डॉ. आर. शौरीराजन से साक्षात्कार
संवाद
डॉ. आर. शौरीराजन से
साक्षात्कार
प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू
बहुब्रीहि, अर्ध्दवार्षिक पत्रिका,
जलाई-दिसंबर-2013
प्र. : आप अपने जीवन का प्रारंभिक परिचय दीजिए।
ज : मेरा जीवन तमिलनाडु के तंजाऊर
जिले के कारप्पनकाड में 11 दिसंबर 1927 में हुआ। सामान्य मध्य वर्गीय परिवार का हूँ। पिताजी का नाम श्री
रंगस्वामी अय्यंगार, माताजी का नाम
रंगनायकी है। मेरे पिताजी अधिक शिक्षित नहीं थे। एक गुमास्ता (क्लर्क) के रुप में काम
करते थे। पेरिगवाडनदान गाँव में पाँचवी कक्षा तक मेरी पढ़ाई हुई थी। बाद में दूसरे
गाँव में जो मन्नारगुडी शहर के पास था, हाई स्कूल की पढ़ाई हुई थी। नौवी कक्षा के बाद मुझे वहाँ की
संस्कृत पाठशाला में भर्ती करा दिया गया। सरफोजी राजा के कॉलेज में भर्ती हुए थे।
संस्कृत के न्याय शिरोमणि (एम.ए. के समकक्ष) उत्तीर्ण हुए थे। वहीं हिंदी की पढ़ाई का आरंभ हुआ। वहाँ के
प्रचारक श्री रघुपति के यहाँ हिंदी पढ़ाई शुरु हुई।
प्र. : साहित्य के प्रति रुचि कब उत्पन्न हुई?
ज : मन्नारगुडी में दक्षिण भारत
में हिंदी प्रचार सभा की ओर से हिंदी विशारद विद्यालय चलाया जाता था। वहाँ शामिल
हुए। उस समय बी.एम. कृष्णस्वामी, पी. वेंकटाचारी, डॉ. बालशौरि रेड्डी, ई. तंगप्पन आदि हमारे
अध्यापक थे। वहाँ एक साल की पढ़ाई हुई। वहाँ के ग्रंथालय में लग-भग एक हजार पुस्तकें थी। वहीं मैंने प्रेमचंद की कहानियाँ, राहुल सांकृत्यायन के घुमक्कड़ शास्त्र और वोलगा से गंगा, जयशंकर प्रसाद आदि साहित्यकारों की कहानियाँ पढ़ी थीं। साहित्यिक
अभिरुचि तभी से उत्पन्न हुई। पहले से ही मैं तमिल का लेखक रहा हूँ, स्थानीय पत्रिकाओं में हमारी रचनाएँ, लेख, कहानियाँ आदि छपती
थीं। विद्यालय की पढ़ाई के बाद सभा की तमिलनाडु शाखा के सचिव श्री अवधनंदन जी ने
मेरी साहित्यिक अभिरुचि को देखकर केंद्रीय सभा के साहित्य विभाग में काम करने के
लिए भेज दिया। डॉ. बालशौरि रेड्डी जी
ने मेरे भीतर हिंदी साहित्य के प्रति गहरी रुचि पैदा की। डॉ. रेड्डी जी ने लगातार मुझे साहित्य अध्ययन करने के लिए मार्ग दर्शन
किया। तब वे अध्यापक थे। बाद में हम दोनों ने दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के
साहित्य विभाग में एक साथ काम किया। आलूरि बैरागी जी ओर आरिगपूडी रमेश चौधरी जी से अच्छा संपर्क रहा।
प्र. : क्या आपने अध्यापन कार्य भी किया है?
ज : मुझे रामकृष्ण मिशन स्कूल में हिंदी अध्यापक के रुप में नियुक्त करने के लिए
तैयार थे। पूज्य बापूजी की प्रेरणा से मैं हिंदी प्रचार कार्य से अलग होना नहीं
चाहता था। इसीलिए सभा में ही सेवारत रहने का निश्चय किया। नगर सचिव के रुप में
पूरे मद्रास शहर में दर्जनों आंशिक विद्यालय मैंने प्रारंभ कराये थे। हिंदी
अध्यापकों के लिए हिंदी प्रशिक्षण कक्षाएँ भी चलाई थीं। शांति निकेतन में काम करने
के लिए तोमर जी ने निमंत्रण भेजा था। आलवार साहित्य को हिंदी में लाने और तमिल
पढ़ाने के लिए आचार्य के रुप में काम करने के लिए निमंत्रण मिला। परंतु मैंने सभा
को छोड़ा ही नहीं। दिल्ली के साउथ इंडियन हाई स्कूल से भी निमंत्रण मिला। मुझको
विशेष रुप से बुलाया। परंतु मैंने स्वीकार नहीं किया। मैं गाँधी जी की हिंदी
संस्था में ही काम करना चाहता था। क्योंकि मैं गर्व से ही कहा करता था कि गाँधीजी द्वारा
स्थापित संस्थान में काम कर रहा हूँ।
प्र. : आपकी विभिन्न रचनाएँ किन-किन पत्रिकाओं में छपती थीं?
ज : मेरी कई रचनाएँ हिंदी प्रचार
समाचार और दक्षिण भारत पत्रिकाओं में छपती थीं। साथ ही बंबई के नवनीत, धर्मयुग, आजकल, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादंबिनी आदि पत्रिकाओं में मेरे मौलिक लेख और अनूदित कहानियाँ
छपती थी। “द्राविड़ कौन थे” लेख की धर्मवीर भारती ने खूब
प्रशंसा की थी।
प्र. : आप अपनी मौलिक रचनाओं के बारे में बताइए।
ज : तमिल में कहानी, उपन्यास, बाल-साहित्य, नाटक आदि दर्जनों
रचनाएँ प्रकाशित हुई। विवरण इस प्रकार है – 1. सौभाग्यवती (कहानी संग्रह) (1966,1998), 2. नाषिकिणरु (कहानी संग्रह) (1967), 3. इंदियाविन् कलैयुम कलाचारमुम् (निबंध संग्रह) (1963, 1995), 4. आनरोर कथैकल (1963), 5. अषिचाक कथैकल (1962), 6. भारत नाट्टु पषम कथैकल (1964,1996), 7. बुध्दर कथैकल (1963,1995), 8. अरिव कथैकल (1990,1995), 9. रामानुजर कथैकल (1963), 10. जय जय भवानी (ऐतिहासिक उपन्यास) (1968)
हिंदी में
रचनाएँ इस प्रकार है – 1. तमिल संस्कृति, 2. द्राविड संस्कृति का समन्वयात्मक इतिहास, 3. तमिल जैन साहित्य का इतिहास, 4. राष्ट्र कवि सुब्रह्मण्य भारती से राष्ट्र नेता राजाजी तक, 5. तमिल के लोक गीत, 6. तमिल साहित्य की प्रवृत्तियाँ, 7. आत्मसंताप (नई कविताएँ), 8. आजादी की बिगुल बजी
(बालोपयोगी), 9. मार्ग दर्शी महात्मा (बालोपयोगी), 10. तमिल की काव्य कथाएँ (बालोपयोगी), 11. अभिज्ञान (निबंध संग्रह) आदि।
प्र. : आप एक सफल तथा उत्तम अनुवादक भी हैं, इसके बारे में बताइए?
ज : मैंने बहुत अनुवाद कार्य किया।
संस्कृत महाविद्यालय में पढ़ते वक्त ही मलयालम सीखी। आगे चलकर मैंने ही सर्वप्रथम
मलयालम साहित्य का तमिल अनुवाद किया। कहानी, उपन्यास, नाटक आदि सभी का
अनुवाद किया है। ये सब साहित्य अकादमी, नेशनल बुक ट्रस्ट के माध्यम से प्रकाशित भी हो चुके है। मलयालम से तमिल में अनूदित
रचनाएँ इस प्रकार हैं – 1. संगमम् (एस.के. पोट्रोकाट की कहानियाँ) (1960), 2. सुंदरियुमु सुंदररकलम् (उर्दू का सामाजिक उपन्यास) (1974), 3. कूट्टु पण्णै (एडश्शेरी का नाटक) (1964,1989), 4. काट्टुक्कु पोवोम् (बालोपयोगी) (1972), 5. सरकस कूडारम (नाटक) (1974), 6. आधुनिक
मलयालम कहानियों का अनुवाद।
तमिल से
हिंदी में अनुदित रचनाएँ इस प्रकार हैं – 1. बीस साल के देश में बीस दिन की यात्रा (जनवादी जर्मनी यात्रा – एस. शंकरन)
(1969), 2. चौदह दिन (सुजाता का सामाजिक उपन्यास) (1972), 3. जयकांतन की कहानियाँ (नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया) (1978,2008), 4. राजभेरी (शाण्डिल्यन का
ऐतिहासिक उपन्यास) (1987), 5. सुब्रह्मण्य
भारती के राष्ट्रीय गीत (कविताओं का अनुवाद)
(1979), 6. चंपक का बगीचा (शांडिल्यन का सामाजिक उपन्यास)
(1963), 7. जाँच की कमीशन (उपन्यास) (2007)
हिंदी से तमिल में अनूदित रचनाएँ इस प्रकार हैं – 1. प्रेमचंद कथैकल (1976), 2. करैपडिंद निलम फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास मैला आँचल (1977),
3. अग्नि नदी कुर्र-तुल ऐन हैदर का उपन्यास आग का दरिया (1971),
4. राजस्तानत्तु अंतर पुरंगल (राहुल सांकृत्यायन का उपन्यास राजस्थानी रहनवास)
(1959, 1986), 5. नानगु पकिकरिकल चोन्न कथै (किस्सा चार दर वेश) (1980,1999), 6. सुभद्रा (शरतचंद्र का
उपन्यास हिंदी से) (1958), 7. वीर कथैकल (राजेंद्र अवस्थी का वीरों की कथाएँ)
(1973), 8. गुरुनानक वाणी, 9. एषावदु कुदिरै (धर्मवीर भारती का सूरज का सातवाँ घोड़ा)
(1966,2006), 10. पोन मलर, (कत्त्तारै सिंह दुगल के लघु उपन्यास)
(1960), 11. लाल बहादुर शास्त्री (नेशनल बुक ट्रस्ट) (1965), 12. मूनरावद शपतम् (रेणु की तीसरी कसम)
(1960), 13. मृंगांतकन (गंगा प्रसाद विमल का उपन्यास)
(1999), 14. निर्मल वर्मा की कहानियाँ (2003),
15. आधुनिक हिंदी कहानियाँ, कविताएँ और निबंधों का अनुवाद।
प्र. : रचनाओं के लिए आपको प्रेरणा कहाँ से मिलती है?
ज : साहित्य को पढ़ने से ही
प्रेरणा मिलती है। सामाजिक सरोकार से भी प्रेरणा मिलती है। दूसरी मौलिक रचनाएँ
पढ़ते वक्त मुझको लगता था कि मैं भी लिख सकता हूँ। रचनाधार्मिता मन के संस्कारों
पर आधारित होती है। अध्ययन-अभ्यास से ही वह यह कार्य सफल होता है।
प्र. : क्या आपने स्वतंत्रता आंदोलन में भी भाग लिया था?
ज : पहले विद्यार्थी कांग्रेस
मंडली में था। काँग्रेस सेवा दल में भी सदस्य था। राष्ट्रीय चेतना और राष्ट्रीय
एकता में मुझको विश्वास था। महात्मा गाँधी जी के प्रति मुझे आगाध श्रध्दा थी।
उन्हीं की प्रेरणा से पहले खादी प्रचार बाद में हिंदी प्रचार में आया था। अंत तक
ऐसा ही रहा।
प्र. : दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के साथ अपने संबंधों के बारे में
बताइए।
ज : साहित्य विभाग में एक कार्यकर्ता के रुप में शामिल हुआ था। बाद में
व्यवस्थापक, सचिव के रुप में
पदोन्नती पाकर अवकाश ग्रहण किया। साहित्य सचिव के साथ-साथ ग्रंथपाल का काम भी मैंने किया। सभा के कार्यकर्ताओं एवं हिंदी
सेवी होने के कारण ही मुझको सरकार ने विभिन्न मंत्रालयों में सलाहकर, समितियों के सदस्य के रुप में लिया था। साथ ही हिंदी-तमिल साहित्यिक आदान-प्रदान के कारण साहित्य अकादमी, नेशनल बुक ट्रस्ट, केंद्रीय हिंदी निदेशालय, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा आदि में सदस्यता मिली, पुरस्कार भी मिले। सभा की पाठ्य पुस्तकों की तैयारी में भी मेरा योगदान रहा। हिंदी
प्रचार समाचार का संपादक रहा हूँ।
प्र. : हिंदी साहित्यकारों से अपने संबंध के बारे में जानकारी दीजिए।
ज : सबसे पहले सुदर्शन जी, अमृतराय, रामकुमार वर्मा, दिनकर, गंगाशरण सिंह, विष्णु प्रभाकर, अरिगपूडी रमेश चौधरी, बालशौरि रेड्डी, आलूरि बैरागी, बालकवि बैरागी आदि महान विभूतियों से मिलने का मौका मिला। विष्णु
प्रभाकर से अंतरंग संबंध था। शिवपाल सिंह सुमन आदि से परिचित था। महेंद्र
कार्तिकेय, कमलेश्वर, मनोहर श्याम जोशी इत्यादी साहित्यकारों से निकट संबंध था। ये
साहित्यिक संबंध निभाते थे। साहित्यिक चर्चा होती थी। रामदरश मिश्र जी हमारे अच्छे
मित्र थे। विद्या निवास मिश्र, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी मेरे परम मित्र हैं। इन लोगों से ही
प्रेरणा और प्रोत्साहन मिला। इनके अध्ययन से ही हिंदी में थोड़ी बहुत दक्षता
प्राप्त कर सका। सारा श्रेय इन्हीं लोगों को देता हूँ।
मुझे हिंदी
लेखन का अभ्यास करने तथा निरंतर अध्ययन के लिए प्रेरणा देनेवालों में हिंदी
विद्वान व साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, राम विलाश शर्मा, धर्मवीर भारती, फणीश्वर नाथ रेणु, कमलेश्वर, दिलीप सिंह जी आदि
भी हैं। इन लोगों की पुस्तकों को मैं बहुत चाव से पढ़ता हूँ। रामविलाश शर्मा जी के
भाषण से मुग्ध होता रहा हूँ।
प्र. : क्या आप हिंदी सिखाते थे?
ज : हाँ, अध्यापक के रुप में काम नहीं किया था परंतु केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम और सी.पी. रामास्वामी अय्यर
जी के घर जाकर उनके बच्चों को हिंदी सिखाता था। अनेक बड़े-बड़े अधिकारी लोगों को भी हिंदी सिखाया, उनको तमिल के माध्मम से पढ़ाना होता था।
प्र. : सभा के अलावा अन्य संस्थाओं से आपके संबंध कैसे हैं?
ज : बहुत अच्छे संबंध हैं। मद्रास
विश्वविद्यालय, अण्णामलै
विश्वविद्यालय के विभिन्न कार्यक्रमों और संगोष्ठियों में भाग लेता रहता हूँ। लखनऊ
और दिल्ली के आकाशवाणी केंद्रों में भाषण दिए थे। हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के अधिवेशन में मुख्यवक्ता के रुप में भी भाग लिया था।
प्र. : मोटूरि सत्यनारायण जी से आपके संबंध कैसे थे ?
ज : मोटूरि सत्यनारायण जी के साथ
अच्छे संबंध थे। मैंने मोटरि सत्यनारायण जी के लेखक के रुप में काम किया था। वे बोलते थे, और मैं लिखता था। इस कार्य के लिए मैं और एम. सुब्रमण्यम दोनों जाते थे। मैंने एक लिपिक के रुप में उनकी खूब
सेवाएँ की।
प्र. : आवडी काँग्रेस महासभा के अधिवेशन में आपका क्या योगदान है?
ज : आवडी में काँग्रेस महासभा का अधिवेशन लग-भग 1960 के आस-पास में संपन्न हुआ था। अधिवेशन में, मैंने बालशौरि रेड्डी, वी.ए. कृष्णस्वामी, हरिहर शर्मा आदि ने साथ मिलकर तमिल-हिंदी आदान-प्रदान का कार्य किया था।
प्र. : अहिंदी भाषी लेखक शब्द से आप सहमत हैं?
ज : नहीं, मैं और बालशौरि रेड्डी दोनों ने अहिंदी भाषी हिंदी लेखक का जो
प्रयोग चलता था उसका खूब विरोध किया। बहुत प्रयास करके हिंदीतर भाषी हिंदी लेखक
प्रयोग चलाया।
प्र. : हिंदी भाषियों के बारे में आपके विचार क्या हैं?
ज : जो हिंदी जानते हैं, बोलते हैं, चाहते हैं, लिखते हैं, वह सब हिंदी भाषी हैं। भले ही उनकी मातृभाषा अलग हो। हम हिंदीवाले
नहीं है, हिंदी वाले वे हैं
जो अपनी प्रादेशिक बोली (मातृभाषा) को छोड़कर हिंदी को मातृभाषा और प्रांतीय भाषा के रुप में अपनाते
हैं। इसलिए हम अपने को उनसे पृथक मानते हैं।
प्र. : हिंदी प्रचारक के रुप में आपकी अभिलाषा क्या है?
ज : महात्मा गाँधाजी की और दक्षिण
भारत हिंदी प्रचार सभा की और हम हिंदी प्रचारकों की आदर्श अभिलाषा है कि – हिंदी पूरे भारत की संपर्क भाषा बने, जो राष्ट्र भाषा को सार्थक बनाये। उसी लक्ष्य को पूरा करने के लिए
हम काम करते हैं।
प्र. : हिंदी भाषा के बारे में आपके विचार क्या हैं?
ज : पहले संस्कृत भाषा पूरे भारत
की संपर्क भाषा थी और साहित्य का प्रमाणिक माध्मम थी। वह परिनिष्ठित और परिमार्जित
भाषा बन गयी थी। प्राकृत से संस्कृति कृत भाषा के रुप में वह फैली थी। बाद में अंग्रेजी ने इसका स्थान ले लिया। अंग्रेजी भी प्रयत्न से
परिनिष्ठित टकसाली भाषा बनायी गयी। इसलिए पूरे विश्व में इसका अध्ययन-अध्यापन हो रहा है। ये स्थिति हिंदी के लिए अपेक्षित है। हिंदी को
बोली और प्रांतीयता से मुक्त होना है। तभी उस पर सब लोग अधिकार पा सकते हैं।
प्र. : सभा की हिंदी परिक्षाओं के लिए कोई सुझाव देना चाहते हैं?
ज : हाँ, पुराने जमाने में प्रवीण प्रचारक विद्यालयों में वागवर्धिनी सभा एक
अनिवार्य कक्षा थी। उस में बच्चों को हिंदी में बोलना पड़ता था। इस से हिंदी बोलने
का अभ्यास होता था। अब वह नहीं है। इसलिए नोट्स पढ़कर लिखने के कारण हिंदी छात्र
भाषा पर अधिकार नहीं पा रहे हैं। इस विषय पर हिंदी प्रचारकों और अध्यापकों को पुनः
सोचना चाहिए। हिंदी प्रचारकों और हिंदी विद्यार्थियों का हिंदी ज्ञान का स्तर कम
हो गया है। हिंदी ज्ञान और भाषाई दक्षता का स्तर भी कम हो गया है। इस दिशा में सब
लोग पुनः गंभीरता के साथ विचार करें और स्तर बढ़ाने के लिए आवश्यक कदम उठाने की
आवश्यकता को समझें।
प्र. : पूर्व प्रधान मंत्री
श्रीमती इंदिरा गाँधी जी के बारे बताइए।
ज : जब श्रीमती इंदिरा गाँधी जी की
हत्या हुई थी तब मैं दिल्ली में ही था। वहाँ सभा की ओर से उनको श्रध्दांजली अर्पित की गई थी और उनकी स्मृति में हिंदी प्रचार समाचार की
विशेषांक भी निकाला गया था। उस प्रसंग के
बारे में मैंने लिखा भी था।
प्र. : सभा आपका अभिन्न अंग है। एक विशेष घटना या समय के बारे में
जानकारी दीजिए।
ज : एक ऐसा समय आया था जब सभा में
अवांछनीय तत्वों का बोलाबाला था। उस समय बहुत संघर्ष करके सभा को सुरक्षित
करनेवालों में श्री आर.एफ. नीरलकट्टी जी, चंद्रशेखर जी, अनंत कृष्णन जी, मुरली जी, और मैं भी थी। यह
कार्य प्रतिबध्द हिंदी प्रचारक के नाते हम लोगों ने किया। उन लोगों में मैं भी एक
था। इससे मैं आत्मतुष्ट हूँ।
प्र. तमिलनाडु में हिंदी की स्थिति क्या हैं?
ज : आजकल तो हिंदी के प्रति अभिरुचि फैल रही है। लोग हिंदी सीखना चाहते
हैं। अधिकांश लोग सीख रहे हैं। हिंदी का
विरोध तो राजनीति था। काँग्रेस को पछाड़ने के लिए हिंदी को एक हथियार बना लिया
गया। ऐसा भ्रामक प्रचार फैलाया गया कि हिंदी आने से हमारी तमिल भाषा नष्ट हो
जाएगी। और अंग्रेजी के सहारे जो लोग आगे आए थे, उन लोगों का डर था कि अंग्रेजी की जगह हिंदी आने पर हम पिछड़
जाएँगे। अब तो वह स्थिति नहीं है। अंग्रेजी समेत हिंदी को चलाने की प्रवृत्ति चल
रही है। अंग्रेजी लोग भी हिंदी सीखना चाहते हैं और सीख रहे हैं।
प्र. : हिंदी के प्रति किस प्रकार की भावना होनी चाहिए?
ज : हिंदीतर भाषाभाषियों में हिंदी
प्रेम नहीं है, क्योंकि हिंदी उनकी
आयातित भाषा है। मातृभाषा नहीं है। हिंदी पूरे भारत की भाषा होने के कारण सबको
उससे प्रेम होना चाहिए। हम हिंदीतर भाषी हिंदी को आदर के साथ अपनाते हैं क्योंकि
ये तो भारत को जोड़नेवाली भाषा हैं, संपर्क भाषा है।
प्र. : जी, चलते-चलते आप अपने परिवार का परिचय दीजिए।
ज : मेरी पत्नी का नाम श्रीमती
जानकी है। मेरे दो पुत्र हैं। एक पुत्र सी.ए. आडिटर है। दोहा में
सरकारी तेल कंपनी में अधिकारी के रुप में काम कर रहा है। दूसरा बेटा बैंगलूर में
एक निजी कंपनी में चीफ एकाउंटेंट हैं। दो पौत्रियाँ भी हैं।
प्र. : आगे की पीढ़ी के लिए क्या संदेश देना चाहते हैं?
ज : युवा पीढ़ी तो ठीक है। हिंदी
को हिंदी साहित्य के लिए भी पढ़े। क्योंकि हिंदी साहित्य बहुत ही संपन्न और समृध्द
है। विकासशील भी है। इसलिए उसको पढ़ना एक अच्छे पाठक के लिए और साहित्यिक सोच समझ
के लिए भी अच्छा है। आवश्यक भी है। हमारे अधिकांश विद्यार्थी पाठ्य पुस्तक तक
सीमित हैं। उसके बाद विशाल विस्तृत साहित्य से उनका कोई सरोकार नहीं है। यह स्थिति
बदलनी चाहिए। साहित्यिक दक्षता को भी बढ़ाने की आवश्यकता है।
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