मिट्टी के फूल





                    मिट्टी के फूल

स्वतंत्र वार्ता, 16 जून 2001                         
                                         तेलुगु मूल : नंदिनी सिधारेड्डी    
हिंदी अनुवाद : प्रो.एस.वी.एस.एस. नारायण राजू

 हम झाडते हैं अपने हाथ, कहीं मिट्टी लगी न रह जाए,
 वह गूँथता है मिट्टी दोनों हाथों से और उगता है काले सूर्य-सा
तुरंत पहचानता है धुँधलाई नजरों से
गारा तैयार हुआ कि नहीं।
तैयार करते हुए गारा
 और घुमाते हुए डंडे में चाक को
कितनी तल्लीन होता है वह बावजूद घबडाहट के।
जब टूट रही हैं हर ओर आस्थाएँ,
रसहीन हो रहा है जीवन भयानक विरक्ति में,
किस तरह रसलीन है वह अपने जीवन में, कर्म में।
 उम्र के ढलान पर काँपते हैं हाथ,
 पर चाक पर चढ़ी मिट्टी को आकार देते हुए
किस अदभुत निपुणता उठाते हैं रंग आँखों में
पानी लगाते हुए खोट निकालकर गढ़ते वक्त,
उमर आता है एक नया लोकगीत सलपा(1) की सुरीती आवाज में
जलते आवे की लपटों में दमकते
पति-पत्नी के चेहरों की चमक से
रोशन हो उठती है पूरी की पूरी बस्ती,
 लेकिन तैयार बर्तनों के बिकने के क्षण
शेष बचता है केवल क्षोभ
लोहे के सामने हार जाती है मिट्टी
मशीन के आगे सूख जाता है मनुष्य।
रंग-बिरंगी महँगी चीजों के ढेर के आगे
सचमुच टूट गए उसके हाथ!
 उसके हाथ जिन्होंने दिए जलाए जाने कितने घरों में
इस पहर तेल चुक गया उसके अपने दिये का।
उसकी प्रतिभा जाने कितने पथिकों के सूखे कंठ से
ढली ठंडे-पानी की धार-सी।
कितने घरों में पका अन्न उसकी कृपा सें,
अब उसकी अपनी गागर में अन्न नहीं।
मंगल कलश बनाए जाने कितने और करोडों दंपतियों को
विवाह बंधन में बांधा उसने
 उसी के अपने घर में मचता है
अब रोज-रोज का क्लेश-आर्थिक तंगी के चलते।
काम में कुशलता तो सीखी,
जीवन जीना लेकिन नहीं सीखा।
ऊंगलियों की टंकर से
गागर की दरार की पहचान तो जानी
पर नहीं पहचान सका जिंदगी की दरार को।
जिंदगी के आखिरी मोड पर
काल ने छल किया।
अशक्त हो चला शरीर,
 पर नहीं कम हुआ सीने में साहस।
पैसों की दुनिया को कोसते हुए
मन मसोसते हुए
फिर मिट्टी गूँथता है वह।

(1)    मिट्टी के बरतनों को वांछित आकार में ढालने के लिए प्रयुक्त एक धारदार छोटी-सी लकडी.


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