श्रीलाल शुक्ल: सादगी, मौलिकता और व्यंग्य का प्रतीक

 

श्रीलाल शुक्ल: सादगी, मौलिकता और व्यंग्य का प्रतीक

आचार्य. एस.वी.एस.एस.नारायण राजू.

स्रवंति,

मासिक पत्रिका, जून- 2025,

ISSN No.2582-0885.

हिंदी साहित्य में व्यंग्य लेखन की परंपरा को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाने वाले श्रीलाल शुक्ल एक अत्यंत प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे. उनका लेखन केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं था, बल्कि सामाजिक विडंबनाओं और राजनीतिक विसंगतियों को भी बड़े ही तीखे और सटीक ढंग से उजागर करता था. उनकी भाषा शैली, कथ्य की प्रवाहमयता और गहरी अंतर्दृष्टि ने उन्हें समकालीन हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया.

श्रीलाल शुक्ल का जन्म 31 दिसंबर 1925 को उत्तर प्रदेश के लखनऊ जिले के अंतरौली गाँव में हुआ था. उनका परिवार एक साधारण किसान परिवार था, लेकिन शिक्षा और संस्कारों की गहरी जड़ें थीं. उनके दादा, पंडित गदाधर प्रसाद शुक्ल, कई भाषाओं के जानकार थे. वे संस्कृत, हिंदी, उर्दू और फारसी में पारंगत थे और संगीत प्रेमी भी थे. लेकिन अफसोस की बात है कि श्रीलाल शुक्ल के जन्म से पहले ही उनका निधन हो गया. उनके पिता, पंडित ब्रज किशोर शुक्ल, हिंदी और संस्कृत साहित्य में रुचि रखते थे और उन्होंने बचपन से ही श्रीलाल शुक्ल को इन भाषाओं की समृद्ध परंपरा से परिचित कराया था. वे अपने पिता के संदर्भ में स्वयं ही लिखते हैं कि – “मेरे पिता को निर्धनता, सात्विकता और लिपिबद्ध विचार तथा संगीत का संस्कार विरासत में मिला.”(1) उनका परिवार आर्थिक रूप से ज्यादा संपन्न नहीं था. उनके पिता का कोई स्थायी रोजगार भी नहीं था. कभी खेती से गुजारा करते, तो कभी दूसरी परिस्थितियों के अनुसार जीवनयापन करना पड़ता था. श्रीलाल शुक्ल जब प्रयाग विश्वविद्यालय में बी.ए. की पढ़ाई कर रहे थे, तभी 1945 में उनके पिता का निधन हो गया, जिससे परिवार की आर्थिक स्थिति और कठिन हो गई. लेकिन जीवन के इन्हीं संघर्षों ने उन्हें यथार्थवादी दृष्टि दी, जो आगे चलकर उनके लेखन में गहरी संवेदनशीलता और पैने व्यंग्य के रूप में दिखाई देती है.

श्रीलाल शुक्ल की माँ गाँव के वातावरण में पली-बढ़ीं, लेकिन उन्हें पढ़ने-लिखने का अवसर मिला. सीमित संसाधनों के बावजूद वे हिम्मती और जिज्ञासु स्वभाव की थीं. डॉ. पी. वी. कोटमे लिखते हैं कि – “माता का संबंध ग्रामीण जीवन से था. ग्रामीण परिवेश में रहकर भी उन्हें पढ़ने-लिखने का मौका मिल गया था. साधनहीन होते हुए भी वे उदारमना तथा उत्साही प्रवृत्ति की थी. जिन्दगी के बहुरंगी पक्षों के प्रति उनका उत्साह कभी कम नहीं हुआ. लेखक ने उन्हें 57 साल की उम्र में रायफल चलाना सिखाया था. सन् 1960 में अपने कनिष्ठ पुत्र भवानी शुक्ल के पास अलमोडा में उनका देहान्त हुआ.”(2)

श्रीलाल शुक्ल की प्रारंभिक शिक्षा मोहनलालगंज के एक छोटे से कस्बे में हुई. उनका बचपन अभावों में बीता, लेकिन उन्होंने जैसे-तैसे अपनी पढ़ाई पूरी की. 1945 में इंटर पास करने के बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बी.ए. में दाखिला लिया. एम.ए. और कानून की पढ़ाई का भी प्रयास किया, लेकिन आर्थिक तंगी के कारण जारी नहीं रख सके. बी.ए. के बाद कुछ समय तक उन्होंने लखनऊ के कान्यकुब्ज वोकेशनल इंटर कॉलेज में अध्यापन किया. 1949 में उनका चयन उत्तर प्रदेश सिविल सेवा (पी.सी.एस.) में हुआ और आगे चलकर वे आई.ए.एस. बने. अपने प्रशासनिक कार्यकाल में उन्होंने कभी समझौता नहीं किया. ईमानदारी, मेहनत और व्यावहारिक सोच के कारण उनकी प्रतिष्ठा बनी. 1973 में वे आई.ए.एस. पद पर पदोन्नत हुए और कुछ समय इलाहाबाद में प्रशासक के रूप में कार्य किया. 30 जून 1983 को वे सेवानिवृत्त हुए. अपने प्रशासनिक अनुभवों को उन्होंने साहित्य में भी बखूबी व्यक्त किया. इस संदर्भ में अखिलेश लिखते हैं कि – “शासन के वरिष्ठ अधिकारी होने के नाते अनेक मुख्यमंत्रियों, अधिकारियों, विधायकों और उनके दलालों का अध्ययन करने का उन्हें अवसर मिला. यही कारण है कि एक से एक दिग्गज राजनेताओं की जन्मपत्री उनके पास है. उनकी योग्यताओं, अयोग्यताओं, आकांक्षाओं और उनके अंतर्विरोधों को वह बखूबी समझते हैं.”(3)

 1948 में उनका विवाह कानपुर की गिरिजा जी से हुआ. पारिवारिक जीवन खुशहाल रहा. उनके तीन बेटियाँ - रेखा, मधूलिका और विनीता, तथा एक बेटा आशुतोष है. 1991 में गिरिजा जी को पक्षाघात हुआ, जिसके बाद श्रीलाल शुक्ल ने छह वर्षों तक पूरी निष्ठा से उनकी देखभाल की. लेकिन फरवरी 1997 में वे इस दुनिया को छोड़ गईं.

श्रीलाल शुक्ल के इलाहाबाद में कई पुराने मित्र थे, जिनमें केश्वचन्द्र वर्मा, धर्मवीर भारती, विजयदेव नारायण साही, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, जगदीश गुप्त जैसे प्रसिद्ध साहित्यकार शामिल थे. वे इलाहाबाद की मित्रमंडली के संदर्भ में लिखते हैं, "पर मेरी स्थिति बहुत हद तक तटवर्ती रही, वहाँ मैं प्रैक्टिसिंग साहित्यकार न था."(4) उनके अन्य मित्रों में अज्ञेय, धूमिल, विद्यानिवास मिश्र, रवींद्र वर्मा, रवींद्र कालिया आदि थे.

श्रीलाल शुक्ल का स्वभाव बेहद सहज और सरल था. वे जैसे अंदर से थे, वैसे ही बाहर से भी थे. दिखावे से दूर, वे हमेशा वास्तविकता को समझने और परखने में रुचि रखने वाले व्यक्ति थे. समाज के ताने-बाने को पहचानने की उनकी क्षमता गजब की थी, और यही कारण था कि वे पाखंड पर सीधा वार करने वाले लेखक माने जाते थे. उनके लेखन की खासियत उनकी सादगी और मौलिकता थी. सरकारी ऑफिसर होने के बावजूद उनमें अफसरी का घमंड नहीं था, और नौकरी से रिटायर होने के बाद तो वे पूरी तरह से आम जीवन में रम गए थे. उनका व्यक्तित्व उदारता और गरिमा से भरा हुआ था, जो उनकी रचनाओं में भी दिखाई देता है. जिंदगी में चाहे कितनी ही मुश्किलें आईं, उन्होंने हमेशा धैर्य और समझदारी से उनका सामना किया और कभी भी अपने मूल्यों से समझौता नहीं किया.

वे एक ऐसे लेखक थे, जिन्होंने समाज की असलियत को नजदीक से देखा और अपने लेखन में उसे बेबाकी से पेश किया. एक विषय पर व्यंग्य करते हुए वे कई अन्य विषयों पर भी व्यंग्य करते थे, जैसे - "आज की परीक्षाएँ छात्रों के लिए भले ही बेकार हों, मास्टरों के लिए बड़े काम की हैं."(5) उन्होंने सरकारी तंत्र में फैले भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी और आम लोगों की परेशानियों को बहुत करीब से समझा और अपने व्यंग्य के माध्यम से इन्हें उजागर किया. उनकी नजर इतनी पैनी थी कि वे साधारण से व्यक्ति में भी समाज की गहरी सच्चाइयाँ देख लेते थे. अपने नौकर-चपरासियों में वे कभी-कभी अपना ही अतीत देखते थे, और इसी वजह से उनके प्रति उनके मन में एक अलग तरह की संवेदनशीलता थी. वे कई भाषाओं के जानकार थे - हिंदी, उर्दू, संस्कृत और अंग्रेजी पर उनकी अच्छी पकड़ थी, और वे इन भाषाओं में आसानी से संवाद कर सकते थे.

उनकी सादगी ही उनकी सबसे बड़ी ताकत थी. उनके लिए साहित्य केवल शब्दों का खेल नहीं था, बल्कि जीवन को समझने और व्यक्त करने का जरिया था. वे मानते थे कि लेखक को समझना आसान नहीं होता, बल्कि यह किसी पालतू जानवर को समझने से भी ज्यादा मुश्किल काम है. वे नए लोगों से मिलना पसंद करते थे, समाज की हलचलों पर नजर रखते थे, संगीत, सिनेमा, खेल और प्रकृति से उन्हें विशेष लगाव था. लेकिन वे अंधविश्वास, ज्योतिष, जादू और प्रवचन करने वालों से हमेशा दूरी बनाए रखते थे और इन सब पर उनकी नजर हमेशा आलोचनात्मक रहती थी. उनका व्यक्तित्व न पूरी तरह से ग्रामीण था और न पूरी तरह से शहरी. अखिलेश ने लिखा है कि - "श्रीलाल शुक्ल में गुणवत्ता अधिक है. उनका पहनावा, रहन-सहन, खानपान हर जगह आपको देहात और नगर का सहअस्तित्व दिखेगा. वह सूट-बूट टाई में दिखेंगे तो धोती-कुर्ते में भी दिखेंगे."(6)

वे हमेशा कमजोर और पीड़ित लोगों के साथ खड़े रहते थे. अन्याय के खिलाफ उनकी लेखनी कभी नहीं रुकी. उनका सबसे बड़ा गुण उनकी निष्कपटता थी, और यही उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबसूरती थी. वे नए विचारों और नए अनुभवों के लिए हमेशा उत्सुक रहते थे और हर सीख को जीवन का अमूल्य हिस्सा मानते थे.

      श्रीलाल शुक्ल ने 1955 में अपने साहित्यिक सफर की शुरुआत की. यह यात्रा आसान नहीं थी, कई संघर्षों और चुनौतियों से गुजरते हुए उन्होंने अपनी लेखनी को एक ठोस पहचान दी. उन्होंने उपन्यास, कहानी, व्यंग्य, आलोचना, निबंध, संपादन, साक्षात्कार और अनुवाद जैसी अनेक विधाओं में लेखन किया. हालांकि, शुरुआत में वे काव्य-रचना की ओर आकर्षित थे, लेकिन जल्द ही उन्हें एहसास हुआ कि गद्य में उनकी अभिव्यक्ति अधिक सशक्त हो सकती है. लेखन के प्रति उनकी रुचि बचपन से ही थी और गाँव के साहित्यिक माहौल ने इसे और अधिक विकसित होने का अवसर दिया. मात्र बारह-तेरह वर्ष की उम्र में उन्होंने पारंपरिक छंदों में कविताएँ लिखनी शुरू कर दी थीं. लेकिन जब उन्होंने रेडियो नाटकों में अतिशयोक्ति और कृत्रिमता देखी, तो उनके खिलाफ प्रतिक्रिया स्वरूप स्वर्णग्राम और वर्षा जैसी व्यंग्यप्रधान यथार्थवादी रचनाएँ लिखीं. हालाँकि प्रारंभ में उन्होंने कविता लिखी, लेकिन आगे चलकर उन्होंने गद्य को ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया. उनकी रचनाएँ समाज की सच्चाइयों को उकेरती हैं और मानवीय व्यवहार की बारीकियों को दर्शाती हैं. यही कारण है कि उनका लेखन आज भी प्रासंगिक बना हुआ है. श्रीलाल शुक्ल की निम्न रचनाएं हैं – (उपन्यास) - सूनी घाटी का सूरज (1957), अज्ञातवास (1962), राग दरबारी (1968), आदमी का ज़हर (1972), सीमाएँ टूटती हैं (1973), मकान (1976), पहला पड़ाव (1987), संजय और विजय (1994), विश्रामपुर का संत (1998), बब्बर सिंह और उसके साथी (1999), राग-विराग (2001). (कहानी संग्रह) - यह घर मेरा नहीं (1955), सुरक्षा तथा अन्य कहानियाँ (1969), उमरावनगर में कुछ दिन (1969), इस उम्र में (2003), दस प्रतिनिधि कहानियाँ (2003). (व्यंग्य-संग्रह) - अंगद का पाँव (1958), यहाँ से वहाँ (1970), मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ (1979), कुछ जमीन पर, कुछ हवा में (1993), आओ बैठ लें कुछ देर (1995), अगली शताब्दी का शहर (1996), खबरों की जुगाली (2006). (जीवनी लेखन) – भगवती चरण वर्मा (1989), अमृतलाल नागर (1994). (आलोचना) – अज्ञेय : कुछ रंग और कुछ राग (1999). श्रीलाल शुक्ल की ये रचनाएँ भारतीय समाज, राजनीति और प्रशासनिक तंत्र की गहरी पड़ताल करती हैं. उनकी लेखनी में व्यंग्य और यथार्थ का अद्भुत मेल देखने को मिलता है, जो उन्हें समकालीन हिंदी साहित्य में एक विशिष्ट स्थान प्रदान करता है.

श्रीलाल शुक्ल द्वारा लिखित ‘राग दरबारी’ (1968) उपन्यास हिंदी साहित्य का एक कालजयी उपन्यास है, जो गाँव की पृष्ठभूमि में भारतीय समाज की मूल्यहीनता और व्यवस्था की विसंगतियों को उजागर करता है. संपूर्ण उपन्यास शिवपालगंज तक ही सीमित है, लेकिन इसकी अंतर्वस्तु देशव्यापी है.  उपन्यास के केंद्रीय पात्र वैद्यजी हैं, जिनके इर्द-गिर्द उपन्यास की संपूर्ण कथा घूमती है. उनकी बैठक में मौजूद लोग सत्ता, भ्रष्टाचार और ताकत के खेल में सदैव लिप्त रहते हैं. कथा का दायरा भले ही शिवपालगंज तक सीमित हो, लेकिन इसकी विषयवस्तु पूरे देश की सामाजिक और राजनीतिक सच्चाइयों को उजागर करती है. ‘राग दरबारी’ एक संगीत राग भी है, जिसे मध्यकालीन सामंतों को प्रसन्न करने के लिए गाया जाता था. यह व्यंग्यात्मक शैली में लिखी गई ऐसी रचना है, जिसने हिंदी गद्य को नया आयाम दिया. इस उपन्यास में शिवपालगंज नामक गाँव के माध्यम से राजनीति, भ्रष्टाचार, शिक्षा, न्याय, प्रशासन और सामाजिक संरचना की विडंबनाओं को दर्शाया गया है. वैद्यजी, रंगनाथ, सनीचर, जोगनाथ, लंगड़ जैसे औपन्यासिक पात्र भारतीय लोकजीवन के प्रतीक बन गए हैं. लेखक ने इस उपन्यास के माध्यम से यह संदेश दिया है कि सत्ता से जुड़े रहने के लिए व्यक्ति को परिस्थितियों के अनुरूप ढ़लना आना चाहिए. श्रीलाल शुक्ल ने इस उपन्यास में भारतीय लोकतंत्र के क्षरण, प्रभावशाली लोगों के दबदबे और सामाजिक पतन का सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है.

 ‘सीमाएँ टूटती हैं’ नामक उपन्यास  जो 1973 में प्रकाशित हुआ, एक जटिल सामाजिक कथा को प्रस्तुत करता है. इसकी मुख्य घटनाएँ व्यापारी दुर्गादास नामक पात्र के इर्द-गिर्द घूमती हैं, जिसे अपने साझेदार गोविंद की हत्या के आरोप में आजीवन कारावास की सजा मिलती है. दुर्गादास के मित्र विमल, पुत्र राजनाथ, पुत्रवधू नीला और पुत्री चाँद इस सजा के खिलाफ अदालत में अपील करते हैं. उपन्यास में न केवल दुर्गादास हत्याकांड को केंद्र में रखा गया है, बल्कि विमल और चाँद के प्रेम-प्रसंग तथा विमल और जूही के रिश्ते को भी रोचक अंदाज में प्रस्तुत किया गया है.

‘बिस्रामपुर का संत’ श्रीलाल शुक्ल द्वारा लिखित एक प्रखर सामाजिक उपन्यास है, जिसकी कथा भूदान आंदोलन की हकीकत को उजागर करती है. कुंवर जयंती प्रसाद, जो एक बुजुर्ग राजनीतिज्ञ हैं, इस कहानी के केंद्र में हैं. इस उपन्यास में उन्होंने दर्शाया है कि किस तरह भूदान की आड़ में जमीन गरीबों तक पहुँचने के बजाय संस्थाओं के हाथों में सिमट गई और उनके अध्यक्ष ही नए ज़मींदार बन बैठे.  हालात वही रहे, जैसा पहले था, वैसा ही अब भी है. अंततः गरीब की झोली खाली ही रह गई. जयंती प्रसाद बाहर से आदर्शवादी दिखते हैं, लेकिन भीतर से वे विलासी, स्वार्थी और ढोंगी इंसान हैं. उम्र के इस पड़ाव पर भी वे अपनी जवान बहू सुंदरी की ओर आकर्षित होते हैं और उससे जबरदस्ती करने की कोशिश करते हैं. मगर जब उन्हें यह अहसास होता है कि उनका बेटा विवेक सुंदरी से विवाह करना चाहता था, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.  इसी पश्चाताप और ग्लानि में जयंती प्रसाद आत्महत्या कर लेते हैं. यह उपन्यास राजनीति, समाज और नैतिक पतन के कई पहलुओं को बेनकाब करता है और भूदान आंदोलन की असलियत को पाठकों के समक्ष लाता है.

इस प्रकार, श्रीलाल शुक्ल हिंदी साहित्य में व्यंग्य लेखन की परंपरा को नई ऊँचाइयों तक ले जाने वाले एक विलक्षण रचनाकार थे. उनका लेखन केवल मनोरंजन का साधन नहीं था, बल्कि समाज की सच्चाइयों को उजागर करने का एक प्रभावशाली माध्यम भी था. वे न केवल अपने समय के विद्रूपताओं को उजागर करते थे, बल्कि समाज की गहरी और जटिल वास्तविकताओं को भी बारीकी से पहचानते थे. उनके पास ग्रामीण और शहरी जीवन की गहरी समझ थी, और उनका प्रशासनिक अनुभव व पैनी दृष्टि उनकी रचनाओं को अत्यधिक विशिष्ट बनाती थी.

उनके उपन्यास, कहानियाँ और व्यंग्य-संग्रह आज भी समाज की विद्रूपताओं और मानविकी के विभिन्न पहलुओं को प्रतिबिंबित करते हैं, जो पाठकों का न केवल मनोरंजन करते हैं, बल्कि उन्हें सोचने पर मजबूर भी करते हैं. उनकी रचनाओं में सरलता, सादगी और मानवीय संवेदनाओं की गहरी छाप है, जो उनके व्यक्तित्व की विशेषता रही. उनकी लेखनी की यह सहजता और गहराई उनके जीवन की सच्चाईयों को उद्घाटित करती है और यह साहित्यिक दृष्टि से अत्यधिक मूल्यवान है.

श्रीलाल शुक्ल का साहित्य न केवल उनके समय में, बल्कि आज भी प्रासंगिक बना हुआ है. उनका लेखन आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अमूल्य धरोहर है, जो उन्हें समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का बोध कराता है. उनकी रचनाएँ न केवल साहित्यिक दृष्टि से, बल्कि सामाजिक दृष्टिकोण से भी मार्गदर्शक सिद्ध होती हैं, और वे हमें यह सिखाती हैं कि साहित्य का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज को समझने और सुधारने का भी होता है.

संदर्भ :

1.   यह मेरा घर नहीं - श्रीलाल शुक्ल, किताबघर प्रकाशन, 1995, पृ.सं. – 113.

2.   श्रीलाल शुक्ल के उपन्यासों का शिल्प विधान - डॉ. पी. वी. कोटमे, चंद्रलोक प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2004, पृ.सं. – 19.

3.   श्रीलाल शुक्ल की दुनिया - सं.अखिलेश, राजकमल प्रकाशन,दिल्ली,2000, पृ.सं.– 61.

4.   यह मेरा घर नहीं, श्रीलाल शुक्ल -  किताबघर प्रकाशन, 1995, पृ.सं. – 115.

5.   मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनायें -श्रीलाल शुक्ल,ज्ञान भारती प्रकाशन,दिल्ली, पृ.सं. –108.

6.   श्रीलाल शुक्ल की दुनिया - सं.अखिलेश, राजकमल प्रकाशन,दिल्ली, 2000, पृ.सं.–10.


 

 

 

 

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