प्रेमचंद की भाषा में मुहावरेदानी
प्रेमचंद की भाषा में मुहावरेदानी
प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू
स्रवंति – द्विभाषा मासिक पत्रिका
जनवरी – 2006
भाषा में
सजीवता लाने के लिए मुहावरों का विशेष रुप से प्रयोग किया जाता है. मुहावरा के
बारे में मुहावरा-मीमांसा में डॉ. ओम प्रकाश गुप्त ने इस प्रकार लिखा है कि –
प्रायः शारीरिक चेष्टाओं, अस्पष्ट ध्वनियों, कहानी और कहावतों अथवा भाषा के कतिपय
विलक्षण प्रयोगों के अनुरुप या आधार पर निर्मित और अभिधेयार्थ से भिन्न कोई विशेष
अर्थ देनेवाले किसी भाषा के गठे हुए रुढ़ वाक्य, वाक्यांश अथवा शब्द इत्यादि को
मुहावरा कहते हैं. जैसे-हाथ पैर मारना, सिर धुनना, ही ही करना, गटागट निगल जाना,
टेढीं खीर होना अपने मुँह मियाँ मिटठ बनना, दूध के जले होना, नौ की लकडी तेरह खर्च
करना अंगारों पर लोटना, आग से खेलना इत्यादि.”
शिक्षित व्यक्ति की भाषा में भावों की सबलता ही
नहीं विचारों की बोझिलता रहती है. ऐसी स्थिति में हम प्रत्येक बात-सोच-सोचकर बोलते
है और इस प्रक्रिया के द्वारा भाषा का सहज रुप समाप्त हो जाता है तथा कृत्रिमता आ
जाती है. परन्तु प्रेमचंद जी ने अपनी सभी रचनाओं की भाषा को इस प्रकार की उक्तियों
से सजाया है जिन से भावों की अभिव्यक्ति में प्रभावात्मकता आ सके. इस दृष्टि से वे
अत्यन्त समर्थ कलाकार रहे हैं. उनके संपूर्ण साहित्य में स्थान-स्थान पर सुन्दर
मुहावरों का प्राचुर्य मिलता है. इस में काव्यगत सौंदर्य तो है ही, उपन्यासकार के
जीवनगत गंभीर अनुभव का भी इन से सहज पता चल जाता है.
दैनिक व्यवहार में मुहावरों का प्रयोग प्रायः मध्य वर्ग अथवा ग्रामीण समाज
द्वारा अधिक किया जाता है. प्रेमचंद कृत ‘गबन’ उपन्यास का कथानक मध्य वर्ग से ही
संबंध रखता है. इसी कारण जालपा, रमानाथ, देवीदीन, रामेश्वरी आदि के वार्तालाप में
मुहावरों का पुट स्वयं आ गया है. जैसे- खून मुंह लगना, जले पर नमक छिडकना, सिर
मुडाते ही ओले पडना, आंखें भऱ आना, रंग उड जाना, नाक में दम आना, आस्तीन का सांप
बनना, आटे दाल का भाव मालूम होना, लटट हो जाना, दांत पीसना, भीगी बिल्ली बनना, एडी
चोटी का जोर लगानी आदि.
गोदान की भाषा मुहावरों से समृद्ध हुई है. इस में मुहावरों की संख्या
अपरिमित है. जिसे ग्राम जीवन के वर्णन में एक नवीन स्फूर्ति आ गयी है. लेखक, नगर
एवं ग्रामीण सभी पात्र मुहावरों के प्रयोग करते हैं. कभी कभी तो लेखक मुहावरों का
रह-रहकर प्रयोग करता है. ग्रामीण पात्र मुहावरों और लोकोक्तियों के बिना बोलते ही
नहीं है. धनिया के इस संवाद में महूवारों का सार्थक प्रयोग मिलता है-
“वह भुग्गा, वह
बहत्तर घाट का पानी पिए हुए. इसे दोनो उँगलियों पर नचा रही है और वह समझता है वह
इस पर जाना देती है. तुम उसे समझ दो, नहीं कोई ऐसी वैसी बात हो गयी तो कहीं के न
रहोगे”. इसी तरह “दिल खोल कर, तालिया बजाकर, घी के चिराग जलाना
बगलें बजाना, नाम बडे दर्शन थोडे” जैसे मुहावरों की भरमार है.
प्रेमचंद की यह विशेषता है कि वे इस बात के प्रति सदैव जागरुक रहते हैं कि
कहाँ सामान्य शब्द का प्रयोग करें और कहाँ मुहावरों का. इस वाक्य में “दूध-घी बिल्कुल नहीं मिलता से कथ्य में
वह गहराई न आती जो मुहावरे से आ गयी है. दूध-घी अंजन लगाने तक को तो मिलता नहीं” इस तरह मुहावरों के प्रयोग से भाषा
लाक्षणिक गुणों से भर गयी है.
‘अलग्योझा’ कहानी में प्रयुक्त मुहावरें इस प्रकार
है. निम्नलिखित उद्धरण में मुहावरों का विवरण इस प्रकार हैं – “भोला को मरे एक महीना गुजर चुका था.
संध्या हो गई थी. पन्ना इसी चिन्ता में पडी हुई थी कि सहसा उसे ख्याल आया, लडके घर
में नहीं है. यहाँ बैलों के लौटने की बेला है, कहीं कोई लडका उनके नीचे न आ जाए.
अब द्वार पर कौन है, जो उनकी देखभाल करेगा?
रग्घू को मेरे लडके फूटी आँखों नहीं भाते. कभी हँसकर नहीं बोलता”. इस उद्धरण में प्रेमचंद जी ने “बैलों के लौटने की बेला होना फूटी आँखों
न बाना” आद मुहावरों का
प्रयोग करके भाषा की प्रभावात्मकता में और भी अभिवृद्धि कर दी है.
प्रेमचंद ने अवसरानुकूल मुहावरों के प्रयोग द्वारा उसके प्रभाव में और भी
अधिक वृद्धि कर दी है. माँ कहानी में प्रयुक्त मुहावरें इस प्रकार हें – सूखकर
काँटा हो जाना, पसीने की जगह खून बहाने को तैयार होना, आँखे फेर लेना, और बेवफा
होना आदि.
“ठाकुर का कुआँ” में प्रयुक्त मुहावरे इस प्रकार हैं- “सुख की साँस लेना, मैदान साफ होना, दबे
पाँव चलना, समझ-बूझकर कार्य करना” आदि.
“गुल्लीडंडा” कहानी में मुहवारे इस प्रकार हैं-
झेंपता हुआ, किस लायक हूँ? मेरी क्या गिनती, वह लडकपन था सरकार
आदि.
“आखिरी हीला” – कहानी में प्रयुक्त मुहावरे इस
प्रकार है – बीमारी का अड्डा होना, पानी की लकीर होना, सुरपुर की राह लेना,
भाग्यवान समझना आदि.
“घासवाली” कहानी के मुहावरें इस प्रकार हैं - -
जी सन्न होना, जी ललचाना, आदि.
“गिला” कहानी में प्रयुक्त मुहावरें
यथा – कानी कैडी भी न देना,
छल प्रपंच फैला होना, आँखे न खुलना
“रसिका संपादक” कहानी में प्रयुक्त मुहावरें इस प्रकार
हैं – घूर कर देखना. आंखों में ही पी जाना, उत्साह ठंडा जाना, मन की मिठाईयाँ
खाना, शूल की तरह चुभना आदि.