तेलुगु कथाकार बलिवाड़ कांताराव






तेलुगु कथाकार बलिवाड़ कांताराव

       तेलुगु मूल : मधुरांतकं राजाराम     
हिंदी अनुवाद : डॉ. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू

पूर्णकुंभ, जून 2000

    प्रत्येक मानव, मानव सिंधु का एक बिंदु है। वह शेष जल से अलग नहीं हो सकता है। पानी में रहने में ही उसका अपना जीवन निहित है। सिंधु से अलग होकर बिंदु बाहर आने पर गिर जाता है। नीचे की रेत में मिलकर सूख जाता है। मनुष्य को मनुष्यों के साथ मिलकर रहना है, उनका साथ सुख और दुखों को बाँटना है...

  बहुत बडे गरीब देश में आशाओं को सीमा में रखकर गरीबों पर उच्च वर्ग द्वारा दया न दिखाने से, ऐसा लगता है कि अब देश ही नहीं है। पुराण और शास्त्र सब में सह मनुष्यों पर प्रेम ही दिखाया गया है और कुछ नहीं इस परम सत्य को न पहचाननेवाला अंधा है...  

   ये विचार बलिवाड़ कांताराव की कहानी अंतरात्मा में डॉक्टर कोदंडरामय्या के स्वगत कथन के रुप में व्यक्त किए गए हैं। अच्छी प्राक्टिसवाले बडे डाक्टर ने अपनी कनसल्टेशन फीस बढ़ाई थी। वह केवल अमीरों का डाक्टर था। गरीब चाहे कितने ही कष्ट में हों उन्हें देखना उसने कभी गवाय नहीं किया। उसकी इस निष्ठुरता के कारण कई गरीब मरीजों को प्राण तक गाँवाने पडे, यहाँ तक कि उनके सगे संबंधियों में कुछ लोग पागल भी हो गए। परिवार टूट गए। अपराधी पर नजर रखनेवाली पुलिस की तरह अंतरात्मा इस सब को जानती है। प्रशांत वातावरण में आलीशान मकान बनाने से क्या हुआ? अतीत का क्रूर व्यवहार अब उसके मन में तूफान जैसा भीषण शोर पैदा कर रहा है।

   आसान मृत्यु के क्षण में वह पश्चाताप करते हुए कहता है कि माँ! इस लोक में बहुत लोगों में प्रचलित अपने अपयश को यहाँ छोडकर जा रहा हूँ। मेरे अनबुझी प्यास को तू ही बुझानी
  सृष्टि में ब्रह्म तत्व की सर्व व्यापकता की तरह इस कहानी में संपूर्ण रुप से सामाजिक चेतना सर्वव्याप्त है।

    किसी भी पाश्चात्य देश की भाषा में न दिखनेवाला एक अमूल्य पद हमारे देश की भाषाओं में हैं वह हैं धर्म (कर्तव्य)। सामाजिक प्राणी होने के कारण समाज के प्रति भी हर मनुष्य का अपना धर्म (कर्तव्य) है। उस धर्म का आचरण कीजिए। बुरा आदमी कितने ही अच्छे दल में सम्मलित हो, वह हित नहीं कर सकता, अच्छा मनुष्य कितने ही बुरे दल में हो वह हित कार्य करता है। धर्म आचरण करनेवाला मनुष्य ही मुख्य हैं। कहते हैं रामाराव अभ्युदयम कहानी में। क्षेत्र के घर में और गाँव में उजाला लाने में सलता प्राप्त अधिकारी रामाराव को नौकरी छोडकर चुनाव लडने के लिए कुछ लोग प्रोत्साहित करते हैं। तबादले को अर्जियों द्वारा रोकने के लिए जनता तैयारी होती हैं। कम-से-कम विदाई समारोह मनाने के लिए मिन्नत करते हैं। लेकिन वह आधी रात में पत्नी और बच्चों के साथ एक सूटकेस थामे, एक थैली को हाथ में उठाकर गाँव से बाहर जाता है। सुबह उसके घर में एक मात्र लालटेन ही जलती रहती है।

   कांताराव को मनुष्यों के मनोविज्ञान की जानकारी है। उनके कष्टों की जानकारी है। वे जीवनानुभव से प्राप्त कथानकों को कहानी के रुप में ढलनेवाले रसायन शास्त्र के ज्ञाता हैं। कहानी के द्वारा क्या कहना है? कैसे कहना है? इसकी जानकारी उन्हें हैं। स्वयं व्यक्ति समाज और परमार्थ से परिचित कथाकार है बलिवाड कांताराव।

  जीवन में कोई भी कमी न रहनेवाले लोग भी रहते है। वे सोचते हैं कि समाज से हमको क्या मतलब है। इस प्रकार का व्यक्ति है बाब्जी। उसके पिता, अकृत्य करने पर भी या किसी भी समस्या में फँसने पर भी डोन्ट वरी मैं सन कहकर आदर करनेवाले सर्वसमर्थ व्यक्ति थे। शादी के एक महीने पहले पैर फिसलने से अस्पताल में रहते समय, नारियल के लिए पेड पर चढ़ते समय गिरकर पैर टूटे हुए बगल के पेशेन्ट, भूख लगने से पानी ही पीकर जीनेवाली उसकी माँ, गाँव में अनाथ के रुप में रहनेवाली उसकी बीवी और बच्चे आदि को जानने के बाद उसकी समझ में आया कि मेरे बचपन से ही मेरी आँखों पर पट्टी बाँध कर चारों ओर की समाज को नहीं देखने दिया। वह यह कहते हुए अपने माँ-बाप की आलोचना करता है कि हर विषय में डोन्ट वरी मैं सन बोलते हुए मेरे विचारों को निगाल लिया। समाज को पहचानकर, दुःखों को बांटकर असली जीवन जीने से वंचित किया, सब कुछ मेरे लिए इकट्ठा करके मुझको एक लंगडे और अंधे से भी हीन बना दिया।

   इतना ही नहीं वहाँ आए हुए डाक्टरों और नर्सों को देखकर वह उद्वेग में आकर कहता है कि मेरे चारों ओर इतने लोगों के भूख से तडपने के बावजूद मेरे पिता के पैसों को खाकर, मेरे जैसे कायर पर क्यों इतनी श्रध्दा? बहुत से लोगों के भूख से तडपने पर भी, भूख न रहने पर भी मुझको क्यों ठूँसते हैं। छीः ....  इस समाज को देखकर मुझको कै आती है ....

   मानवरक्त नामक इस कहानी को कांताराव जी ने पाँच पृष्ठों में समेटा है। अपने को अज्ञान में बाँधनेवाली परिस्थितियों पर वार करनेवाले अभिनव सिध्दार्थ के बारे में और भी विस्तार से लिखा जा सकता है। लेकिन अनावश्यक पद एक भी न लिखकर कहानी तत्वों को बिल्कुल पालन करते हुए अल्प अक्षरों में अनंत अर्थ देते हुए लिखने में कांताराव सिध्दहस्त हैं। एक मित्र से मिलने के लिए बस से उतर कर एक मील दूर मेंड पर चलकर गाँव जाने से उस घर पर ताला लगा हुआ है कहते हुए एक कहानी आरंभ होता है। इस वाक्य के द्वारा बताए गए विषय को दो, तीन पृष्ठों तक विस्तार कर सकने पर भी उस प्रकार की आवश्यकता नहीं है, ऐसी कांताराव की धारणा है।

  कथावस्तु के स्वीकार, विन्यास, संग्रह और संदेश आदि इन चारों लक्षणों से भरपूर कहानी है चक्रतीर्थ
  उडीसा जाईए। भुवनेश्वर में उतरिए। पूरी के लिए टूर लीजिए। उस पुण्य क्षेत्र में पंडा लोग कहाँ रहते हैं पूछिए? चक्रतीर्थ जाईए कहते हैं। वहाँ एक पूराने घर में बूड़ा आदमी सुदर्शन पंडा, उसकी देखरेख करती हुई विधवा बेटी मुक्ता भी है। होटल में स्नान, भोजन आदि करके पिता को देखते गए श्रीधर ऐ..एस. को पिता एक फेबल बताते हैं पुराने जमाने में एक दिन दरिद्र पंडे की भक्त से प्रसन्न होकर जगन्नाथ ने माँगे हुए वर देनेवाला पान दिया, लेकिन किसी ने चोरी किया। इस प्रकार है मेरी स्थिति। लेकिन बेटे को समझ में नहीं आया। उच्च शिक्षा, बडी नौकरियाँ और अमीरों के दामाद बनने के बाद समाज में गिरती हुई मानव संबंधों के बारे में लिखित तेलुगु की प्रसिध्द कहानियों में यह भी एक है। कुछ महीनों के बाद श्रीधर को चक्रतीर्थ के पंडों से एक चिट्ठी आती है। आपके पिता का निधन हुए पंद्रह दिन हो गए। उसकी इच्छा के अनुसार ही यह खबर तुमको नहीं बताई गई। उसके धन से ही दहन-संस्कार एवं कर्म-कांड समाप्त किया। जाते समय उसने एक ही बात कही बीमार रहते समय आए हुए बेटे को देखकर पिता उसको याद है सोचकर खुश हुआ। वह आने पर भी मेरे घर में न रहा और खाने के लिए मना करने पर भी नहीं खाया था। उस क्षण में ही मैंने तय किया कि मेरे लिए मेरा बेटा न होने के समान है।

   कांताराव ने समाज को विभिन्न दृष्टि कोणों से देखा और परखा है। हर एक अंश को साहित्य बध्द किया। इसका और एक उदाहरण है भेडाघाट मोसली (भेडाघाट का मगरमच्छ)। जबलपूर के समीप नर्मदा नदी के किनारे पर स्थित संगमरमर की चट्टानों का दर्शनीय विहार स्थल है भेडाघाट। एक टूरिस्ट को पता चलता है कि वहाँ जरुर देखनेलायक एक मगरमच्छ है। भेडाघाट में टूस्टि रहते हैं। विभिन्न चीजों को बेचनेवाले रहते हैं। नावों को चलानेवाले रहते हैं। गाइड को डेढ़ रुपया देकर, नाव पर सैकडों रुपए कमानेवाले धर्म स्वरुप भी रहता है। नावों को चलानेवाले लोग परोक्ष में आक्षेप करते हैं लेकिन धर्म स्वरुप के सामने मुँह बंद रखते है। भेडाघाट में धर्म स्वरुप का दरबार अप्रतिहत चलता रहता है लेकिन दीन जनोध्दारक एवं भगवद भक्त के रुप में संत जैसा दिखता है। टूरिस्ट को पता चलता है कि मगरमच्छ पानी में नहीं किनारे पर हैं।

   जिस प्रकार लूट का चित्रण किया उसी प्रकार और एक कहानी में मिलावट का चित्रण देखा जा सकता है। कोरापुट जाते हुए घाटरोड पर पहाडों के बीच में चिक्कपारा नामक एक भीलों का गाँव था। कार से उतरे एक नागरिक को धूम-धाम से स्वागत करते हैं। गेंद के फूलों से बनाई गई फूलमाला गले में डालते हैं। उस व्यक्ति को वादा देते हैं कि उसकी कार को नुकसान नहीं होगा। अगली सुबह शुध्द शहद देकर विदा देते हैं। नागरिक के द्वारा दी गयी बख्शीश को तृण प्रायः समझकर इंकार करते हैं। ये सब दस साल पहले की बात है। एक दशाब्द के बाद जाने से उस नागरिक को अकल्पनीय घटनाओं का सामना करना पड़ता है। कार की रक्षा के लिए कुछ लोगों को नियुक्त करना पडता है। गाने बजाने के लिए दाम निर्णय करना पडता है। उस समय के फल वृक्ष कोयला बनकर शहर चले गए। शुध्द शहद के लिए धन देना रिवाज बन गया। इनाम न देने से कार को नहीं चलाने के स्थिति आ गयी। देश रुपी बडे वृक्ष की जडों में ही मिलावट के कीडें लग जाने से अब देश की क्या स्थिति है इस कहानी में ध्वनित निर्वेद है।

   राजदूत-देवदूत कहानी की पृष्ठ भूमि बंगाल है। सरकार के आदेशों को लागू करनेवाले लोग राजदूत है। जनता की भलाई के लिए काम करनेवाले लोग देवदूत हैं। काली प्रसाद चौधरी, रतन चक्रवर्ती न्याय में किंचित फर्क आने पर भी न सहने वाले उग्र स्वभाव के नौजवान हैं। वे कहते हैं कि इस हवा, पानी और संपत्ती सबको समान रुप में बाँटने तक लडते रहेंगे। समाज को हानि पहुँचने वाले लोगों से बातें करने से नहीं चलता है कहकर हमेशा चाकू को लेकर चलते हैं। उसी प्रकार के लोगों को कहाँ नौकरी मिलती है। कलकत्ता में एक अफसर अपनी पत्नी को पत्रिका से यह समाचार सुनाता है कि बर्दवान क्षेत्र के एनकौंटर में वे दोनों मर चुके हैं। उसकी पत्नी चिंतित होकर कहती है कि आप के सडक दुर्घटना में बेहोश होकर गिरने पर उन लोगों ने ही अपको अस्पताल ले जाकर मेरे मंगलसूत्र की रक्षा की थी। इस के बाद क्रोध में आकर पति से कहती है कि आप ने क्यों देवदूतों को पेड पर लगाकर मारा है? बताईए। पति आश्चर्य से कहता है कि मैं। हाँ, आप ही है, आपके सरकार वालों ने ही यह काम किया। आप भी उस सरकार में हैं। आप ने ही मारा है, आप ..... रो रो कर कहते हुए गिर जाती है। अफसर लज्जा से सिर झुकाते हैं। 

   कांताराव हमेशा देव दूतों के पक्ष में ही है। लेकिन देवदूतों द्वारा राजदूतों को मारना भी उनको पसंद नहीं है। राजदूत सरकार के शासनबध्द हैं। उन्हें अपने कर्तव्य को निभाना पडता है। अत्यंत आवश्यक नहीं है तो दुष्ट अंगों की शल्य चिकित्सा करने के लिए तैयार नहीं होना चाहिए। इस लिए कांताराव खुलकर कहते हैं कि मेरे लिए गाँव, देहात, देश कोई भी मुख्य नहीं है, इस विशाल विश्व में कहीं भी बुराई होने से तडपता हूँ, कहीं भी अच्छाई होने पर आनंद का अनुभव करता हूँ। (बलिवाड़ कांताराव कथलु-भूमिका)

   समाज व्यक्तियों का समूह है। हर एक का अलग-अलग व्यक्तित्व हैं। अनेक प्रांतों में रहते हुए कांताराव जी को अनेक अनुभव हुए होंगे कुछ ऐसी हृदयस्पर्शी एवं मर्मस्पर्शी सामने आए होंगे, जिन्हें देखकर अहो’, अरे कह उठे होंगे। निरंतर साहित्य सृजन में लीन लेखक ने कहीं भी छोटे-से अंकुर की प्राप्ति पर उसे पल्लवित करके अपनी कथा-रुपी फुलवारी में प्रतिष्ठित किया। उनकी कुछ प्रमुख कहानियों में मनीषि-पशुउ ( आदमी-जानवर) में सेवा निवृत्ति की पूर्व संध्या तक पशु की तरह काम करनेवाले और अपवित्र पत्नी को क्षमा न करनेवाले विनायक पाटिल,  पेल्ली (शादी) में, गाँव के रसिक जनों के हाथ में कटपुतली बनी हुई, परंतु विवाह की इच्छा को पूर्ण न कर पानेवाली दुःखमय जीवन भोगती हुई युवती, अडिवि पुव्वु (जंगली फूल) में पत्नी की अनुपस्थिति में शारीरिक शोषण का प्रयास करनेवाले गृहस्थ को धिक्कार कर चली जानेवाली घरेलु नौकरानी तथा मुंगिस कथा (नेवले की कहानी) में माँ की असीम ममता की प्रतिरुप स्त्री जैसे जीवंत पात्र घन घोर घटाओं में बिजली की छटा की तरह की चमकाते हैं।

  कांताराव कितने बडे मानवता प्रेमी है, इसे स्पष्ट करने के लिए अनेकानेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। दो प्रसंग देखें बचपन में ही माँ की मृत्यु होने पर विमाता की ईर्ष्या का इंधन बनकर मामा के आश्रम में इंसान के रुप में बदलनेवाली सीता से अफसर सूर्याराव अपनी इच्छा प्रकट करते हुए शादी करता है, लेकिन उनके सफल वैवाहिक जीवन को देखकर उसके मामा का बेटा मोहन राव ईर्ष्या से आकाश राम का अवतार धारण करता है। सीता के नाम से आए पत्र को सूर्याराव न पढ़ने के कारण अंत में सूर्याराव को ही पत्र लिखता है, पत्नी के द्वारा मोहनराव के संबंध में बताए जाने पर सूर्याराव उसे पत्र लिखते हैं, जिसका अंतिम वाक्य इस प्रकार स्त्री, पुरुष को माँ के रुप में दूध पिलाकर श्रमपूर्वक, सहनशीलता से पालती पोसती है। पत्नी बनकर पुरुष को सुख देती है। बुढ़ापे में भी पुरुष को जीवन यथार्थ और ज्ञान का बोध कराती है। पुरुष, स्त्रियों पर आक्षेप और आरोप लगाते समय स्त्रियों की सेवाओं को क्यों याद नहीं करते हैं। अपने-अपने घरों को पवित्र मंदिर बनाने के बजाय विश्वासघात करके अपने घरों को युध्द-भूमि बनाते हैं। यदि पुरुष कि इतने भी सभ्य नहीं है कि स्त्रियों को यथोचित गौरव प्रदान कर सकें तो फिर भला यह समाज कितने दिन ठिकेगा?

   बंबाई में एक बडे कारखाने में बहुत पहले सेवा निवृत्त हुए एक निम्र कर्मचारी को मिलनेवाले पैसों में कुछ शेष रह जाता है। अर्जी के द्वारा पता चलता है कि वह दिन अवस्था में था लेकिन पैसे देने के लिए आवश्यक एक पुरानी फाइल नहीं मिलती। आफिस मैनेजर कहते हैं कि उस फाइल को ढूँढने की अपेक्षा मयूर सिंहासन ढूँढना ही आसान है। लेकिन इसको एक चुनौती के रुप में स्वीकार कर बहुत प्रयत्न करके बाहरी कार्यालयों की फाइलों के कमरों में ढूँढकर वह पुरानी फाइल निकालता है। अस्सी रुपये से कुछ ज्यादा एरियर्स लेते समय उस कंकाल हो चुके बूढे की आँखों में आनंदाश्रु देखकर अफसर को लगता है कि वह सचमुच मयूर सिंहासन पर बैठा है।

   पारस्परिक संस्कारों की विरासत के कारण शीशों में दीप जैसे चिंत ने कांतराव जी को हमेशा नीति पथ पर ही चलाया। लगता है कि वे नौकरी के दौरान कई बार मयूर सिंहासन पर आसीन हुए होंगे।

   रचनाकार की कथा-शक्ति, भावुकता एवं मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की कसौटी के रुप में एक उल्लेखनीय कहानी है नीति- अविनीति। इस कहानी में विरोध शक्तियों के बीच में टकराकर आने से रचनाकार किस पक्ष में रहता है, यह एक बडा प्रश्न चिह्न है। पाठक सोचता है कि अब पता चलेगा। असंख्य पाठकों को खुश करने के लिए इस टकराहट को एक मध्य मार्ग में लाकर इस वाक्य के साथ कहानी को समाप्त किया जा सकता था कि प्रसन्न और गोविंदराव दंपति बन गए, लेकिन कांताराव जी की रुचि ऐसे हल्के-पुल्के सुधारवाद से परे हैं। उक्त कहानी इसका प्रमाण है।

  एक अन्य अच्छी कहानी है दारि तप्पिन मनीषि कांताराव जी कभी भी इस मत से सहमत नहीं हुए कि आज का सुख ही सुख है, कल का सुख सिर्फ कल्पना, कल का कल्पना में पडकर आज के सुख को कौन छोडता है? आज सुख भोगनेवाले ही सचमुच सही रास्ते पर चलनेवाले हैं। कांताराव जी की मान्यता यह है कि मनुष्य की इच्छाओं, आकांक्षाओं और लालसायें असीमित नहीं होना चाहिए।

   घरों, गाँवों, खेतों, बगीचों सब को बहाकर ले जानेवाली बाढ सद विवेचन का अवसर उपलब्ध करती है? (वरदवेल्लुव)पाडुलोकमु-पाडु मनुषुलु कहानी में दासी जीवन से मुक्त पाने के लिए स्त्रियों की छटपटाहट का अत्यंत हृदयस्पर्शी चित्रण हुआ है। (इस कहानी को स्त्री वादी कथा-आंदोलन की आरंभिक कहानियों में श्रेष्ठ माना जाता है) इसी प्रकार निजाइती (ईमानदार) इंटिकोसम (घर के लिए) जैसी कहानियों में लेखक ने समाज में जड़ जमाए बैठे सडे गले पुराने विचारों पर करारी चोट की है। उनकी ऐसी अनेक कहानियाँ उल्लेखनीय हैं।

    महान तेलुगु कवि विश्वनाथ सत्यनारायण जी को अपने गाँव नंदमूर से अत्यधिक लगाव है। इसी प्रकार प्रसिध्द कवि नायनि सुब्बाराव जी के मन में नरसरावपेट के प्रति बडा मोह है, तथा प्रमुख कवि गुर्रम जाषुआ जी को विनुकोंडा से अत्यंत प्रेम है। इसी क्रम में यह कहना उचित होगा कि अपने गाँव मडपाम के प्रति कांताराव जी का प्रेम भी कम नहीं है हमारा गाँव विशाखपट्टणम से अस्सी मील दूर स्थित एक नदी (वंशधारा) के किनारे पर है। हमारे गाँव के समीप उस नदी पर तीन फर्लांग का पुल है हमारे जिले की बडी नदी होने के कारण उस पुल को गाँव के लोग बडा पुल कहते हैं। उस नदी के किनारे हमारा गाँव भीषण गर्मी में भी नीलगिरि के समान रहता है। कांताराव जी गाँव का संदर्भ आने पर सदा पुरानी स्मृतियों में खो जाते हैं। उसका वर्णन करते समय उनका कहानीकार रुप तिरोहित होकर वे कवि बन जाते हैं।

    दक्षिण की ओर जानेवाली नदी को देखने पर प्रकृति के अत्यंत रमणीय दृश्य दिखाते हैं। थोडी दूर पर इतिहास प्रसिध्द सालि हुंडा पर्वत है। ऊंचे सरु के पेड, केलों के साथ घटनाओं को भी मनोहर रंग देनेवाले सूर्यास्त, फरीवरी महीने में अंधेरी रात में पश्चिमी आकाश में चमकते शुक्र ग्रह की दौड, मंथर गति से नीचे जाती नदी के कलरव से नाट्य में लय के मिलने जैसा आनंद प्राप्त होता है। खेतों का छूकर आई ठंडी हवा में साँस लेकर चांदनी के पाल बनाकर नदी प्रवाह नाव की तरह जा रहा है।

    एक स्थान पर कांताराव जी ने कहा है कि मन पर पडी हुई अमिट छाप भी समय के फेर में धुँधली पड जाती है। लेकिन किसी भी देश काल में रहने पर आज भी जिस स्थान की घटनाओं की स्मृतियाँ मेरे मन पर अंकित हैं, वह स्थान मेरा जन्म स्थान है और वे घटनाएँ मेरे बचपन की हैं।

     अस्सी वर्ष से ज्यादा उम्र की अपनी परदादी को याद करते हुए वे कहते हैं कि परदादी की दी गई नीम की दातौन करने से अब उसकी तरह नारियल को चबा सकता था लेकिन दंतमंजन के पीछे पडकर जल्दी ही दाँतों को खो बैठा हूँ। ठीक से संवार न होने उनके बाल सफेद की अपेक्षा काले ही ज्यादा थे। वह चबूतरे पर बैठकर लकड़ी की कंघी से बाल साफ करते हुए बात करती थी तो हँसते समय उनके दाँत मोतियों की तरह चमकते थे। झुरियाँ पडने के बावजूद उनका चेहरा धमकता रहता था, थकान की परवाह किए बिना वे इसलिए गाँव-भर में घूम आती थी कि पैरों की माँस पेशियाँ हरकत करती रहें। इस प्रकार दोनों हाथों को कर्मरत रखने के लिए वे सूफ से धान पटकती थी। मैं ने उनकी नारियल के तेल की मालिश छोडकर दूसरे खुशबुदार तेल अपना लिए, इसका परिणाम यह हुआ कि मेरे बाल कम आयु में ही पक गए। उनकी दोनों हाथों को हरकत में रखने की सीख न मानकर केवल दायें हाथ से काम करने से बायाँ हाथ वात विकार से ग्रस्त हो गया।

   ऐसी परदादी के निधन के दृश्य ने बालक कांताराव के हृदय में अपार दुःख भर दिया आकाश में यहाँ, वहाँ चमकाते दो नक्षत्रों के माध्यम से उनकी चमकाती आँखें मुझे देख रही हैं। उसके मन की तरह स्वच्छ हवा बह रही है जो थोडी-थोडी देर में आशीर्वाद देने के लिए मेरे सिर को स्पर्श करती है। ऐसा प्रतीत होता है कि संतोष से भरी हुई वह घूमने निकली है। मुझे सोच में डूबा देखकर उसने जो वाक्य मुझसे कहा था, धरती की गोद में पलनेवाले बच्चे की तरह वह आज भी मेरे स्मृतियों में विद्यमान है।

 परदादी ने अपने अनुभव का सारांश बताते हुए कहा था कि वायु और वर्षों के बिना जीवन, जीवन नहीं है। उस समय यह बात बालमन की पकड़ में नहीं आयी थी लेकिन बडे होने पर अनेक प्रांतों में घूमकर अनेक अनुभवों को पाने के बाद समझ में आया। जब कभी वायु विनाशकारी रुप धारण कर लेती है तो वर्षों जीवन की धारा बहाती है। जीवन में ऊँच-नीच, सुख-दुःख और उजाले-अंधेरे साथ-साथ वायु और वर्ष की तरह आते जाते रहते हैं यही तो जीवन है।
  कांताराव को नौकरी के कारण बंबई, गोवा, कलकत्ता, दिल्ली जैसे प्रदेशों में रहने का मौका मिला। वे जहाँ भी रहते थे, वहाँ के परिवेश के साथ घुलमिल जाते थे। तेलुगु कहानी को आंध्रप्रदेश की सीमाओं से निकालकर पूरे देश की सीमाओं से जोडने तथा उसके कथा क्षेत्र का विस्तार करने का श्रेय बलिवाड़ कातांराव जी की है। उन्होंने अपने साहित्य मंदिर का निर्माण गहरे परिश्रम और बुध्दि बल से अपने पाठकों को निमित्त किया है। इस प्रशस्त साहित्य मंदिर के एक-एक वातायन से एक देश, एक समय, एक सत्य को देखकर पाठक पुलकित होता है। उनकी दिल्ली मजली कथलु (दिल्ली के सफर की कहानियाँ) स्वयं में अपूर्व हैं। जिन में उन्होंने अने 1969 से 1974 तक दिल्ली प्रवास के अनुभवों पर आधारित कहानियों से साहित्य जगत को समृध्द किया है।

        विशाखपट्टणम का स्नातक आनंदराव जीवन यापन के लिए (युधिष्ठिर के इंद्रप्रस्थ, इंडिया के हृदय) दिल्ली पहुँच जाता है। दिल्ली महानगर में नौकरी न मिलने के कारण न्यायपथ, शांतिपथ, करोलबाग, कन्नाटप्लेस और इंडियागेट मैदान में चक्कर लगानेवाले सिर्फ आनंदराव ही क्या? और आनंदन, आनंदनायर, आनंदकुमार चटर्जी, आनंद बस गौड जैसे बहुत लोग हैं लेकिन उनमें से किसी के भी पास नहीं है आनंद। वेश्याओं को पत्नी बताकर कमाई करनेवाले दलाल, आदिशंकर फौज में भर्ती होकर नव वेदांत की शिक्षा देनेवाले वारापिल्लै, गुरुद्वारों में लंगर से लेकर जूते साफ करने की सेवा तक करनेवाले सरदार, रद्दी कागजों और कूडे-कचरे में भी पैसा ढूँढनेवाले, मूँगफली बेचनेवाले, हजामत करनेवाले, ज्योतिष्य बतानेवाले। एक वाक्य में कहना चाहें तो किसी भी प्रकार कोई भी काम करके जीवनयापन को ही मुख्य माननेवाले अनेक लोग दिखाई देते हैं आनंदराव को।

  दिल्ली में एक दर्शनीय मुहल्ला है ब्रह्म पुरी। जिसे देखकर ऐसा लगता है कि इसकी सृष्टि करते समय तक ब्रह्मा जी अनुभवहीन थे। यहाँ गायें हैं, जिनके गले में दूध देने के बावजूद टूँटे लटके हैं। भेडें हैं जिनके शरीर पर ऊन नहीं बची है। मार न खानेवाले घोडे ही नहीं है। सामने चारा है पर भैसों के मुँह पर छींके बंदे हैं। नरसिंह अवतार के आलावा सभी अवतार रहते हैं वहाँ। अनेक ग्राम सिंह (कुत्ते) दिखाई देते है। बकरियाँ, गधे, सुअर अनगिनत हैं। जो अपनी मर्जी के अनुसार घूमते रहते हैं। ऐसा लगता है कि उन्हें मनुष्यों से बहुत प्यार है, इसलिए उन्हीं के पास सोने और रोने जैसे सब काम करते हैं। कुछ भी करने पर भी वे लोग इनकी परवाह नहीं करते हैं। यहाँ मानव जाति की प्रगति भी दिखाती है। पुराने कपडों के चीकडे, रद्दी कागज, पुराना लोहा, शीशा, जंग लगा लोहा यहाँ का प्रधान व्यापार शायद यही होगा। ऐसा लगता है कि शीशे का अविष्कार यहीं हुआ होगा। टूटे हुए शीशे के टूकडों जैसी है यह ब्रह्मपूरी।

   पुराने राजेंद्रनगर में बडे ईश्वर भक्त भजनलालजी के एस्टेट में पुराने गैरेज में मानव जीवन संबंध देखिए -  एक धोबी का परिवार, बूढ़ा आदमी, कुबडा, शायद अस्सी से ऊपर उम्र। उसकी पत्नी जीवित है। धूप से बचने के लिए पुरानी चारपाई की आड लेकर एक छोटी दुकान लगाकर बैठती है। भुट्टों का सीजन है। छोटी-सी अंगीठी पर भूनकर नींबू का रस चुपडकर बेचती थी। बूढ़ा आदमी नहीं बैठता है। एक टेली पर इस्तरी को रखकर नीचे की गली में जाता है। धोए हुए कपडों को इकट्टा करके इस्तरीकर, शाम को पैसे लेके घर आता है। उसके इकलौते पुत्र को आलसीपन ज्यादा है। शराब से प्यार है, पत्नी से और भी प्यार है, छह बच्चों की माँ होने पर भी अप्सरा की तरह तैयार होकर रहती है। बडे बेटे रतन की शादी हो चुकी है। वह पढ़ा-लिखा होने के कारण धोबी का काम नहीं करता बल्कि नेशनल म्यूजियम में चपरासी है। दो बेटियाँ शादी के लिए तैयार हैं। उनके साथ और एक बेटा है। बहुत नटखट है। वह गली और गली की धूल भी उसकी ही है। जोर-जोर से चिल्लाते हैं। आपस में लड़कर घंटों तक रोते हैं। छह बच्चे प्लस बहु सात प्लस छोटे दंपतियाँ मिलकर नौ प्लस बूढ़े दंपति कुल ग्यारह लोग एक कार गैरेज में निवास ... अंत में अंतिम वाक्य जैसा आम दिल्लीवाले का वेदांत सुनिए-क्या नीति है? नीति कहाँ है? मनुष्य को असल में कहाँ नीति है? भूख लगने पर रोटी, खाने के बाद सब्जी, इसके बाद मुर्गी, बाद में खीर, अंत में रण्डी भी चाहिए। इसके लिए अंत कहाँ आशा बंदूकों से नहीं मरती है जी, कृष्ण भगवान वेदांती क्यों बन गए? सोलह हजार गोपियाँ रहने के कारण ही मीठी चीज खट्टी हो गयी। रोटी, कपड़ा, सामान, वाहन ज्यादा रहते समय नीति के बारे में बात नहीं करनी है।

   गरीबी के कारण उत्पन्न असहनीय परिस्थितियाँ, जीवन संघर्ष की भयावहता और क्रूरता पूर्ण लूट-पाट की भयानक परिस्थितियों में भी न बुझनेवाली अखण्ड ज्योति जैसे मानववाद को व्यंग्य कथोपकथन के द्वारा अत्यंत मनोहर रुप में चित्रित करनेवाली दिल्ली मजिली कथलु (दिल्ली के सफर की कहानियाँ) (जो आर.के. नारायण की मालगुडी की कहानियों के समान प्रभावशाली हैं) का जितना यश मिलना चाहिए था उतना मिला नहीं क्यों? यह शायद ऐसा यक्ष प्रश्न है जिसका सामना युधिष्ठिर भी न कर पाते। (यह प्रस्तक 500 सौ पृष्ठों से दो खण्डों में प्रकाशित हुई है) कांताराव की अनेक पुस्तके छपने पर भी अब सिर्फ ये दो पुस्तकें ही मिल रही है। इस रचनाकार की नीति गुणाड्य की तरह है। दम होने पर पत्ता भी धारा के विपरीत तैर कर किनारे तक पहुँच सकता है, नहीं है तो प्रवाह में जाता है। सच है, रचनाओं की सामर्थ्य की कसौटी केवल समय ही  है न कि प्रसार के प्रयत्न  

    कांताराव जी के लिए उनका जीवन एवं साहित्य अलन-अलग नहीं था। कथनी और करनी में भेद नहीं था। रचनाकार किसी एक दृष्टि को अपनाता है। वह दृष्टि व्यक्ति को असत्य को सत्य एवं अंधेरे से उजाले की तरह ले जानेवाली होनी चाहिए। इस साधना में लक्ष्य साधन करने से रचनाकार का सृजनात्मक कार्य समाज निर्माण का एक सार्थक हिस्सा बन जाता है। क्रौंचवध की घटना ही काव्य का बीज बनकर महाकाव्य में प्रतिफलित हुई। इसलिए आज भी आदिकवि वाल्मीकि की वंदना की जाती है। यह इस तथ्य का प्रतीक है कि जनता के हृदय को आकर्षित और आंदोलित करनेवाले रचनाकार ही  कालजयी होते हैं। बलिवाड़ कांताराव जी का विश्वास और संदेश भी यही है।           

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