“चुप नहीं हैं ईश्वर” में सामाजिक यथार्थ
“चुप नहीं हैं ईश्वर” में सामाजिक यथार्थ
अचार्य. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू
साहित्य सृजन की समकालीनता
(ईश्वर करुण अभिनंदन ग्रंथ)
ISBN No. 978-81-7965-343-2
तक्षशिला प्रकाशन, नई
दिल्ली.
प्रकाशन वर्ष : 2022
चुप नहीं हैं
ईश्वर में कवि अपने
कविता द्वारा सामाजिक परिवेश में स्थित विषमता को व्यक्त करने की कोशिश करते है.
आतंकवाद एक विश्वव्यापी समस्या बन गयी है । जिसकी जड़े कई देशों में फैलती आ रही
है. आतंकवादियों को क्रांतिकारी कहलाना गलत होगा, क्योंकि ये आतंकवादी समस्याओं के समाधान करने के बजाय उनका
फायदा उठाते हैं और समाज में दहशत फैलाने के लिए मक्सद की तलाश करते हैं, यथा " आतंकवादियों का जनहित में कोई कारण नहीं
होता है. अल - खायदा कोई प्रादेशिक स्वाधीनता के नाम पर आतंक फैलाते है , नक्सलवादी तो कोई इन आतंकवादी हमलों का फायदा उठाते हुए किसी धार्मिक
समुदाय पर आतंक फैलाते हैं , इन के मनसूबे कुछ भी हो पर उसका
नुक्सान सिर्फ सामान्य औरत बच्चे और पुरूषों को ही होता है और समाज में दहशत
फैलाता हैं." (1)
'बेनजीर' नामक
कविता में ईश्वर करुण कहते हैं कि आतंकवाद किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं है और न
ही इसका कोई धर्म जाति और न ही लिंग होता हैं. आतंकवाद को अमीर - गरीब वर्ग में भी
नहीं बाँट सकते हैं क्योंकि सभी मानवों के शरीर में बहने वाले रक्त का रंग लाल
होता है, आँसू दुख पड़ने पर सभी आँखों से बहते है, यथा
"तुम्हें
भी वैसे ही मारा ,
जैसे मारा था
उन्होंने हमारे राजीव को
उन्हें मारने
वाली महिला थी
जबकि तुम्हें
मारनेवाला पुरुष.”(2)
बेनजीर
भुट्टों जो पाकिस्तान की पहली महिला प्रधानमंत्री थी. बेनजीर को मरने वाला खुद
मुसलमान था. भारत के पूर्व प्रधानमंत्री
राजीव गांधी को मारने वाली महिला बाहरी देश की थी. अतंकवादी के अंदर तो मानवता का
नाम ही नही है. वे सिर्फ अपना खौफ समाज में फैलाना चाहता है. अतंकवादी किसी के
उँगली में नाच रहे गड़िया की तरह होते हैं.
समाज को ईश्वर करुण यह बोध करवाना चाहते हैं कि – यथाः
"आज
आतंकवाद के जहरीले दाँत
बुलेट और बम
में बदल गए हैं.
किंतु बेचारी
गर्दन वही की वही है”(3)
आतंकवाद को वायरस कहा जा सकता है जिसका काम सिर्फ फैलाना. ये आतंक फैलाने
वाले , यह नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं. उसका अंत या
परिणाम क्या होगा ? बम बनाने से लेकर बम ब्लास्ट करने वालों
में से किसी को यह पता नहीं होता कि इस छोटे से खिलोने से कितनों की जिंदगी मौत से
बदतर हो जाएगी. आज आतंकवाद विज्ञान को अपने पक्ष में लेकर और निशाना निर्दोष लोगों
पर कर रहे हैं. भारत और पाकिस्तान दोनों ही देश बहुसंख्या जनता यह चाहती है कि
दोनों के बीच संबंध मधुर रहे तनाव न हो. यथा –
“हमको मालूम है.
तुम मेरे
दोस्त हो
तुमको भी है
पता ,
दोस्त हो तुम
मेरे”(4)
सामाजिक चेतना
' हम विज्ञान के क्षेत्र में देख सकते
हैं. आज जमीन से अंतरिक्ष तक वैज्ञानिक प्रगति हो रही है. समाज के लिए विज्ञान
अभिशाप होने लगा है. कम्प्यूटर और रिमोट कंट्रोल से न जाने क्या - क्या किया जा
सकता है जिसकी वजह से समाज में सुख - शांति नष्ट होते जा रहा है. आधुनिक कविताओं
में विज्ञान के अभिशाप से संबंधित कविता स्थान पाती जा रही है. कवि आज की सामाजिक
धाराणाओं पर चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं मानव मशीनी जिंदगी जी रहा है. यथा –
“कि अगर मैंने
खुद को
मशीन नहीं
बनाए रखा
तो मेरा
नियोक्ता मेरी जगह
ले आएगा मशीन."
(5)
सच है आज मनुष्य को मशीन अपनी मुट्टी में ऐसे कसकर रखी हैं जिस से मानव को
बाहर निकलना मुश्किल है. ईश्वर करुण समाज में स्त्री की स्थिति एवं परिवर्तन अपने
कविताओं में खूब चर्चा किया है, यथा --
“स्त्री!
मक्त होना
चाहती है देह से
होना चाहती है
विचार भय
किंतु
वह चाहती भी
सुंदर देह
जो साठ की
उम्र में भी
उसकी पोतियों
के जिन्स पैन्ट
और टी - शर्ट
में फिट बैठ . . .
जिसे देखकर
का पुरुषों की
भी टपके लार”(6)
कहते हैं कि
प्राचीन काल से लेकर वर्तमान काल तक आते - आते महिलाओं की स्थिति अत्यधिक सुदृढ़
एवं मजबूत हो गई है. उनके साथ लिंग के आधार पर है. आज महिलाएं अपनी
इच्छानुसार कोई भी कार्य करे तो उसके बाधक जरूर उत्पन्न होगा. जब साठ साल की बूढी अपनी पोती के जिन्स - पैन्ट और टी - शर्ट पहनती है तो
पुरुषों के मुहँ से टपकते है लार. कोई भी स्त्री अपने देह
दिखाने की शौक नहीं करती है. उसे समाज अपने नज़रों से दबाकर
रखती है. समाज ने स्त्री को लक्ष्मी, दुर्गा
काली, आदि शब्दों से वर्णन करते थे जब तक स्त्री पुरुषों के
अधीन थी. लेकिन आधुनिक काल में जब स्त्री अपने इच्छानुसार
कार्य करती है, अपने व्यक्तित्व के विकास और आर्थिक
आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए घर से बहार निकलती है. तब समाज
उसे कुलटा शब्दों का प्रयोग करती है. आज काम काजी महिलाओं को
अपने ऊपर बहुत ध्यान देना पड़ता है उसकी बातचीत उसका आचरण, हँसना
- बोलना, पहनावा - ओढ़ना सबकुछ मर्यादित रहे. ताकि सहकर्मी गलत अर्थ न लगाए. थोड़ी सी असावधानी
हो जाए तो छेड़ - छाड़, शारीरिक शोषण, मानसिक
यातनाएँ इत्यादि स्त्री को झेलना पड़ता हैं. जहाँ तक देखे तो
समाज द्वारा मास मीडिया में स्त्री की देह के प्रदर्शन की सीमा नहीं हैं. इसलिए कभी - कभी नारी की देह प्रदर्शित की जाती है यह अपराध माना जाता है. कवि का कथन है कि
"उसने
मरकर यह सिद्ध कर दिया ,
देह प्यार
नहीं है , देह तो बस ' देह’ है”(7)
"ईश्वर
करुण ‘ सिल्क स्मिता ' तमिल अभिनेत्री के बारे में चित्रण करते हुए कहते हैं कि समाज ने उसे
बाहरी दृश्य तो अपनाया किंतु अतंरित
मनोभावों से ठुकरा दिया. स्वार्थ समाज ने उसे समाज का अंग
बनाने से इनकार कर दिया.
आर्थिक आधार
सदैव समाज को प्रभावित करता रहता है. आज शहर में रह रहे कई लोग ऐसे है जो गरीबी की रेखा में हैं
जिन्हें भरपेट अनाज नहीं मिलता है. भूख तो भूख होती है. भूख को तृप्त करने के लिए धन कमाने की होड़ में इन्सान जानवर से भी बदतर
हो जाता है. कवि भूख की भाषा 'कविता
में' ‘भूख’ को कई रूपों से व्यक्त किया
है. दिण्डुक्कल में झंखार रिक्शा लिये, अजमेर में ताँगेवाला, दिल्ली में ऑटोवाला आदि एक
वक्त की रोटी मिलने की उम्मीद में वे सब कवि के पीछे भाग पड़े. समाज दो वर्गों में बँट गया है शोषक और शोषित. शोषक
अपने अर्थ शक्ति के बल पर गरीबों का धन चूसकर उन्हें और गरीब बनाता है. अपने घर के सदस्यों को पेट भरने के लिए शोषित करना है. यथा
“दिण्डुक्कल
में
मेरे बस से
उतरते ही
सिर पर फटी
टोपी लगाये
झंखार रिक्शा
लिये ' वह दौड़ पड़ा”(8)
समाज में आज देखे तो नगर जीवन बहुत परिवर्तन
होती जा रहा है. माहौल ऐसा बन गया हैं यहाँ तक कि आस - पास के लोग भी अनजान हो गए है. जब व्यक्ति गाँव से शहर की ओर आता है उसे कई समस्याओं को झेलना पड़ता है. जिस तरह कवि ने अपनी कविता ‘कहाँ भेज दिया मुझे’ के द्वारा आज के पीढ़ी को परिवार, संस्कार, मानव
चेतनाओं के मूल्यों को समझाना चाहते हैं. जब बेटी शादी करके
पति के साथ शहर आती है तब उसे अपने सगे - संबंध की याद आती है. शहर में न तो प्राकृतिक सौंदर्य है न लोग नज़र उठा कर बाते करते हैं. ‘स्नेह’ नाम की कोई मूल्य नहीं रहा. शहर में सिर्फ अकेलपन ही रह जाती है एवं मानसिक रूप से व्यक्ति की हालत
खराब हो जाती है. शहरी, वैश्वीकरण और
समृद्धि की ओर बढ़ती समाज में माहिलाओं का उत्पीड़न कम होने के बजाय बढ़ता ही जा
रहा हैं. शहरी समाज में महिलाओं पर बढ़ती हिंसा का यह
सम्भवतः सबसे बीभत्स रूप है. यह पीड़ित के अंगों को तो विकृत
करता ही है, जीवन भर के लिए अकेलापन व भावात्मक पीड़ा सहने
को भी मजबूर करता है. महिला अपने आप को सुरक्षित महसूस नहीं
कर पाती है. समाज में क्रूर पुरूषों के नजरों में हर क्षण
स्त्री यौन की शिकार हो जाती है. इसके बारे में कवि अत्यंत
मार्मिक ढंग से इस प्रकार प्रस्तुत करते है कि –
“पुरूषों की
आँखों में मात्र कामुकता है
तो स्त्रियों
की आंखों में गुरूर
पवित्र स्नेह
और वात्सल्य
पिछली सदी में
चले गए हैं
माँ ! कहाँ
भेज दिया मुझे”(9)
वर्तमान समाज
में नारी की ओर बढ़ती प्रवृत्ति के प्रति कवि आक्रोश व्यक्त करते हैं. समाज में नारी की व्यवहारिक जीवन में
कठोरता और मनोवृत्ति का परिचय विडंबनापूर्ण है. कवि की
मान्यता है कि आज सम्पूर्ण भारतीय समाज असहज अवस्था में है.
वैश्वीकरण को हित केलिए न करते हुए अपने अहित में कर लिया.
यह सच है कि आज समाज में महिलायें शिक्षा, फिल्मों, साहित्य, खेल, मीडिया विज्ञान
के क्षेत्र में अपनी पहचान बना रही है लेकिन इसके साथ ही छोटी सी बच्ची से लेकर
वृद्ध महिला आज अपने घर समाज देश में सुरक्षित नहीं है. समाज
में आज आतंकवाद, दंगे आदि की समस्या बड़ी अभिशाप बन कर रह गई. समाज में राजनीतिक अपराध बढ़ती जा रही है कभी धर्म के नाम तो कभी
भ्रष्टाचार के नाम. अतः समाज में गरीबी और अमीरी का अनुपात,
अन्य विसंगतियों से दबा हुआ है. इस प्रकार कवि
ने “चुप नहीं हैं ईश्वर” में आज के वर्तमान परिस्थियों में स्थित सामाजिक यथार्थ का
सफल अंकन किया है.
संदर्भ :
1. डॉ मीनाझी व्यास, समकालीन भारतीय समाज, पृ. सं. 169.
2. ईश्वर करुण, चुप नहीं है ईश्वर, पृ. सं. 71.
3. ईश्वर करुण, चुप नहीं है ईश्वर, पृ. सं. 84.
4. ईश्वर करुण, चुप नहीं है ईश्वर, पृ. सं. 84.
5. ईश्वर करुण, चुप नहीं है ईश्वर, पृ. सं. 65.
6. ईश्वर करुण, चुप नहीं है ईश्वर, पृ. सं. 64.
7. ईश्वर करुण, चुप नहीं है ईश्वर, पृ. सं. 64.
8. ईश्वर करुण, चुप नहीं है ईश्वर, पृ. सं. 60.
9. ईश्वर करुण, चुप नहीं है ईश्वर, पृ. सं. 60.