नहीं रखता. (7) काले सूटवाले के माध्यम से मोहन राकेश ने इस नाटक को आम आदमी या किसी भी आदमी की कहानी बतलाया है इसलिए चारों पुरुष ही नहीं, स्त्री भी उसी अमूर्त मनुष्य की परिकल्पना का अंग होनी चाहिए. मोहन राकेश ने इस ओर संकेत करते हुए काले सूट वाले से कहलवाया है. इस परिवार की स्त्री के स्थान पर कोई दूसरी स्त्री किसी दूसरी तरह से मुझे झेलती. या वह मेरी भूमिका ले लेती और मैं उसकी भूमिका लेकर उसे झेलता. (8) स्पष्ट है कि स्त्री या पुरुष होने से कोई फर्क नहीं पडता. मुख्य बात है झेलने की और यह झेलना ही मानव-नियति है, स्त्री की भी और पुरुष की भी. दोनों ओर झेलने की विवशता है, इसलिए झेलने से मुक्ति की चाह भी दोनों ओर है. जुनेजा महेंद्रनाथ की मुक्ति की माँग स्त्री से करता है. तुम किसी तरह छुटकारा नहीं दे सकती उस आदमी को. (9) इस पर स्त्री उत्तर देती छुटकारा! मैं! उन्हें? कितनी उल्टी बात है? (10) 
आधे-अधुरे नाटक में मोहन राकेश ने पात्रों के नामों का प्रयोग न करके इन्हें कालेसूटवाला आदमी पुरुष एक, पुरुष दो, पुरुष तीन, पुरुष चार, स्त्री, बडी लडकी, छोटी लडकी और लडका कहा है. इसके द्वारा भी नाटककार यह प्रदर्शित करना चाहता है कि आधुनिक समाज में मनुष्य की निजता और पहचान खोती जा रही है. कालेसूट वाला आदमी पुरुष एक, पुरुष दो, तीन, चार की भूमिका में उतरता है. यहाँ एक पात्र का कई भूमिका में उतरना और नाटककार द्वारा व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के स्थान पर जातिवाचक संज्ञाओं का प्रयोग प्रभावोत्पादक ढंग से किया गया है.


संदर्भ :

1.       मोहन राकेश : आधे-अधूरे पृ.सं. 9
2.       मोहन राकेश : आधे-अधूरे पृ.सं. 11
3.       मोहन राकेश : आधे-अधूरे पृ.सं. 12
4.       मोहन राकेश : आधे-अधूरे पृ.सं. 11-12
5.       मोहन राकेश : आधे-अधूरे पृ.सं. 12
6.       मोहन राकेश : आधे-अधूरे पृ.सं. 12
7.       मोहन राकेश : आधे-अधूरे पृ.सं. 12
8.       मोहन राकेश : आधे-अधूरे पृ.सं. 12
9.       मोहन राकेश : आधे-अधूरे पृ.सं. 83
10.    मोहन राकेश : आधे-अधूरे पृ.सं. 83



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