आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का पत्र साहित्य
आचार्य महावीर प्रसाद
द्विवेदी जी का पत्र साहित्य
प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू
बहुब्रीहि.
जुलाई-सितंबर 2016
पत्राचार तो कोई नवीन विधा
नहीं है। अत्यंत प्राचीन है। आम तौर पर विद्यार्थी दशा से ही लिखना पढ़ना जब
प्रारंभ करते है तब सबसे पहले पत्र लिखना ही सीखता है। विद्यालय में अध्यापक के
नाम पर या प्रधाचार्य के नाम पर। आगे जीवन में विभिन्न संदर्भों के अनुरुप अलग-अलग
पत्र लिखते हैं। परंतु महान साहित्यकार, वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ या अन्य कोई महान
व्यक्तियों के पत्र इसलिए खास पत्र माना जाता है कि उन पत्रों से समाज के लिए
विशेषकर युवा पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक व प्रेरणादायक बन जाते हैं। पत्रों को
औपचारिक पत्र, साहित्यिक पत्र, सामाजिक पत्र, पारिवारिक व व्यक्तिगत पत्र आदि के
रुप में विभाजित कर सकते हैं। आमतौर पर पत्रों में व्यक्तिगत या गोपनीय विषय भी
होती है। परंतु महान साहित्यकार व प्रमुख व्यक्तियों के पत्रों से उनके
व्यक्तित्व, समकालीन साहित्यिक परिस्थितियाँ और साहित्याकारों से संबंधित विभिन्न
विषयों की जानकारी हासिल कर सकते हैं। इसलिए प्रमुख साहित्यकार वैज्ञानिक,
राजनैतिक व महान व्यक्तियों से संबंधित पत्रों को संग्रह करके पुस्तक के रुप में लाने
से तत्कालीन समय की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, विशेषकर उन
महान व्यक्तियों से संबंधित पारिवारिक परिस्थितियों का संपूर्ण जानकारी मिलती है।
साहित्य में यथार्थ के साथ कल्पना को भी
जोड़ते हैं। लेकिन पत्र में कल्पना के लिए कोई जगह नहीं रहता है। पत्रों से
वास्तविक चित्र ही मिल जाता है। पत्र साहित्य का इतिहास या हिंदी पत्र साहित्य का
इतिहास के बारे में दुबारा दोहराना नहीं चाहता हूँ। मैं आचार्य महावीर प्रसाद
द्विवेदी जी के पत्रों के बारे में
विश्लेषण करना चाहता हूँ।
यह सर्वविदित बात है कि महावीर प्रसाद द्विवेदी
ही खड़ी बोली को प्रमाणिक रुप देने के लिए पूर्णतः कोशिश किया। तत्कालीन समय के
विभिन्न रचनाकारों की रचनाओं की गलितियों खासकर भाषागत दोषों को सुधार कर अनेक
महान साहित्यकारों को विख्यात साहित्यकारों के रुप में प्रतिष्ठित किया। वे
स्पष्टकारी थे। द्विवेदी बहुत निर्भीक थे। वे हमेशा अच्छे और सदाचार संपन्न
व्यक्तियों से ही आपसी संबंध निभाते थे और लालची और पाखंड लोगों के हेय दृष्टि से
देखते थे। इसके लिए उनके पत्र के माध्यम से एक उदाहरण प्रस्तुत करूँगा। श्रीधर
पाठक को झाँसी से 31 मार्च 1900 ई. में लिखे एक पत्र में नागरी प्रचारिणी सभा के
लोगों के बारे में उल्लेख किया है। यथा – “आकाश तक ऊँचा उठाने
के लिए उनके पास अपने स्वयं के उपन्यास हैं और जिन लोगों में उन्हें कोई रुची नहीं
उनकी पुस्तकों के साथ-साथ न्याय करना वे पाप समझते हैं ऐसे खुदगर्ज लोगों की कथनी
और करनी को हमें घृणा की दृष्टि से देखना चाहिए।”(1)
साहित्य सर्जक हर संदर्भ को उपयोग करके सामाज
में चेतना लाने के लिए प्रयास करते हैं। जनोदन सा ‘जनसीदन’ ने सरस्वती पत्रिका के लिए
एक कविता भेजे थे। कविता में देशी जमींदारों, राजाओं, हजारों एकड़ों के मालिकों की
आलसीपन और भूमिहीन निर्धन किसानों की कठिन मेहनत से संबंधित विषयों के साथ-साथ
तत्कालीन अंग्रेज सरकार की प्रबंधन संबंधित गलितियों के बारे में जिक्र किया था।
इस कविता को पढंने के बाद द्विवेजी जी ने सरस्वती में छाप तो दिया। साथ-साथ एक
पत्र भी लिखा था यथा- “यदि हमारे प्रभु अंग्रेज आप ही इस देश को छोड़कर इंग्लैंड जाने लगे और
जहाज पर सवार हो जाए तो हमारे विश्वास है कि हम अकर्मण्य हिंदुस्तानियों को एडन को
तार भेजना पड़े कि आप लौट आ जाए, हम पर चाहे जैसा शासन कीजिए, हम चूँ नहीं करेंगे।
आपके बिना हमारे एक दिन भी सुख से नहीं कट सकेगा। हमारा जो स्वभाव आपकी तरफ है
उसमें कभी जरा भी न्यूयता नहीं हो सकती। इसका आप विश्वास कीजिए।”(2)
इससे यह विदित होता है कि वे अकर्मण्य
हिंदुस्तानियों की मूर्खतापूर्ण प्रबंधन तथा आलासीपन से दुःखी थे। इस प्रकार
व्यंग्य के माध्यम से तत्कालीन भारतीय जनजीवन का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया है।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी एक सच्चे मार्ग दर्शक भी थे। वे अनेक
साहित्यकारों को लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। शायर द्विवेदी जी की प्रेरणा व
मार्गदर्शन की वजह से ही अनेक लोग सक्षम साहित्यकार बन गये थे। वे प्रशंसा भी करते
थे और गलतियों को भी बताकर उनको ठीक भी कर दिया।
महाराज रामसिंह के पत्र पर उनकी इतनी अच्छी
प्रतिक्रिया है देखिए – “आनंद हुआ। बहुत अच्छी
बात है। आप प्रचीन स्थानों पर लेख लिखकर फिर उन्हें पुस्तक रुप में प्रकाशित करके
भूली हुई बातों का स्मरण करा दीजिए।
एक काम और कीजिए, किसी तरह थोडी-सी संस्कृत
सीख लीजिए। इससे आपको शब्द-शुध्दि का ज्ञान हो जाएगा फिर आप ‘अनुगृहित’ को ‘अनुग्रहीत’ और ‘रघुवीर’ को ‘रघुबीर’ न लिखेंगे।”(3)
कितनी अच्छी सुझाव है। वे अत्यंत सुंदर ढंग से
ठीक करते थे। वे सच में एक सफल अध्यापक है। अनेक साहित्यकारों के मार्गदर्शन किया
और सैकड़ों रचनाओं को ठीक करके हिन्दी साहित्य की श्रीवृध्दि किया है।
द्विवेदी जी रचनाओं को सुधारने के साथ-साथ
अच्छी रचनाओं को खूब तारीफ भी करते थे। क्योंकि इससे रचनाकारों के लिए
प्रेरणाश्रोत बनकर और भी सफल व सक्षम रचनाएँ करे। मैथलीशरण गुप्त जी के भारत-भारती
से संबंधित दो पत्रों का जिक्र मैं करूँगा।
पहला पत्र 22 मार्च 1915 का है। यथा – “भारत-भारती इस प्रशंसा के
योग्य नहीं तथापि आप जैसे महानुभावों के वाक्य मेरे लिए बहुत कुछ उत्साहवर्ध्दक
हैं। कल बल कान्य कुब्ज स्कूल का जलसा था। लड़कों ने भारत-भारती ने अंत का गीत गाया।
श्रोता गद्-गद् हो गए बड़ी खुशी हुई ऐसे समयोचित गीत दो चार और लिख डालिए।”(4)
दूसरा पत्र 18 जून 1915 का है। यथा – “कल गाँव गया था, जनेऊ था।
एक बिगड़े दिल ब्रह्मचारी मिले, शिक्षित
हैं। गंगा तट पर एक ब्रह्मचर्याश्रम खोल रखा है। आपके बड़े भक्त हैं सारी ‘भारत-भारती’ कण्ठाग्र है। कहते थे रोज
गीत की तरह उसका पाठ करता हूँ और शिष्यों से कराता हूँ। कोई 500 आदमियों का मजमा
था, अनेक लोग उनमें शिक्षित थे।
भारत-भारती के कितने ही अंश गाकर उन्होंने सबको मुग्ध कर दिया। मुझे जो खुशी हुई
उसकी सीमा नहीं।”(5)
वे सिर्फ साहित्य सेवा ही नहीं थे। समाज सेवी
व सुधारक भी थे। अनेक विधवा स्त्रियों की सहायता व पालन किए थे। कन्या विकटों तथा
रोगियों के लिए खूब सहायता भी द्विवेदी ने किया।
प्रकाशकों के लालची के बारे में भी लिखा है। “शारदा पुस्तक माला” प्रकाशकों (सेठ गोविंददास)
से कुछ रकम आना था। प्रकाशकों को दुबारा पत्र लिखा कि दि. 23 जनवरी 1929 में कामता
प्रसाद गुरु के नाम पर इस प्रकार लिखा है
कि – “मैं विशेष रुग्ण हूँ। शरीर का कुछ ठिकाना नहीं। कुछ दान करना चाहता
हूँ। यह रुपया मिल जाए तो इसे भी हिंदू विश्वविद्यालय या किसी संस्था को अर्पण कर
दूँ।”(6)
वे सच्चे साहित्यकार
ही नहीं देश भक्त भी थे। खड़ीबोली हिंदी
को एक रुपाकार देने का पूरा का पूरा श्रेय उनको ही मिलता है। उन्होंने अनेक
विख्यात साहित्यकारों की रचनाओं को भी ठीक करके हिंदी साहित्य भंडार को श्रीवृध्दि
किया है।
संदर्भ :-
1.
आचार्य महावीर प्रसाद
द्विवेदी रचनावली-14, सं. भारत यायावर, पृ.सं. 446
2. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली-14,
सं. भारत यायावर, पृ.सं. 237
3. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली-14,
सं. भारत यायावर, पृ.सं. 467
4. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली-14,
सं. भारत यायावर, पृ.सं. 218
5. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली-14,
सं. भारत यायावर, पृ.सं. 220
6. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली-14,
सं. भारत यायावर, पृ.सं. 334