अभिनय और दृश्य योजना का सफल प्रयोग : 'सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक'

 


अभिनय और दृश्य योजना का सफल प्रयोग : 'सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक'

आचार्य. एस.वी.एस.एस.नारायण राजू.

आलोचन दृष्टि

Aalochan Drishti,

ISSN No:  2455-4219

An International Peer Reviewed Refereed Research Journal of Humanities

Year – 8, Volume – 33

July – September, 2023.

यह सर्व विदित सत्य है कि नाटक का मूलाधार रंगमंच है. इसीलिए नाटककार रंगमंच के आधार पर ही नाटक का सृजन करता है. सफल नाटककार को रंगमंच की स्पष्ट परिकल्पना होती है जिसके अभाव में नाटक लिखा तो जाता है पर रंगमंच पर प्रदर्शित नहीं होता. नाटक का रंगमंचीय होना अत्यंत महत्वपूर्ण है. सफल रूप से प्रदर्शित नाटक को ही सफल नाटक माना जाता है. नाटककार नाटक की रचना रंगमंच पर प्रदर्शित करने के लिए ही करते हैं. नाट्य लेखन का उद्देश्य ही है उसे रंगमंच पर प्रदर्शित करना. प्रसिद्ध आधुनिक नाटककार मोहन राकेश, लक्ष्मीनारायण लाल और सुरेन्द्र वर्मा भी इसी मत में विश्वास रखते हैं कि जो नाटक प्रदर्शन की क्षमता से वंचित हो, वह सफल नाटक नहीं है. रंगमंचीय विशेषताओं को अभिनय, रंग सज्जा तथा परदे, ध्वनि एवं प्रकाश व्यवस्था के आधार पर परखने की प्रथा पाई जाती है. नाटककार सुरेन्द्र वर्मा के नाटकों में अभिनय, रंग सज्जा तथा परदे, ध्वनि एवं प्रकाश व्यवस्था के आधार पर अनेक विशेषताएँ पाई जाती है.

'सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक' नाटक में शीलवती, ओक्काक, महामात्य, महाबलाधिकृत और अन्य पात्रों द्वारा वाचिक एवं आंगिक अभिनय रसोध्घाटन करता है. नाटक के प्रारंभ में महत्तरिका का गहरी साँस लेते हुए यह कहना “मुझसे सहन नहीं हो रहा है वह श्रृंगार इसलिए ।" (1) दर्शक में उत्सुकता उत्पन्न कर देता है .फिर फीकी मुस्कान द्वारा अनहोनी की  ओर इंगित करते व्यंग्य करना भी नाटक के प्रारंभ से ही दर्शक को पकड़ कर रखता है.ओक्काक का अन्तर्मुख-सा होकर दिन गिनती करना" (2) "दोनों हथेलियों से माथा ठोकना" (3)दृष्टि बचाकर ग्लानिमिश्रित क्रोध में आना " (4) ओक्काक की ग्लानि, क्रोध, आत्मविश्वास की कमी और निस्सहायता को दर्शाता है.नाटक के शुरू से अंत तक ओक्काक की आंगिक चेष्टाओं में और वाचिक अभिनय में निस्सहायता ग्लानि और क्रोध झलकता है. ओक्काक का अभिनय श्रोताओं में उसके प्रति सहानुभूति जगाता है. ईश्वर को संबोधित करता यह अभिनय ओक्काक की दुःस्थिति को प्रकट करता है यथा -

"ओक्काक : (खीझता हुआ) लेकिन कैसा है बनाने का यह ढंग? इसका रूप क्या होगा? (कुछ आगे बढ़ आता है. दोनों हाथ ऊपर उठाकर, भर्राए स्वर में) हे प्रभु ! क्या संसार की सारी ग्लानि मेरे ही भाग में आनी थी ।"(5 )

'ओक्काक : (दोनों कानों पर हाथ रखकर, ऊँचे स्वर में) मत बोलिए मेरे सामने यह शब्द !.... मुझे इस शब्द से घृणा है... धर्मनटी ।" (6)

 

विवश रूप में लंबी साँसे लेना, और दोनों कानों पर हाथ रखने का अभिनय ओक्काक की मानसिक स्थिति को प्रकट करता है.

शीलवती का अभिनय इस नाटक की सफलता का मूल एवं मुख्य कारण है. पहले अंक के अभिनय में शारीरिक भंगिमाओं की कमी शीलवती के आत्मविश्वास का सूचक है जबकि दूसरे अंक में प्रतोष के साथ उत्साह देखा जा सकता है.'प्रतोष के बाहुमूल पर कपोल रगड़ना, अधरों से छूकर फिर उसके बाँहों में समेटने " (7)का अभिनय दर्शक की धड़कन को तेज कर देता है. शीलवती के द्वारा ऐसा अभिनय करवाकर सुरेन्द्र वर्मा दर्शक के इन्द्रियों को उत्तेजित करता है. तीसरे अंक में, प्रतोष से शारीरिक तृप्ति पाकर लौटने के बाद शीलवती के आंगिक एवं वाचिक अभिनय में तीव्रता देखी जा सकती है जो उसके आत्मविश्वास, तृप्ति एवं परिपूर्णता को बताता है.शीलवती की कसमसाना, ठंडी साँस भरना, गहरी साँस लेकर सूँघने का अभिनयन करके ओक्काक को चिढ़ाने का यह सफल प्रयत्न है, यथा -

" ओक्काक :  (मन्द स्मित से) तो... ? कैसी बीती रात ?

शीलवती : (कसमसाकर, ठंडी साँस के साथ) पता ही न चला कि कब भोर हो गई .... और तुम्हारी ?

ओक्काक : (कुछ ठहरकर, हल्की मुस्कान से) यह शयनकक्ष साक्षी है.. ये भित्तियाँ और गवाक्ष ... यह गन्ध कैसी है ?.. (शीलवती हँसती है.कुछ ऊँचे स्वर में) बोलो न ?... कैसी हैं यह गन्ध ? (फिर हँसती है) अंगराग ?.. (हर शब्द पर नाहीं में सिर हिलाती है) गोरोचन ?... लाक्षारास ?... सुरभि ?

शीलवती : (उन्मादिनी-सी) नहीं.. कुछ भी नहीं...... ?

ओक्काक : (विह्वल होकर) तब फिर.

शीलवती : (सूँघने की गहरी साँस लेकर) सूँघो.. पहचानो.....

ओक्काक : (तीव्र स्वर में) शीलवती !

शीलवती : (स्थिर दृष्टि से देखती है) इस गन्ध से तुम्हारा कोई परिचय नहीं... अगर होता, तो कल की यह रात न मेरे जीवन में आती, न तुम्हारे.

ओक्काक : (किंकर्तव्यविमूढ)-सा कक्ष का आधा चक्कर लगाता है.यकायक, दाँए द्वार की ओर मुड़कर) महत्तरिका... महादेवी के स्नान की व्यवस्था हो.

शीलवती : (उतनी ही ऊँचे स्वर में) नहीं.... (सहज स्वर में) अभी नहीं ........ (8)

शीलवती का अभिनय दर्शक को यह अनुभव कराता है शीलवती ने प्रतोष के साथ काम में कैसी तृप्ति पाई है. शीलवती का अभिनय इतना प्रभावशाली है कि मानो विवाहित दर्शक अपने अनुभवों को याद करने लगता है और अविवाहित दर्शक इस प्रक्रिया से गुजरना चाहता है.

उसके बाद शीलवती का एक के बाद एक करके महामात्य, महाबलाधिकृत और राजपुरोहित से आत्मविश्वास के साथ आँखों में आँखें मिलाकर प्रश्न करने का अभिनय अति उत्तम है. शीलवती से ऐसा अभिनय करवाकर नाटककार दर्शक को उत्तेजित करता है और दर्शक शीलवती से पूरी तरह जुड़ जाता है और रचनाकार के उद्देश्य को स्वीकार करता है.

दृश्य योजना को लेकर समय के साथ अनेक बदलाव आ रहे हैं. विज्ञान का प्रभाव रंगमंच पर भी पड़ने लगा है इसीलिए एक सा प्रतीत दृश्य योजना रंग सज्जा और दृश्य बंध को अलग-अलग करके देखा जा रहा है (जबकि सबको मिलाकर रंग सज्जा कहने का प्रचलन है. दृश्यबंध और दृश्य सज्जा में सूक्ष्म अंतर है. दृश्य बंध वह रंग संस्कार है जो पूरे नाटक में एक सा रहता है. जबकि दृश्य सज्जा को दृश्य विशेष के समाप्त होने पर रंगमंच से हटा लिया जाता है. साठोत्तर नाटकों में एक दृश्य बंध को प्रकाश योजना के द्वारा कई दृश्यों या दृश्य सज्जा के रूप में प्रतिष्ठित करने की नवीन प्रथा का प्रयोग हुआ है. सुरेन्द्र वर्मा ने एक ही दृश्यबंध को प्रकाश योजना के द्वारा अलग-अलग दृश्यों में या अलग-अलग कालावधि के रूप में प्रदर्शित किया है।

'सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक' में नाटक का दृश्यबंध राजप्रसाद का शयनकक्ष है. नाटक सूर्यास्त, रात्रि के विभिन्न पहर और सूर्योदय, तीन अंकों में पूरा होता है. तीनों को एक ही दृश्यबंध में बांध दिया गया है. नाटककार ने इसके लिए संदूकिया दृश्यबंध (बाक्स सेट) की कल्पना की है. नाटक का दृश्यबंध ऐसा है कि-

"राजप्रसाद का शयनकक्ष. मंच की अगली सीमा पर दाई और बाईं ओर एक-एक द्वार. दाँए के बाद मदिराकोष्ठ, बाँए के बाद चौकी पर दर्पण एवं प्रसाधन सामग्री, सामने आसन्दी. बाईं ओर बड़ा जालगवाक्ष बाई तथा सामने की दीवार के लगभग मध्य भाग से लेकर दोनों (दीवारों) के सम्मिलन एक मंच के बीचोंबीच ऊपर से लटकता मुक्तालाप. सामने की दीवार के पास शैय्या कुछ आसन एवं चौकियाँ ।" (9)

इस एक दृश्यबंध के द्वारा नाटककार ने तीन अंकों और तीन अलग-अलग समय के पहरों को आसानी से प्रस्तुत किया है. नाटक में शैया एक प्रमुख बिंदु के रूप में उभरकर आता है. शैया सारे नाटक की केन्द्रिय संवेदना को प्रकट करता नाटक का निर्णायक बिन्दु रखता है. इस दृश्यबंध की सराहना करते हुए जयदेव तनेजा लिखते हैं कि- "नाटककार ने दृश्यबंध को पर्याप्त लचीला बनाकर ओक्काक तथा महत्तरिका और प्रतोष तथा शीलवती के समानान्तर चलते दृश्यों को उनके पूरे वैषम्य और नाट्य - वैभव के साथ कलात्मकता से प्रस्तुत किया है." (10) एक ही सेट में नाटककार ने दृश्य बदलते ही कभी ओक्काक तथा महत्तरिका, फिर प्रतोष तथा शीलवती और फिर ओक्काक को बताया है.

नाटक के पहले अंक में राजप्रांगण के दृश्य को महत्तरिका गवाक्ष से देखने और राजप्रांगण में नागरिकों की भीड़ और शीलवती का प्रतोष को जयमाला पहनाने के कृत्य की जानकारी ओक्काक को देने का दृश्य सुरेन्द्र वर्मा की प्रयोगशीलता का परिचय देता है. नाटककार ने यहां पर राजप्रांगण के दृश्य को न बताकर एक ही सेट से काम लिया और राजप्रांगण के दृश्य को बताने से ज्यादा महत्वपूर्ण शयनकक्ष में पीड़ा, विवशता, जिज्ञासा और करुणा का अनुभव कर रहे ओक्काक और उसकी प्रतिक्रिया को दर्शकों तक पहुँचाकर उस पात्र के साथ सहानुभूतिा उत्पन्न करना है.इसी दृश्य के बारे में पाण्डेय विनय भूषण का कहना है कि-

"महत्तरिका द्वारा गवाक्ष से राजप्रांगण के दृश्य का चित्रण शास्त्रीय दृष्ट से 'सूच्य' और 'दृश्य' का मिश्र प्रयोग होने के कारण एक अनूठा शिल्प प्रयोग बन गया है." (11)

नाटककार ने राजप्रसाद के शयनकक्ष का प्रयोग प्रतोष के शयन कक्ष के रूप में किया है. नाटक में ओक्काक और प्रतोष के लिए वह एक शैया अलग-अलग शैया लगे श्रोता के लिए वह शैया एक ही है, उस पर शीलवती को 'लेने-देने' वाला व्यक्ति अलग है.

संदर्भ

1.   सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक – सुरेंद्र वर्मा – पृ. सं. 20

2.   सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक – सुरेंद्र वर्मा – पृ. सं. 24

3.   सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक – सुरेंद्र वर्मा – पृ. सं. 24

4.   सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक – सुरेंद्र वर्मा – पृ. सं. 25

5.   सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक – सुरेंद्र वर्मा – पृ. सं. 26

6.   सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक – सुरेंद्र वर्मा – पृ. सं. 27

7.   सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक – सुरेंद्र वर्मा – पृ. सं. 58

8.   सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक – सुरेंद्र वर्मा – पृ. सं. 68-69

9.   सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक – सुरेंद्र वर्मा – पृ. सं. 19

10.सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक – सुरेंद्र वर्मा – पृ. सं. 17

  11.हिंदी के नए नाटकों में प्रयोग तत्व - पाण्डेय विनय भूषण – पृ. सं. 125.


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