एक जीवन दर्शन और व्यक्तित्व विकास की संहिता : रामचरितमानस

 


एक जीवन दर्शन और व्यक्तित्व विकास की संहिता

: रामचरितमानस

            आचार्य. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू

International Journal of Hindi Research www.hindijournal.com

ISSN: 2455-2232

Received: 27-05-2025, Accepted: 26-06-2025, Published: 12-07-2025

Volume 11, Issue 3, 2025,

Page No. 11-13

Abstract (सारांश) :

 “एक जीवनदर्शन और व्यक्तित्व विकास की संहिता : रामचरितमानस” आलेख में यह दर्शाने का प्रयास किया गया है कि श्रीरामचरितमानस मात्र एक धार्मिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि वह भारतीय जीवन-दर्शन, मानसिक स्वास्थ्य और व्यक्तित्व निर्माण का समग्र शास्त्र भी है. आज के तनावग्रस्त और भागदौड़ भरे जीवन में जब व्यक्ति मानसिक दबाव से ग्रस्त रहता है, तब यह ग्रंथ व्यवहारिक दृष्टिकोण, नैतिक अनुशासन और आंतरिक संतुलन का मार्ग प्रशस्त करता है. इस आलेख में विशेष रूप से सुंदरकांड के माध्यम से श्रीहनुमान जी के चरित्र का विश्लेषण करते हुए यह प्रतिपादित किया गया है कि अपने कार्य के प्रति समर्पण, परिस्थिति के अनुसार प्रतिक्रिया देना, संयमित व्यवहार रखना और सत्यनिष्ठा जैसे गुण कैसे तनाव मुक्ति और व्यक्तित्व विकास में सहायक होते हैं.  साथ ही, यह आलेख बताता है कि झूठ बोलने जैसी साधारण आदतें भी कैसे हमारे मानसिक ढाँचे को प्रभावित करती हैं और उनसे मुक्ति कैसे पाई जा सकती है.

 

रामचरितमानस के प्रसंगों, जैसे सुरसा, लंकिनी, विभीषण के संवाद के माध्यम से यह आलेख जीवन की जटिलताओं से जूझने की आंतरिक क्षमता को जाग्रत करने का संदेश देता है.  अंततः यह लेख इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि रामचरितमानस को केवल धार्मिक संदर्भों में न रखकर, जीवन-शिक्षा और व्यक्तित्व परिष्कार के संदर्भ में अपनाया जाना ही वर्तमान समय की मांग है.

 

 

Keywords (मुख्य शब्द) :
रामचरितमानस, सुंदरकांड, व्यक्तित्व विकास, मानसिक तनाव, हनुमान, जीवन-दर्शन, सत्य, व्यवहारिक शिक्षा, तुलसीदास, कार्यनिष्ठा, लक्ष्यबद्धता, संस्कृतिक मूल्य, तनाव मुक्ति, आत्मविकास, नैतिकता, श्रीराम, भारतीय परंपरा, मानसिक शांति, आधुनिक जीवन.

 

 

श्रीरामचरितमानस केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि यह भारतीय जीवन-दर्शन, व्यक्तित्व निर्माण और मानसिक शांति का अक्षय स्रोत है. वर्तमान समय में जब हर जगह और हर संदर्भ में लोग स्ट्रेस् अर्थात् मानसिक तनाव व मानसिक दबाव के बारे में चर्चा करते रहते हैं और परेशान होते रहते हैं. वास्तव में व्यक्तित्व विकास के संदर्भ में  सबसे बड़ा अवरोध है मानसिक तनाव. मानसिक तनाव से बचने के लिए श्रीरामचरितमानस अत्यंत उपयोगी है. श्रीरामचरितमानस के विषय में बताने से पहले, एक दैनंदिन जीवन के उदाहरण से आरंभ करना चाहता हूँ. झूठ मत बोलना. तो हम यह नहीं सोचते हैं कि झूठ नहीं बोलना चाहिए या हमें राजा हरिश्चन्द्र जैसे बनना है. जहां हम सौ झूठ बोलते हैं वहाँ चार-पाँच झूठ ही अनिवार्य हो सकता है. दिक़्क़त यही है कि अनावश्यक हम अधिकांश झूठ बोलते हैं. जब कोई बड़ा व्यक्ति अपने यहाँ आमंत्रित करता है और अगर हम नहीं पहुँच पाते तो अगले दिन यह बताते हैं कि सिर दर्द के कारण नहीं आ पाया हूँ, यही बात कई और लोग पूछते हैं, सभी को एक हीं उत्तर - सिरदर्द कहना पड़ता है. बार-बार यही बोलते रहने से यह बात हमारे माइंड रूपी हार्डडिस्क में सेव हो जाती है. और इतनी बात हार्डडिस्क में सेव नहीं हो सकती. इस झूठ से होता यह है कि जो बात दिमाग़ में सुरक्षित रखना है वह नहीं रख पाते बल्कि अनावश्यक चीजें रखते हैं. इससे स्ट्रेस या तनाव बढ़ जाता है. और यह तनाव मानसिक तनाव बनकर उभरता है. इस तनाव से उभरने के लिए हम counsellor के पास appointment लेकर जाते है. पैसे खर्च करते हैं. वह बताता है कि – DON’T TELL LIES. बात सिर्फ़ पैसे खर्च की नहीं होती, बल्कि हम अपना अमूल्य समय भी इस पर खर्च करते हैं. यही बात हमारे पूर्वजों ने भी कहा था. लेकिन हम उनके द्वारा बताए गए अमूल्य सुझावों पर कभी  ध्यान से नहीं सोचते और न हीं साहित्य से जुड़ी हुई बातों पर ध्यान देते हैं. अगर हम ध्यान से पढ़ लें तो चाहे कबीर हो, तुलसी हो या विभिन्न भारतीय भाषा के विद्वान हो. इन्हें पढ़ने के बाद हमें किसी तनाव का बोध नहीं होगा. कोरोना के दौर में जो हाथ में सेनेटाइजर लगाने की बात थी, वह ग़लत नहीं था लेकिन उसके कई नुक़सान भी हैं.इससे सम्बंधित हीं श्रीरामचरितमानस के उत्तरकांड में एक पद के द्वारा यह समझ सकते हैं कि भारत किस प्रकार स्वास्थ्य के प्रति सतर्क रहने वाला देश है. प्रभु श्री रामचंद्र जी लंका से माता सीता जी, लक्ष्मण जी, श्रीहनुमान सहित अयोध्या आ रहे हैं, पुष्पकविमान के पहुँचते हीं, सभी अयोध्यावासी वहाँ पहुँच गए हैं. सभी उत्साहित भी है. क्योंकि वे चौदह वर्षों के बाद राम को देख पा रहे हैं. वे एक क्षण भी राम को अपनी दृष्टि से अलग नहीं करना चाहते हैं. उसी प्रसंग को ध्यान में रखते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं –

“बीथीं सकल सुगंध सिंचाई.गजमनि रचि बहु चौक पुराईं।
नाना भाँति सुमंगल साजे.हरषि नगर निसान बहु बाजे।”(1)

इसका अर्थ यह हुआ कि - सारी गलियाँ सुगंधित द्रवों से सिंचाई गईं.   गजमुक्ताओं से रचकर बहुत सी चौकें पुराई गईं. अनेकों प्रकार के सुंदर मंगल साज सजाए गए और हर्षपूर्वक नगर में बहुत से डंके बजने लगे. ये जो द्रव है वह ऐसा है सुगंधित द्रव अर्थात् spices extracted water. जिससे सारे हानिकारक बैक्टीरिया नष्ट हो जाते हैं. और न ही इसका कोई साइडइफ़ेक्ट है. इस भारत देश में शुरू से हीं सबकुछ है. कोरोना से बचने के लिए वैद्यों ने कुछ उपाय बताएँ – जैसे – जेब में कपूर को रखिए. उससे इस महामारी से बचा जा सकता है.

सनातन भारत में एक परम्परा है चाहे कोई भी सामूहिक कार्य हो, पूजा, अर्चना हो या आराधना हो, यहाँ आरती की परम्परा है. इस संदर्भ में श्रीरामचरितमानस में एक पंक्ति है –

“करहिं आरती आरतिहर कें । रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें॥”(2)
इसका अर्थ यह हुआ कि – राम आर्तिहर (दुःखों को हरने वाले) और सूर्यकुल रूपी कमलवन को प्रफुल्लित करने वाले सूर्य श्री राम जी की आरती कर रही हैं.      जहां-जहां लोग बैठे हैं वहीं से वे आरती दे रहे हैं दूर-दूर पर होने से हानिकारक बैक्टीरिया वग़ैरह की भी सम्भावना नहीं रह जाती. भारत में हर चीज़ की दवा है. गीता, या रामायण की बात की जाए तो यह काव्य नहीं है बल्कि शास्त्र है. अर्थात् विज्ञान है. विज्ञान से तात्पर्य यह है कि जो तर्क के साथ है. दैनिक जीवन में हम किस प्रकार से जियें. समय को किस तरह से सही प्रयोग में लाएँ.

अब यह देखिए कि हनुमान किस लिए हमारे आदर्श हैं. हनुमान लंका अपने कार्य से नहीं गए. बल्कि वह राम के कार्य से गए. अब हनुमान जी के प्रसंग के माध्यम से ‘व्यक्तित्व विकास’ के बारे में बताना चाहता हूँ. श्री हनुमान जी को  मैं ‘टास्क मास्टर’ मानता हूँ. क्योंकि उनको पता है कि उनका क्या कार्य है. वे बलशाली और बुद्धिशाली दोनो हीं है. जैसे हीं हनुमान लंका के लिए प्रस्थान करते हैं वैसे हीं समुद्र में उन्हें सुरसा नाम की राक्षसी मिलती है. एक पद देखिए-

“आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।सुनत बचन कह पवनकुमारा॥

राम काजु करि फिरि मैं आवौं।सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥”(3)

सुरसा कहती है- आज देवताओं ने मुझे भोजन दिया है. यह वचन सुनकर पवनकुमार श्रीहनुमान जी ने कहा- श्री राम जी का कार्य करके मैं लौट आऊँ और माता सीता जी की खबर प्रभु को सुना दूँ फिर मैं आपका आहार बनूँगा. उन्होंने अपने बारे में कोई बात नहीं बताई. क्योंकि वह जिस कार्य के लिए गए थे वही उनके लिए मुख्य था. एक और पद देखिए-

“तब तव बदन पैठिहउँ आई।सत्य कहउँ मोहि जान दे माई॥

कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना।ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥”(4)

श्रीहनुमान जी कहते हैं अभी मुझे जाने दीजिए, आकर तुम्हारे मुँह में घुस जाऊँगा (तुम मुझे खा लेना) हे माता! मैं सत्य कहता हूँ, अभी मुझे जाने दे. जब किसी भी उपाय से उसने जाने नहीं दिया, तब हनुमान जी ने कहा- तो फिर मुझे खा लो.

यह ज्ञात ही है कि जैसे हीं सुरसा ने हनुमान को खाने की कोशिश कि वे अपना आकार बढ़ाते गए, और फिर सूक्ष्म रूप धरकर सुरसा के मुँह में गए और वापिस आ गए. इससे हमें यह पता चलता है कि जिस कार्य को हम कर रहे हैं उसी के अनुरूप हमें व्यवहार करना चाहिए. हनुमान समुद्र पार कर लेते हैं. लेकिन यहाँ उनका कार्य अलग है इसलिए कुछ समय इंतज़ार करते हैं.  आधी रात में वे चलना शुरू कर देते हैं.

“मसक समान रूप कपि धरी.लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥

नाम लंकिनी एक निसिचरी.सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥”(5)

श्रीहनुमान जी मच्छड़ के समान (छोटा सा) रूप धारण कर नररूप से लीला करने वाले भगवान्‌ श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके लंका को चले परंतु लंका के द्वार पर लंकिनी नाम की एक राक्षसी रहती थी. वह बोली- मेरा निरादर करके अर्थात् बिना मुझसे पूछे कहाँ चला जा रहा है?.

             “जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा.मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥

              मुठिका एक महा कपि हनी.रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥”(6)

हे मूर्ख! तूने मेरा भेद नहीं जाना जहाँ तक जितने चोर हैं, वे सब मेरे आहार हैं. महाकपि श्रीहनुमान जी ने उसे एक घूँसा मारा, जिससे वह खून की उलटी करती हुई पृथ्वी पर लुढ़क पड़ी यहाँ राक्षसी की भाषा में हीं उसे समझाते हैं.
फिर हनुमान एक-एक स्थान पर सीता माँ को ढूँढते हैं.

“रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।

नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराई॥”(7)

लंका  में एक ऐसा महल मिला जो - महल श्री राम जी के आयुध (धनुष-बाण) के चिह्नों से अंकित था, उसकी शोभा वर्णन नहीं की जा सकती.वहाँ नवीन-नवीन तुलसी के वृक्ष-समूहों को देखकर कपिराज श्री हनुमान जी हर्षित हुए. एक और कथन देखिए-

“लंका निसिचर निकर निवासा.इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥

मन महुँ तरक करैं कपि लागा.तेहीं समय बिभीषनु जागा॥”(8)

लंका तो राक्षसों के समूह का निवास स्थान है. यहाँ सज्जन (साधु पुरुष) का निवास कहाँश्रीहनुमान जी मन में इस प्रकार तर्क करने लगे. उसी समय विभीषण जी जागे. हनुमान जी को जब यह लगा कि इस लंका में एक यही सज्जन है तो वे ब्राह्मण का रूप धारण करके विभीषण के पास गए.

“बिप्र रूप धरि बचन सुनाए.सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥

करि प्रनाम पूँछी कुसलाई.बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥”(9)

ब्राह्मण का रूप धरकर हनुमान जी ने उन्हें पुकारा, वचन  सुनते ही विभीषण जी उठकर वहाँ आए. प्रणाम करके कुशल पूछी और कहा कि हे ब्राह्मणदेव! अपनी कथा कहिए.तब हनुमान सारी राम कथा विभीषण को बताते हैं. एक उदाहरण देखिए-

“तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।

सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम॥”(10)

तब हनुमान जी ने श्री रामचंद्रजी की सारी कथा कहकर अपना नाम बताया. सुनते ही दोनों के शरीर पुलकित हो गए और श्री रामजी के गुण समूहों का स्मरण करके दोनों के मन प्रेम और आनंद में मग्न हो गए.

यहाँ भी हनुमान जी अपनी कार्य-कुशलता दिखाते हैं. ये सब वार्तालाप होते हीं वे सीता माँ के पास पहुँचते हैं, वहाँ भी अपने विषय में कुछ नहीं बताते बल्कि राम के विषय में बताकर सीता का विश्वास जीतते हैं, और बताते हैं कि वे राम का दूत बनकर यहाँ आए हैं.

“सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा.लागि देखि सुंदर फल रूखा॥

सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी.परम सुभट रजनीचर भारी॥”(11)

सीता माँ से अनुमति माँगते हुए वे कहते हैं - हे माता! सुनिए, सुंदर फल वाले वृक्षों को देखकर मुझे बड़ी ही भूख लगी है. माता सीता जी ने कहा- हे बेटा! सुनो, बड़े भारी योद्धा राक्षस इस वन की रखवाली करते हैं.

तब हनुमान कहते हैं आप चिंतित न हो, बस अनुमति दीजिए. वहाँ जाकर वे फल खाते हैं कई रखवालों से भिड़ते भी हैं. फिर मेघदूत आता है और वह उन्हें ब्रह्मफाँस में फँसा लेता है. हनुमान चाहते तो बच जाते लेकिन ऐसा करने पर ब्रह्मा का अपमान होता इसलिए बंदी बन जाते हैं. लंका आने से पूर्व जामवन्त ने हनुमान जी से कहा था कि आपको स्वयं से कुछ विशेष नहीं करना बल्कि प्रभु श्रीराम के बारे में रावण को बताना ही है. जामवन्त के सलाह के माध्यम से तुलसीदास बताना चाहते हैं कि युवा पीढ़ी को अपने बड़े बुजुर्ग की बात माननी चाहिए. उन्होंने कहा था कि रावण के पास जाकर उससे युद्ध नहीं करना, बस प्रभु श्रीराम का संदेश दे देना. जब लंकावासी उन्हें मारने लगते हैं तो चुपचाप होकर हनुमान जी बस देखते रहते हैं, और सोचते हैं कब तक यह होगा, जब उनके पूँछ में वे सब आग लगा देते हैं फिर तो उसके बाद वे कुछ हीं क्षण में विभीषण के महल को छोड़कर पूरी लंका में आग लगा देते हैं. फिर तुरंत हीं वे समुद्र में जाकर आग बुझाते हैं, और फिर सीता माँ के पास जाकर उनसे उनकी चूड़ामणि लेकर वापिस आते हैं. इससे हमें यह समझ आता कि लोग कहते हैं कि जब कोई दुःख, कष्ट आए तो सुंदरकांड का पाठ करें तो वह दुःख दूर हो जाता है. यह कांड आज भी प्रासंगिक है, किस तरह हम काम आकर इसका उल्लेख भी हमें यहाँ मिल जाता है. क्या करना है, और क्या नहीं करना है अगर इसका पता हमें चल जाए तो सारा तनाव दूर हो जाता है. तनाव का यह भी कारण है कि हम अपने कार्यों से ज़्यादा दूसरों का काम देखते हैं.  लेकिन इतने कांडों में सिर्फ़ सुंदरकांड हीं क्यों? क्योंकि सुंदरकांड में हनुमान जी के माध्यम से हमें यह सब भी पता चल जाता है.

सुरसा, लंकिणी, विभीषण, आदि लोगों किया हुआ व्यवहार से यह पता चलता है कि हमारे सामने उपस्थित परिस्थितियाँ, परिवेश और व्यक्तियों के अनुरुप हमारी प्रतिक्रिया होनी चाहिए. इससे तनाव अपने आप दूर हो जाती है.

इस प्रकार, आज के भागदौड़ और दिखावे भरे जीवन में जहाँ हर व्यक्ति किसी न किसी मानसिक दबाव और तनाव से जूझ रहा है, वहाँ रामचरितमानस केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि एक ऐसा जीवंत मार्गदर्शन है, जो व्यक्तित्व को भीतर से सँवारने की सामर्थ्य रखता है. यह काव्य नहीं, एक शास्त्र है. एक ऐसा शास्त्र जो तर्क, अनुभव और जीवन व्यवहार से जुड़ा हुआ है.

हनुमान जी जैसे चरित्रों के माध्यम से यह ग्रंथ हमें सिखाता है कि कार्य के प्रति समर्पण, लक्ष्य के प्रति स्पष्टता, परिस्थिति के अनुसार व्यवहारिक चातुर्य और अपने स्वभाव में विनम्रता, ये सभी वे गुण हैं जो न केवल मानसिक तनाव से रक्षा करते हैं, बल्कि व्यक्तित्व को ऊँचाइयों तक भी ले जाते हैं.

झूठ बोलने जैसी साधारण सी दिखने वाली आदतें जब बारंबार दोहराई जाती हैं, तो वे हमारी मानसिक संरचना को ही प्रभावित करने लगती हैं. वहीं, सत्य जैसे जीवन-मूल्य, जो हमारे संतों और ग्रंथों ने सदियों से सिखाए हैं, जीवन को न केवल सरल बनाते हैं, बल्कि मानसिक रूप से भी स्वस्थ रखते हैं.

रामचरितमानस का सुंदरकांड विशेष रूप से इस बात को स्पष्ट करता है कि जीवन में संकटों से कैसे निपटा जाए, और किस प्रकार विवेकपूर्ण निर्णय लेकर हम हर बाधा को पार कर सकते हैं. सुरसा, लंकिनी, विभीषण और माता सीता के प्रसंग यह दर्शाते हैं कि परिस्थिति चाहे जैसी हो, यदि हमारे भीतर लक्ष्य के प्रति दृढ़ता और मन में प्रभु के प्रति विश्वास हो, तो तनाव स्वयं नष्ट हो जाता है.

इसलिए, आज आवश्यकता इस बात की है कि हम रामचरितमानस जैसे ग्रंथों को केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित न रखें, बल्कि उन्हें जीवन का अंग बनाकर पढ़ें, समझें और अपने व्यवहार में उतारें. तभी हम न केवल मानसिक तनाव से मुक्त हो पाएँगे, बल्कि एक संतुलित, सजग और समर्थ व्यक्तित्व की ओर भी अग्रसर हो सकेंगे.

संदर्भ  

(1) रामचरितमानस, उत्तरकांड, पृ. सं. – 916

(2) रामचरितमानस, उत्तरकांड, पृ. सं. – 916

(3) रामचरितमानस, सुंदरकांड, पृ. सं. – 715

(4) रामचरितमानस, सुंदरकांड, पृ. सं. – 715

(5) रामचरितमानस, सुंदरकांड, पृ. सं. – 718

(6) रामचरितमानस, सुंदरकांड, पृ. सं. – 718

(7) रामचरितमानस, सुंदरकांड, पृ. सं. – 719

(8) रामचरितमानस, सुंदरकांड, पृ. सं. – 719

(9) रामचरितमानस, सुंदरकांड, पृ. सं. – 720

(10) रामचरितमानस, सुंदरकांड, पृ. सं. – 720

(11) रामचरितमानस, सुंदरकांड, पृ. सं. – 730

 


 

 

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