राष्ट्रीय भावना की उन्नति में साहित्य का योगदान
राष्ट्रीय भावना की उन्नति में साहित्य का योगदान
प्रो.
एस.वी.एस.एस. नारायण राजू
पूर्णकुंभ – साहित्यिक मासिक पत्रिका
नवंबर – 2001
एक जन समूह को सूत्र में बाँधे रहने वाला तंतु
रागात्मक ही है. जब जन समूह राष्ट्र के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख मानने की भावना
से प्रेरित होता है तभी राष्ट्रीय भावना का सामूहिक रुप बनता है. बाह्य आचार
वितारों की भिन्नता के होते हुए भी राष्ट्रीय भावना जन-समूह को एकता के सूत्र में
बाँधे रखती है इसी को भारत के प्रथम प्रधान मंत्री श्री जवहरलाल नेहरु जी ने
राष्ट्र की भावात्मक एकता का नाम दिया था यह भावना वस्तुतः अंतशचेतना के रुप में
प्रवाहित रहती है. इस अंतश्चेतना का संबंध मनुष्य की समूह में रहने की प्रवृत्ति
से जोडा जा सकता है. राष्ट्रीय भावना का व्यावहारिक पक्ष राष्ट्र के प्रति त्याग,
उत्सर्ग और बलिदान की भावना में प्रकट होता है. राष्ट्र प्रेमी राष्ट्र के रक्षण
या कल्याण के लिए प्राणोत्सर्ग करने के लिए भी तत्पर रहता है. राष्ट्र की शक्ति
इसी भावना की प्रबलता पर आधारित होती है. जहाँ इस भावना का एक पक्ष एक विशिष्ट
भू-भाग के प्रति लगाव में प्रकट होता है वहाँ दूसरी ओर राष्ट्र विरोधी शक्तियों के
संघर्ष करने की प्रवृत्ति भी इसमें रहती है.
साहित्य सृजन में राष्ट्र एवं राष्ट्रीय
भावना का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है. यदि कहा जाए कि साहित्य सदा राष्ट्र की गोद
में पल्लवित एवं पुष्पित होता रहा है तो कोई अत्युक्ति न होगी. साहित्य राष्ट्रीय
छत्र-छाया में पलता आया है. राष्ट्रगत विशिष्टताओं ने साहित्य सृजन में महत्वपूर्ण
प्रेरणा एवं सबल पृष्ठभूमि प्रदान की है. इसके साथ ही साहित्य भी राष्ट्र के उन्नयन
एवं विकास में सहायक होते हुए नवीन दिशा दर्शन देकर उसे नवीन पथ पर अग्रसर करता
रहा है. यदि कहा जाए कि राष्ट्र साहित्य का निर्माता है, तो यह कहा जा सकता है कि
साहित्य भी अपने क्रान्तिपूर्ण विचारों द्वारा राष्ट्र के नवनिर्माण में सहायक हो
सकता है. साहित्य राष्ट्र पर आधारित है और राष्ट्र साहित्य पर.
स्वातंत्र्योन्तर वर्गगत या संकुचित राजनीति
ने द्रविड जाति और आर्यजाति के पृथकत्व की आवाज उठाई किन्तु इतिहास की शक्तियाँ
इतनी प्रबल रहीं कि यह आवाज बल ग्रहण नहीं कर पायी. परंपरागत जातीय वैविध्य में
मिलनेवाली एकता की प्रतिध्वनि रवींद्रनाथ टैगोर की कल्पना में मूर्तमान हो उठी
हे था आर्य, हे था अनार्य, हे था द्रवडि चीन,
शक-हूण-दल-पठान मोगल, एक दे हो लीन.
भारत बहुत से धमों जातियों और भाषाओं की देश
है. इन सबको एकता के सूत्र में बंध कर ही राष्ट्रीय उद्देश्य की प्राप्ति करती थी.
एक ओर समाज सुधारकों ने एकता का प्रयत्न किया तो दूसरी ओर राष्ट्रीय नेताओं ने
राष्ट्रीय संघर्ष की सफलता के लिए एकता को आवश्यक माना. साहित्य में भी जातीय एकता
की प्रेरणा भर गयी. प्रेमघन जी ने जातीय विभेदों से ऊपर उठकर राष्ट्रीय कार्यक्रम
में भाग लेने का संदेश दिया-
उठो आर्य सन्तान सकल मिलि, बस न विलंब लगाओं.
द्विवेदी जी ने भारत में प्रचलित प्रमुख धर्मों
का उल्लेख करते हुए कहा कि सब में भाई-भाई की तरह प्रेम होना चाहिए और यह भाई चारा
राष्ट्रीय भावना का ही एक भाग है.
हिन्दू मुसलमान ईसाई, यश गावें सब भाई-भाई
सब के सब तेरे शैदाई, फूलो, फूलो स्वदेश
इन्हीं के साथ रायदेवी
प्रसाद पूर्ण ने स्वर मिलाया
ईसावादी फारसी सिख यहूदी लोग
मुसलमान हिन्दी हिन्दी यहाँ है सबका संयोगा.
यही बात रुपनारायण
पाण्डे ने भी कही है.
जैन बौध्द, फारसी. यहूदी मुसलमान सिख ईसाई
कोटि कंठ से मिलकर कह दो हम सब है भाई भाई.
राष्ट्रीय भावना की उन्नति में साहित्य की देन
अनुपम है. चारण कवियों के प्रबंधकाव्य से लेकर वर्तमान कविताओं तक का महत्व
राष्ट्रीय भावना के कारण स्थायी हो गया हैं. राष्ट्रीय भावना से ओत प्रोत साहित्य
के माध्यम से अपने गौरव का ज्ञान होता है तथा अपनी संस्कृति के प्रति श्रध्दा की
भावना का जागरण होता है. जनता में उत्साह जगाने का काम राष्ट्रीय कविताएँ
सफलतापूर्वक करता है. राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर ने अपने काव्यों में
सर्वप्रथम सामयिक जीवन की चुनौती को न
केवल स्वीकार किया बल्कि उसक एक प्रभावशाली उत्तर देने का भी प्रयास किया. उनकी
कविताओं में क्रांति का स्वर यथास्थान सुनाई पडता है विशेष रुप से हुँकार की आमुख
कविता में. हुँकार की आमुख कविता का दिनकर की राष्ट्रीय विचारधारा के अत्यन्त
महत्वपूर्ण स्थान है. इस कविता से कवि के सम्पूर्ण काव्य-विकास का स्पष्ट संकेत
मिल जाता है. वर्तमान के क्षण जिस समय कवि को बुलाने केलिए आये उस समय वह
शाश्वत-सनातन आदर्शों में खोया हुआ था अपने आप में मग्न था, उसे भारत पर छिडे हुए
भयानक युध्द का ज्ञान भी नहीं था. वर्तमान ने ही उसे क्रान्ति के गीत गाने और अपना
बलिदान करने की ओर प्रेरित किया.
समय-ढूह की ओर सिसकते मेरे गीत विकल धाये,
आज खोजते उन्हें बुलाने वर्तमान के पल आये?
रण की घडी जलन की बेला, रुधिर-पंक में गान करो,
अपना साकल धरो कुण्ड में, कुछ तुम भी बलिदान करो.
दिनकर
के मन में प्रश्न उठता है – जन्म भूमि के लिए किया गया बलिदान क्या अनर्गल था? कारण वह देश की रक्तपिपासु परतंत्रता को भूला नहीं है.
वस्तुतः क्रान्ति अपने निजी परिवेश में भारत-भूमि तक आ अवश्य गयी है, लेकिन भरत
अपनी शन्तिवादी क्रान्ति की योजना में संलग्न है. भारतीय लाल क्रान्ति का आह्वान
कवि अपने निजी प्रतीकों की सज्जा के साथ करता है.
हाँ, भारत की लाल भवानी
जवा-कुसुम के हारोंवाली,
शिवा, रक्त-रोहित-वसना,
कबरी में लाल सितारों वाली.
कर में लिए त्रिशूल, कमंडल
दिव्य-शोभिनी, सुरसरि-स्नाता,
राजनीति की अचल स्वामिनी,
साम्य-धर्म-ध्वज धर की माता.
देश-भक्त, राष्ट्रीय कवि को देश के अणु-अणु से
प्रेम होता है. देश, काल, समाज का चित्र प्रस्तुत करते समय वह वहाँ की सभ्यता और
संस्कृति को नहीं भूलता वह यथास्थान उसके भी चित्रण का प्रयास करता है. राष्ट्र
कवि रामधारी सिंह दिनकर के मन में भारत के प्रति, भारतीयता के प्रति, उसके धर्म,
संस्कृति, सभ्यता के प्रति गहरी श्रध्दा अटूट विश्वास है इसीलिए उनके काव्यों में
संस्कृति को पर्याप्त स्थान मिला है. स्पष्ट शब्दों में इन्हें भारतीय संस्कृति का
आख्यता, भारतीय आदशों का गायक कहा जा सकता है.
राष्ट्रीय भावना अन्तर्धारा के रुप में राष्ट्रीय भावना अन्तर्धारा के रुप
में राष्ट्र की शाँतिपूर्ण स्थितियों में भी प्रवाहित रहती है लेकिन जब राष्ट्र की
प्रगति को बाधित करनेवाली और राष्ट्र के अस्तित्व को संकट में डालनेवाली
परिस्थितयाँ उत्पन्न होती हैं तब यह भावना उद्विग्न और प्रखर हो उठती है. जब यह
भावना उद्विग्न होकर राष्ट्रीय जन के कर्तृत्व का रुप ग्रहण करती है तब राष्ट्रीय
जागरण राष्ट्रीय पुनरुथ्तान आदि की स्थितियाँ मानी जाती हैं. जो एकता अन्तर्भुक्त
होती है वह इस समय में बाहरी भेदभाव को भी डुबोने लग जाती है. यहीं सामूहिक त्याग
और बलिदान की वे गाथाएँ जन्म लेती हैं जो राष्ट्रीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में
अंकित होती हैं. आर्थिक शोषण के कारण परतन्त्र भारत की कमर टूट ही चुकी थी. इसके
अतिरिक्त दैवी अर्थ संकट भी उपस्थिति हो रहे थे. दुर्भिक्षा की यातना से जन समूह
संत्रस्थ था.
महात्मा गाँधी जी की राष्ट्रीय भावना भगवान गौतम बुध्द की सेवा भाव से भी
अनुप्राणित रही. देश के पतितों और दीन, हीनों की सेवा करना भी राष्ट्रीय कार्यक्रम
है. गाँधी वादी कवियों ने सेवा भाव को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया. कवियों ने
भारत भूमि को माता का प्रतीकत्व प्रदान किया है. इसका कारण यह है कि माता के प्रति
हमारी भावनाएँ अधिक नैसर्गिक और सशक्त होती है. भारत माता राष्ट्रीय प्रतीक के रुप
में वंदेमातरम गीत में अपनी समग्र शक्ति के साथ प्रतिष्ठित है. हम सब भारत माता की
ही सन्तान हैं जो करोडों कंठों से उनका यशगान और जयजयकार कर रहे हैं. अनेक कवि
वंदेमातरम की भावना में अपना स्वर मिला रहे हैं. जिसकी सन्तान इतनी बलिष्ठ हो उस
माता को अबला कैसे कहा जा सकता है, महावीर प्रसाद द्विवेदी भारत माता को देवी के
रुप में कल्पित करके कह उठते हैं-
तीस कोटी लोगों की कल कल सुनी जहाँ पर जाती है,
उसकी दुगुन खड्गधारा की धुति विकास जहाँ पाती है,
तिस पर भी ‘तू अबला है’, यह बात व्यथा पहुँचाती है
हे तारिनि है बाहुबल धारिनि!
रिपु तू काट गिराती है, ‘वंदेमातरम’
सत्यनारायण कवि रत्न भारत माता के सभी गुणों का स्मरण करते हुए वंदेमातरम
का गीत गाते हैं-
सब मिली पूजित भारत भाई
भुर्वि विश्रुत सद्वीर प्रसूता हृदय सुख दाई.
क्यों न जगत अ, वीर-केसरी बैठे अस अलसाई..
जपहु मुदित मन सत्य मंत्र वंदेमातरम सुहाई..
भारत
माता की वंदना के संदर्भ में रायदेवी प्रसाद पूर्ण ने भी वंदमातरम का स्वर इस
प्रकार सुनाया है.
वंदे-वंदेमातरम सदा पूर्ण बिनयेन
श्री देवी परिवंदिता या निज पुत्र जानेना
***
वंदे जनहित करी मातरम वंदे – वंदे.
इस
प्रकार अनेक कवि अपनी कविताओं के माध्यम से जनता में राष्ट्रीय भावना को जागृत
किया है. राष्ट्रीय सेनानियों को उत्तेजित करने के लिए जहाँ भारतीय अतीत को मूर्तमान
किया गया वहाँ भारतीय राष्ट्रीयता से संबंधित वीरों की गाथाओं का भी प्रणयन हुआ.
कवि अतितोन्मुख होकर देश भक्ति के आलंबन, स्वदेश को दिव्य विभूतियों के संदर्भ में
रखकर भी उत्कर्ष प्रदान करता है. भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ऐतिहासिक विभूतियों को इस
प्रकार स्मरण दिलाया है-
कहाँ गये विक्रम भोज, राम, बलि, कर्ण, युधिष्ठर
चंद्रगुप्त चाणक्य कहाँ नासे करिकैयिर.
रामधारी
सिंह निदकर भी भारत भूमि के आलोक स्तंभों के संबंध में व्यंजनापूर्ण प्रश्न किए
हैं-
तू पूछ अवध से, राम कहाँ.
वृन्दा बोलो, घनश्याम कहाँ.
ओ मगध कहाँ मेरे अशोक,
वह चंद्र गुत्प बलधाम कहाँ,
पैरों पर ही है पडी हुई
मिथिला भिखारिनी सुकुमारी
तू पूछ कहाँ इसने कोई
अपनी अनंत निधियाँ सारी.
इस
प्रकार राष्ट्रीय भावना जगोवाले अनेक उदाहरण दे सकते हैं. शक्तिशाली शासक
राष्ट्रीय भावना को कुचलने के लिए तत्पर होता है. दूसरी ओर राष्ट्रीय भावना
विभिन्न प्रकार की भावात्मक और वैचारिक शक्तियों को संगृहीत करके दुर्दमनीय बनती
जाती है. दमन चक्र का सामना करने के लिए कितने बलिदान आवश्यक हो जाते हैं.
राष्ट्रीय साहित्यकार इस संघर्ष में राष्ट्रीय पक्ष को बलिष्ठ और विजयी बनाने के
लिए देशवासियों में और बलिदान की भावना जागृत करता है.
साहित्य भी अपने जीवन दर्शन द्वारा राष्ट्रीय भावना की उन्नति का दिशा
निर्देशन करता है. राष्ट्रीय साहित्य में उस राष्ट्र की सभी विशिष्टताएँ, परिस्थितियाँ,
परिवर्तन सुस्पष्ट एवं साम्यक रुप से दृष्टिगत हो सकते हैं. राष्ट्रीय साहित्य वर्ग
विशेष की भावात्मक मानसिक साधना का राष्ट्रगत संस्कृति के आधार पर उद्वेलनपूर्ण
अभिव्यक्तिकरण का परिणाम है और अन्तर्राष्ट्रीय साहित्य मानव मात्र की अन्तश्चेतना
को स्पर्श करके जनमानस में समष्टि एवं विश्व जनीनता पर झंकृत उत्पन्न करके होने
वाली अभिव्यक्ति का परिणाम है. वास्तव में श्रेष्ठ साहित्य वही है जो व्यष्टि से
समिष्टि की ओर उन्मुख होता हुआ देश काल से परे सर्व जनीन भावना से युक्त होकर सभी
सीमाओं से मुक्त होकर राष्ट्र के हेतु सत्यं शिवं सुन्दरं के मूल्यों का मार्ग
दर्शन कर सके. राष्ट्रीय भावना से युक्त साहित्य में उस राष्ट्र के आरोह अवरोह,
उत्थान-पतन, परिवर्तन, विभिन्न प्रभाव, विभिन्न परिस्थितियाँ लक्षित होती है.
समय-समय पर साहित्य के विभिन्न विधाओं के माध्यम से जनता में चेतना लाकर राष्ट्रीय
एकता और अखंडता की भावना बढ़ाने में साहित्य का योगदान अनुपम है. साहित्य के माध्यम
से ही राष्ट्रीय भावना की उन्नति तीव्र गति से होती है कहने में कोई अत्युक्ति
नहीं है.
विशेषकर हिंदी साहित्य इस पथ पर आगे है. राष्ट्रीय भावना की उन्नति में
साहित्य का योगदान अत्यन्त सराहनीय है.