मनोरंजनपूर्ण, व्यंग्यात्मक, संयत एवं रोचक संवाद : आधे – अधूरे




मनोरंजनपूर्ण, व्यंग्यात्मक, संयत एवं रोचक संवाद : आधे – अधूरे

प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू

स्रवंति – द्विभाषा मासिक पत्रिका 
                       
आगस्त – 2005 

                  आधे – अधूरे नाटक में प्रयुक्त संवादों में पर्याप्त विविधता पायी जाती है. संवाद संक्षिप्त भी हैं और दीर्घ भी हैं. व्यंग्यात्मक और संयत संवादों का प्रयोग भी किया गया है. मनोरंजनपूर्णता इस नाटक के संवादों में कहीं-कहीं द्रष्टव्य है - नाटक आगे बढते समय दीर्घ या लंबे-लंबे संवादों के बीच में कभी-कभी मनोरंजन की भी आवश्यकता है. इसलिए नाटककार ने सिंघानिया जैसे हास्यपूर्ण पात्र को प्रस्तुत किया है. सिंघानिया के संवाद एक ओर तो दर्शकों पाठकों का मनोरंजन करते हैं और  दूसरी ओर नाटक की मुख्य भाव धारा संपृक्त रखते हैं.

लडका    :  बडी लडकी से हुआ कुछ नहीं – कीडा है एक.
बडी लडकी : कीडा.
पुरुष दो   : अपने वेश में तो.
लडका     : मसल दिया.
पुरुष दो   : मसल दिया? शिव –शिव – शिव. यह हिंसा की भावना.
स्त्री       : बहुत हैं इस में. कोई कीडा हाथ लग जाय सही.
लडका     : और कीडा चाहे जितनी हिंसा करता रहे?”
पुरुष      : मूल्यों का प्रश्न है. मै. प्रायः कहा करता हूँ बैठो तुम लोग.
स्त्री       : मैं सडक तक चल रही हूँ साथ.
पुरुष दो    : इस देश में नैतिक मूल्यों के उत्थान के लिए तुमने भाषण सुना है वे जो आए हैं आजकल, क्या नाम उनका?
लडका     : निरोध महर्षि?
पुरुष दो    : हाँ, हाँ, हाँ, यही नाम है न इतना अच्छा भाषण? देते हैं जन्म कुण्डली भी बनाते हैं वैसे पर भाषाण वाह- वाह वाह?” (1)

 इन संवादों में जहाँ हास्य की सृष्टि हुई है वहीं अशोक द्वारा पुरुष दो
पर व्यंग्य भी किया गया है.

मध्यवर्गीय परिवार की विघटनशीलता को प्रस्तुत करने के लिए नाटककार मोहन राकेश ने आधे-अधूरे में व्यंग्यात्मक संवादों का भी सहारा लिया है. व्यंग्यात्मक संवादों के माध्यम से नाटककार ने इस नाटक को इतना आकर्षक बनाया है कि दर्शक पूरी थीम के प्रति एक  लगाव को महसूस करता है. प्रत्येक पात्र एक दूसरे की छाती पर व्यंग्य की कील ठोक रहा है

स्त्री    तू एक मिनट जायेगा बाहर?
लडका   क्यों?
स्त्री     बैटरी डाउन हो गयी है? धक्का लगाना पडेगा.
लडका   अभी से? अभी तो नौकरी की बात तक नहीं की उसने
स्त्री     जल्दी चला जा. उन्हें पहले ही देर हो गयी है.
लडका   अगर सचमुच दिला दो उसने नौकरी, तब तो पता नहीं. (2)

आधे-अधूरे नाटक में स्थितियों की गहनाता व नाटकीय गरिमा को अभिव्यक्ति देने संयत कथोपकथनों का प्रसंग विशिष्ट ढंग से किया गया है. अनेक संदर्भों में विविध पात्रों के बीच के संबंधों को स्पष्ट करने तथा स्थितियों के प्रति उनकी तीव्र प्रतिक्रिया को व्यक्त करने इन कथोपकथनों का सुंदर उपयोग किया गया है. सावित्री प्रायः अपने वार्तालाप में असंयत रहती है. लडका भी असंयत दिखाई देता है. परंतु गंभीर अवसरों पर वह संयत हो जाता है. ये संयत कथोपकथन उसके व्यक्तित्व के उस पक्ष का परिचय देते हैं जो प्रायः हमारी आँखों से ओझल बना रहता है, यथा वह बहिन बिन्नी से कहता है कि, बुरा क्यों मानती है. मैं खुद अपने को बेगनाना महसूस करता हूँ यहाँ.....और महसूस करना शुरु किया है मैंने तेरे जाने के दिन से.”(3) इन संवादों के माध्यम से उस परिवार के सभी सदस्यों की लांछना व प्रताडना को सहकर भी उस परिवार की स्थिति को किसी-न-किसी रुप में सुधारने के प्रयत्न में बार-बार टोकर खाने पर व्यथित तथा अपनी विवशता पर चिंतित सावित्री की मनोदशाओं का अंकन प्रभावात्मक ढंग से किया गया है. नाटक के समापन के अवसर पर वह अपने पिता महेंद्रनाथ को जुनेजा के घर से लेकर लाता है. महेंद्रनाथ फिसल कर पडता है. लडके का पितृ-स्नेह उभर कर बाहर आ जाता है. वह अत्यंत संयत स्वर में कहता है कि उतर कर चले आये होंगे ऐसे ही. आराम से डैडी, आराम से. देखकर डैडी, देखकर.” (4)  उस घर से मुक्त होने की कामना रखते हुए भी इस से छुटकारा पाने में प्रत्येक सदस्य की असफलता की ओर पाठक प्रेक्षकों का ध्यान आकृष्ट करते हुए नाटककार मोहन राकेश ने उस परिवार के सदस्यों के बीच की संबंधहीनता का जो व्यापक चित्रण पूरे नाटक में प्रस्तुत किया है. उसके विरुद्ध यहाँ लडका अशोक के मन में  अपने पिता महेंद्रनाथ की स्थिति पर तरस व उनके प्रति आदर व्यक्त करने की भावना का दृश्यांकन करने संयत कथोपकथनों का प्रयोग किया है.

रोचकता    मार्मिकता के बिना संवादों की योजना निष्प्राण-सी लगती है नाटकीय संवदेना को प्रभावात्मक ढंग से संप्रेषित करने के लिए संवादों में नाटकीयता को उजागर करने रोचकता की बडी आवश्यकता होती है. नाटक के संवादों में रोचकता का गुण भी होना चाहिए. यदि संवादों में यह गुण नहीं है तो दर्शक या पाठक को नाटकीय कथा से रसानुभूति नहीं होगी. शुष्क संवाद नाटकीय कथा को भी शुष्क और नीरस बना देते है. आलोच्य नाटक के संवादों में यह गुण भी प्रभूत मात्रा में उपलब्ध होते हैं. अपनी रोचकता के कारण ही यों संवाद दर्शक को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और दर्शक उन्हें सुनकर भाव-विभोर हो उठता है तथा आगे के संवादों को सुनने के लिए एकाग्रचित हो जाता है. किन्नी, बिन्नी. अशोक का यह संवाद उललेखनीय है.

बडी लडकी :     छोटी लडकी से यह सच कह रहा है?
छोटी लडकी :    बात सुरेखा ने शुरु की थी. वह बता रही थी कि कैसे उसके ममा डैडी....
बडी लडकी :    सख्त पडकर और माँ तुझे बहुत शौक है जानने कि कैसे ममी डैडी आपस में
लडका :        आपस में नहीं. यहाँ तो बात थी खास...
बडी लडकी :     चुप रहो, अशोक.
छोटी लडकी :    इस से कभी कुछ नहीं कहता कोई. रोज किसी-न-किसी बात पर मुझे पीट देता है.
बडी लडकी :     क्यों पीट देता है?
छोटी लडकी :    क्योंकि मैं अपनी व सब चीजों से नहीं ले जाने देती उसे देने.
बडी लडकी :     किसे देने?
छोटी लडकी :    वह जो है इसकी... कभी मेरी बर्थडे प्रेजेंट की चूडियाँ दे आता है उसे, कभी मेरा प्राइज का फाउण्टेन पेन. मैं अगर ममा से कह देती हूँ, तो अकेले में मेरा गला दबाने लगता है..” (5)

संवादों की योजना नाटक में ऐसी होनी चाहिए कि उसमें प्रेक्षकों – पाठकों के ह्रदय को छू लेने की क्षमता हो, उन पर प्रभाव डालने की शक्ति हो और प्रेक्षक पाठक उस से एकात्म-भाव स्थापित कर लें. यह मार्मिकता का गुण हो संवादों को प्रभाविष्णुता प्रदान करता है. जब सावित्री अपनी घर की स्थितियों से पूरी तरह ऊब जाती है तो अपने मन-ही-मन यह निश्चय कर लेती है कि किसी-न-किसी तरह जगमोहन को समझाकर उसके साथ नये बंधन को जोडकर इस घर से मुक्त होने का समय आ गया है. तब एक ओर इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृत्ति को लेकर तथा दूसरी ओर अपनी माँ के चले जाने की बात को लेकर चिंता व्यक्त करती हुई बिन्नी इस प्रकार पूछती है.

स्त्री         : अगली बार आने पर मैं तुझे यहाँ न मिलूँ शायद.
बडी लडकी   : कैसी बात कर रही हो”?
स्त्री         : जागमोहन को आज मैंने इसलिए फोन किया था.
बडी लडकी   : तो?
स्त्री         : तो अब जो भी ही. मैं जानती थी कि एक दिन आना ही है ऐसा.
बडी लडकी   : तो तुमने पूरी तरह सोच लिया है कि.....?
स्त्री         : हल्के से आँखे मूँद कर बिल्कुल सोच लिया है आँख झपकती जा तू अब.
बडी लडकी   : चलते-चलते और सोच लेतीं थोडा (6)

आधे-अधूरे नाटक के प्रायः सभी संवादों मे यह मार्मिकता उपलब्ध होती है और अपने इसी गुण के कारण दर्शकों की प्रशंसा इस नाटक को प्रभूत मात्रा में मिली है. आधे-अधूरे नाटक की सफलता का आधार उसका नाटक-शिल्प भी है. निश्चित कथा-वस्तु न होने की वजह से इस नाटक में संवादों का महत्व और भी बढ गया है. व्यंग्यात्मक तथा संयत कथोपकथनों के माध्यम से नाटकीय वस्तु को रोचक बनाने तथा मंचीय सफलता को दृष्टि में रखकर उसे नाटक को  मनोरंजन बनाने संवादों का मार्मिक ढंग से प्रयोग किया गया है.
 
संदर्भ :

1.       मोहन राकेश - आधे-अधूरे – पृ.सं. -50
2.       मोहन राकेश - आधे-अधूरे – पृ.सं. -51
3.       मोहन राकेश - आधे-अधूरे – पृ.सं. -59
4.       मोहन राकेश - आधे-अधूरे – पृ.सं. -95-96
5.       मोहन राकेश - आधे-अधूरे – पृ.सं. -62
6.       मोहन राकेश - आधे-अधूरे – पृ.सं. -66







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