आषाढ़ का एक दिन में हास्य एवं व्यंग्य





आषाढ़ का एक दिन में हास्य एवं व्यंग्य

   प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू

स्रवंति – द्विभाषा मासिक पत्रिका
       
   अगस्त – 2006       

        आषाढ का एक दिन नाटक में हास्य-संवेदना निश्चित रुप से विकसित हुई है. अपने पहले नाटक में उन्होंने हास्य का उपयोग मंचीय सफलता के संबंध में आश्वस्त होने के लिए एक मसाले के रुप में किया है, लेकिन आत्मविश्वास प्राप्त होते ही उन्होंने हास्य की सृष्टि अधिक परिमार्जित रुप में की है. अस्तित्व की यातना और मनोवैज्ञानिक सजगता के बीच मोहन राकेश ने हास्य के  लिए भी अवकाश निकाल लिया है.आषाढ का एक दिन में हास्य की सृष्टि आयासपूर्वक की गयी है. इस नाटक में पात्रों के दो-दो जोड़े हास्य की सृष्टि के लिए रखे गये हैं. अनुस्वार और अनुनासिक तथा रंगिणी और संगिणी हास्य की सृष्टि के प्रयोजन से ही मंच पर उतारे गये हैं. अनुस्वार और अनुनासिक मुख्य रुप से विदूषक हैं. नाटक में उनको रखने का औचित्य मल्लिका से कहे गये प्रियंगुमंजरी के शब्दों में इस प्रकार सिद्ध किया गया है, तुम उन में से जिसे भी अपने योग्य समझों, उसी के साथ तुम्हारे विवाह का प्रबंध किया जा सकता है.”(1)  लेकिन इसके लिए उन्हें मंच पर लाने की कोई आवश्यकता नहीं थी, विशेष रुप से उस स्थिति में जब प्रियंगुमंजरी को एक क्षण बाद ही यह कहना पडा ही,परंतु राज्य में ये दो ही नहीं, और भी अनेक अधिकारी हैं. मेरे साथ चलो. तुम जिस से भी चाहोगी.....” (2) स्पष्ट है उन से मल्लिका के विवाह का प्रयोजन तो एक बहाना है, वास्तव में हास्य की सृष्टि के लिए नाटक में रखे गये हैं. उनकी तुलना में रंगिणी – संगिणी की भूमिका अपेक्षाकृत अधिक गंभीर अभिप्रायों की वाहक है. अनुसंधान के नाम पर चले रहे कार्य का खोखलापन उनके संवादों में मूर्त हो उठा है. उनकी उक्तियों में चुभता हुआ व्यंग्य है. यह बात अलग है कि उनकी भूमिका भी नाटक के घटनाक्रम की मुख्य धारा का अंग नहीं बन सकी. इसके विपरीत मातुल पर बडप्पन की मार और दार्शनिक मुद्रा का अटपटापन हास्य के लिए अधिक स्वाभाविक है.

        नाटक की मंचीय सफलता की दृष्टि में रखकर मोहन राकेश ने संवादों के जरिए व्यंग्य-विनोद का आयोजन किया है. प्रियंगुमंजरी कालिदास की प्रेयसी मल्लिका को देखने आनेवाली है. इसकी पूर्व सूचना देने तथा मल्लिका के घर एक राजदुहिता के आने से पूर्व व्यवस्थित ढंग से वहाँ की वस्तुएँ सजाने व संवारने हेतु दो राज्य कर्मचारी अनुस्वार और अनुनासिक मंच पर प्रत्यक्ष होते हैं. उन दोनों के वार्तालाप से कर्मचारियों की बुद्धिहीनता, आडंबरप्रियता तथा तथयुगीन अस्तव्यस्त शासन प्रणाली की एक झलक पायी जाती है,....

अनुनासिक    :   मैं समझता हूँ यह आसन द्वार के निकट होना चाहिए.
अनुस्वार    : देवी द्वार से प्रवेश करेंगी और आसन द्वार के निकट होगा?
अनुनासिक  : उस स्थिति में इसे इसकी वर्तमान स्थिति से सात अंगुल दक्षिण की ओर हटा देना चाहिए.
अनुस्वार    : दक्षिण की ओर? नकारात्मक भाव से सिर हिलाता है. मैं समझता हूँ इसकी स्थिति पाँच अंगल उत्तर को ओर होनी चाहिए. गवाक्ष से सूर्य की किरणें सीधी इस पर पडती हैं.
अनुनासिक  : मैं तुमसे सहमत नहीं हूँ.
अनुस्वर    : मैं तुम से सहमत नहीं हूँ.
अनुनासिक    : तो?
अनुस्वार      : तो विवादस्पद विषय होने से आसन को यही रहने दिया जाए.
अनुनासिक    : अच्छी बात है. इसे यही रहने दिया जाए. और ये कुंभ? कुंम्भों के पास चला जाता है.
अनुस्वार      :  मैं समझता हूँ एक कुंभ इस कोने में और दूसरा उस कोने में होना चाहिए.
अनुनासिक    : पर मैं समझता हूँ कि कुंभ यहां होने ही नहीं चाहिए.
अनुस्वार     : क्यों?
अनुनासिक   : क्यों का कोई उत्तर नहीं.
अनुस्वार    : मैं तुम से सहमत नहीं हूँ.
अनुनासिक  : मैं तुम से सहमत नहीं हूँ.
अनुस्वार    : तो? (3)

       यहाँ अनुस्वार और अनुनासिक की विचारहीनता पर व्यंग्य के सहारे प्रहार करके नाटककार ने हास्य की योजना सफलतापूर्वक की हैं.

    जब कालिदास की नियुक्ति कश्मीर के शासक के रुप में की जाती है तब उसके मामा मातुल भी उसके साथ कश्मीर जाकर वहाँ के राजप्रासाद में कुछ समय तक रहने लगता है तब एक शासक के निकट के रिश्तेदार होने के नाते उसे वहाँ के राज्य कर्मचारियों व अन्य लोगों के द्वारा जो सम्मान मिलता है, उसे वह बरदाश्त नहीं  कर पाता. क्योंकि एक साधारण ग्राम पुरुष होने के नाते उसे सीधा-सादा जीवन बिताने की आदत बन पडी. वह यह भी जानता है कि उस में दूसरों के सम्मान व उनकी वन्दना को स्वीकार करने योग्य कोई विलक्षणता है ही नहीं. राज्यप्रसाद में उनकी सुरक्षा हेतु कडी व्यवस्था का प्रबंध किया जाता है. प्रतिहारी उसके आगे और पीछे चलने लगते है. उसे मुक्त होकर कहीं विचरण करने का अवसर नहीं दिया जाता. इस स्थिति से ऊब कर मातुल अपने गाँव वापस लौटने का निर्णय कर लेता है. राजप्रसाद के कृत्रिम वातावरण की ओर संकेत करते हुए वह कहता है--- मुझसे कोई पूछे तो मैं कहूँगा कि राज- प्रासाद में रहने से अधिक कष्टकर स्थिति संसार में हो ही नहीं सकती. आप आगे देखते हैं. तो प्रतिहारी जा रहे हैं. पीछे देखते हैं, तो प्रतिहारी आ रहे हैं. सच कहता हूँ मुझे कभी पता ही नहीं चल पाया कि प्रतिहारी मेरे पीछे चल रहे हैं या मैं प्रतिहारियों के पीछे चल रहा हूँ........और इस से भी कष्टकर स्थिति यह थी कि जिन व्यक्तियों को देखकर मेरा आदर से सिर झुकाने को मन करता था. वे मेरे सामने सिर झुका देते था. मेरे सामने.... हाथ से अपनी ओर संकेत करता है.

       बताओं मातुल में ऐसा क्या है जिसके आगे कोई सिर झुकाएगा? मातुल ने देवी है न देवता, न  पण्डित है राजा है. तो फिर क्यों कोई सिर झुकाकर मातुल की वंदना करे. परंतु नहीं. लोग मातुल की तो क्या मातुल के शरीर से उतरे वस्त्रों तक की वंदना करने को प्रस्तुत थे. और मैं बार-बार अपने को छूकर देखता था कि मेरा शरीर हाड-मांस का ही है या चिकनें पत्थर का हो गया है, जैसे मंदिरों में देवी-देवताओं का होता है...... यहाँ आकर सब से बडा सुख यही है कि न कोई झुककर मेरी वंदना करता है और न ही मुझे भ्रम होता है कि मैं आगे चल रहा हूँ.या प्रतिहारी आगे चल रहे हैं। केवल यह वर्ण मुझसे नहीं सही जाती....” (4)

       इन संवादों के माध्यम से बडे ही प्रभावात्मक ढंग से नाटककार ने ग्रामीण एवं शहरीय परिवेश के जीवन के अंतर को तथा राजप्रसाद में आडंबरपूर्ण किंतु कृत्रिम वातावरण की ओर व्यंग्यपूर्ण शैली में संकेत किया है. तीसरे अंक में मातुल अपने गाँव में बैसाखी के सहारे चलता हुआ दिखायी पडता है. उनके कहने पर यह पता चलता है कि कश्मीर के राजप्रसाद में रहते वक्त वहाँ के संगमरमर के फर्श पर उसका पाँव फिसल जाने से उसने सदा के लिए अपने पैर को खो दिया है. उसकी इस विडंबनापूर्ण स्थिति का उल्लेख करते हुए मोहन राकेश ने सिद्ध किया है कि नगर वातावरण की तुलना में ग्रामीण वातावरण में लोग बडी सहजता के साथ अपने जीवन का यापन कर सकते हैं. प्रियंगुमंजरी के आदेश देने पर राज्य के स्थपतियों ने मातुल के पुराने मकान को गिराकर उस के स्थान पर नए भवन को खडा कर दिया है. वहाँ भी संगमरमर के पत्थर का फर्श विछाया गया है. इसी कारण से मातुल की स्थिति अब और भी दयनीय बन गयी है क्योंकि जिस हालत से बचने के लिए वह राज्यप्रसाद के वैभवपूर्ण जीवन को छोडकर आया है वही स्थिति उसके घर में भी बनी रही है. इस संदर्भ में नाटककार ने उसके जीवन की इस विषमता को लेकर कई संदर्भों में व्यंग्य के सहारे जो आलोचना की है इस में अनायास ही हास्य की योजना स्वतः होने लगती है. ग्राम प्रान्तर में पथरीली. कंकरीली, उबड़-खाबड़ एवं गीली मिट्टी में बडी चुस्ती के साथ चलने की आदत रखनेवाले मातुल को नगर के कृत्रिम वातावरण में ज्यादा देर तक टिक पाने में अक्षम चित्रित कर नाटककार ने सूक्ष्म ढंग से हास्य एवं व्यंग्य की योजना की है.
   
संदर्भ :  

1.       मोहन राकेश : आषाढ़ का एक दिन – पृ.सं. 78
2.       मोहन राकेश : आषाढ़ का एक दिन – पृ.सं. 78
3.       मोहन राकेश : आषाढ़ का एक दिन – पृ.सं. 64-65
4.       मोहन राकेश : आषाढ़ का एक दिन – पृ.सं. 95-96







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