अंधायुग में चित्रित मानव-विशिष्टता
अंधायुग में चित्रित मानव-विशिष्टता
डॉ. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू
स्रवंति, सितंबर 2004
मानव-स्वातंत्र्य के समान ही मानव-विशिष्टता भी एक महत्वपूर्ण मानव-मूल्य है, जिसे नयी कविता के प्रतिष्ठित
कवि डॉ. धर्मवीर भारती ने स्वीकार किया है। उनकी दृष्टि
में प्रत्येक व्यक्ति विशिष्ट है, वह भीड़ नहीं है, उसकी अपनी विशेषताएँ हैं। उसके अभावों, उसकी अच्छाइयों एवं बुराइयों
सहित वह विशिष्ट है। नयी कविता मानव-विशिष्टता को व्यापक रुप से
आंकती है और यह व्यापकता स्वानुभूति की स्वतंत्रता प्रदान करती है। नए कवियों के
अनुसार वर्ग मानव में मानव-विशिष्टता का प्रश्न ही नहीं
उठता। लघु-मानव के प्रणेता लक्ष्मीकांत वर्मा के अनुसार “लघु-मानव” और “मानव-विशिष्टता” में तत्वतः कोई विरोध नहीं है।
इन मतवादों से दूर हट कर कहा जा सकता है कि मानव-विशिष्टता मानव-मात्र को उसके परिवेश और यथार्थ
में स्वीकार करती है। मानव-विशिष्टता व्यक्ति के “अहं” के परिष्कृत रुप को ही स्वीकार
करती है, न कि विकृत और कुण्ठाग्रस्त अहं
को।
मानव-विशिष्टता में जो व्यापकता है, वह डॉ. धर्मवीर भारती की कृतियों में
मिलती है। “कनुप्रिया” के “कनु” का नाम भी इस प्रसंग में लिया
जा सकता है। डॉ. धर्मवीर भारती के अतिरिक्त भवानी
प्रसाद मिश्र, शमशेर बहादुर सिंह, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और
रघुवीर सहाय आदि कवियों में ही मानव-विशिष्टता अपने व्यापक रुप में
मिलती है। मानव-विशिष्टता एक नए मानव-विशिष्टता अपने व्यापक रुप में मिलती है। मानव-विशिष्टता एक नए मानव-मूल्य के रुप में प्रतिष्टित
होने के कई कारण हैं। कई कवियों, लेखकों, चिंतकों और आलोचकों ने मानवीय व्यक्तित्व की
विशिष्टता की खोज की है। आधुनिक कवियों पर इन के विचारों का स्पष्ट प्रभाव देखा जा
सकता है। नयी कविता में मानव-विशिष्टता का विवेचन करने से
पूर्व नए मानव-मूल्य के रुप में “मानव-विशिष्टता” विकसित होने की पृष्ठ-भूमि के रुप में विभिन्न परिचय
प्रस्तुत करना आवश्यक है।
धर्म और
दर्शन मानव के हृदय एवं मस्तिष्क की उस विकास-यात्रा की उपलब्धियाँ हैं जो
उसने जीवन की सार्थकता ढूँढने के लिए की थी। देश-काल-परिस्थिति-भेद से संसार में कई धर्म एवं
दर्शन विकसित हुए। यह विकास-प्रक्रिया मंद तो अवश्य होती रही
होगी किंतु सर्वथा अवरुध्द नहीं हुई। आधुनिक काल से पूर्व-मानव जीवन में धर्म का स्थान
अत्यंत महत्वपूर्ण था। मानवीय-मूल्यों में सर्वोपरि होने के कारण मनुष्य के आचरण की
एकमात्र कसौटी धर्म को माना जाता रहा। धर्म में ईश्वर को सर्वोच्छ शक्ति मानकर
मनुष्य के जीवन की सफलता इसी में मानी गई कि वह ईश्वर का भक्त अथवा कृपापात्र बने।
मनुष्य अशक्त और असमर्थ है, ईश्वर सर्वशक्तिमान, इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह प्रभु की ही शरण में
जाय। इस प्रकार के विचारों का पूर्ण प्रभाव हमें मध्यकाल की समाप्ति-पर्यन्त देखने को मिलता है।
धार्मिक-दार्शनिक मूल्यों के विघटन का प्रश्न किसी मानवोपरि
सत्ता के निषेध एवं अध्यात्म-निरपेक्ष मानवीय गौरव की स्थापना
के आधुनिक कालीन प्रयत्नों के साथ जुड़ा हुआ है। विचार और दर्शन के क्षेत्र में
बहुत-सी नयी धाराओं का उदय हुआ जिसमें पुरानी मान्यताओं की
पुनर्मूल्यांकन करते हुए नयी परिस्थितियों के अनुरुप नए मूल्यों को स्वीकृत किया
गया। धर्म और दर्शन के क्षेत्र में संसार के संचालन और इन इतिहास-क्रम के नियंता रुप में मानवोपरि
सत्ता ईश्वर, प्रभु या उसे कुछ भी कहा जाय
अस्वीकृति कर दी गयी। पश्चिम में मध्यकाल की समाप्त पर “नवमानववाद” नामक जिस विचारधारा का उदय हुआ उस में “संपूर्णतम मनुष्य” की प्रतिष्ठा की चेष्टा
विद्यमान रही है। मनुष्य में जो कुछ दिव्य है अथवा पाशविक है, उसे महत्व न देते हुए दोनों के
मध्य जो कुछ पूर्णतः मानवीय है उसी को नैतिकता, कला, सौंदर्य-बोध तथा अन्य अचार-विचार का प्रतिमान मानना मानववाद
की प्रमुख प्रवृत्ति रही है। मानववाद को आधार मानकर अरविंद, मार्क्स आदि की विचारधाराएँ भी
प्रस्थापित हुई हैं। मानववाद के अंतर्गत कुछ ऐसी विचारधाराएँ भी विकसित हुई हैं जो
परस्पर-विरोधी हैं। इस तरह आस्तिक एवं नास्तिक दोनों तरह के विचार
नवमानववाद में गुंथे हुए हैं। पश्चिम में ही विकसित “अस्थित्ववादी” दर्शन में भी जीवन को मूलतः
निरर्थक मानकर, इसे एक अर्थ देने की चेष्टा की
गयी है। यहाँ भी चिंतकों का एक वर्ग मानव-जीवन को ईश्वर से संयुक्त करके
उसका वास्तविक मूल्य देना चाहता है ( यथा कीर्केगार्ड, जैस्पर्स ) दूसरा वर्ग, जिस में सार्त्र प्रमुख हैं, परंपरागत ईश्वर को अस्वीकार
करते हुए “धर्म-निरपेक्ष स्वर पर मानव-जीवन के लिए चिंतित हैं।” मानवीय व्यक्तित्व की विशिष्टता
की इस खोज में, जिसे पर्सनलिज्म अथवा
वैयक्तिकतावाद नाम भी दिया जाता है, भिन्न-भिन्न विचार रखने वाले चिंतक
सम्मिलित हैं।
आधुनिक
कवियों पर उक्त विचारों का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा है। डॉ. धर्मवीर भारती ने अपने काव्य में
“प्रभु” शब्द का पर्याप्त प्रयोग किया
है। इस संदर्भ में “अंधायुग” और “सातगीत वर्ष” द्रष्टव्य हैं। “अंधायुग” में कृष्ण के ईश्वरत्व को लेकर गांधारी और अश्वत्थामा शंका व्यक्त
करते हैं, यद्यपि बाद में दोनों कृष्ण की
सामर्थ्य से अभिभूत होकर उस में दैवी अंश स्वीकार भी करते हैं। विदुर द्वारा प्रभु
कहे जानेवाले कृष्ण को गांधारी एक ओर “वंचक” कहती है तो दूसरी ओर उसे “प्रभुता के दुरुपयोग” के कारण ही शाप देकर उसकी प्रभुता स्वीकारती भी है।
अश्वत्थामा भी कृष्ण के अवसान क्षणों में उसके मस्तक पर दिव्य शांति
देखता है। कृष्ण पर आस्था रखते हुए धर्म के पक्ष में पांडवों की ओर से लड़नेवाला
कौरव युयुत्सु कृष्ण को वंचक, कायर और शक्तिहीन कहता है और तो कृष्ण भक्त विदुर भी कृष्ण की
प्रभुता के प्रति अनास्था व्यक्त करता है। युग की आसाधारणता के कारण उसका स्वर भी
संशयग्रस्त हो उठता है, यह और बात है कि वह शंका करना “पाप” समझता है।
“लगता है कि मेरे प्रभु
उस निकम्मी धुरी की तरह है
जिसके सारे
पहिये उतर गये हैं
और जो खुद घूम
नहीं सकती
पर संशय पाप है और मैं पाप नहीं करना चाहता।”(1)
ईश्वर के प्रति परिवर्तित दृष्टिकोण “अंधायुग” में स्पष्टतर रुप से व्यक्त हुआ
है। एक ईश्वर वह रहा जो मनुष्यों को हाल पर छोड़कर, असंपृक्त होकर सब कुछ देखता रहता है और एक ईश्वर वह रहा जो मनुष्यों को उनके
हाल पर छोड़कर, असंपृक्त होकर सब कुछ देखता
रहता है और एक ईश्वर वह माना गया जो मानव-नियति के साथ जुड़ा हुआ है।
गांधारी के शाप को स्वीकारते कृष्ण का रुप इसी “मानवीय ईश्वर” का है। अपने एक निबंध में भारती ने ईश्वर के इस
रुपांतरण को स्पष्ट करते हुए लिखा है “वह कर्म फल के आधार पर दंड देनेवाला कपोल-कल्पित ईश्वर कब का मर चुका है, लेकिन एक नया ईश्वर जन्म लेता
है। वह अभागों, गरीबों सताये हुए कुंठित और
विकलांगों को पिछले जन्म के कर्मों का अपराधी घोषित कर सुख से नहीं बैठता। वह एक
अंश में हरेक के साथ है, वह खुद उनकी सारी पीड़ा झेल रहा है। यह एक बहुत मानवीय ईश्वर था” (पश्यन्ती) इस ईश्वर में मानवोपरि कुछ नहीं
वास्तव में यह “प्रभु” मानवीय “मूल्य की समग्रता” है। डॉ. धर्मवीर भारती के अनुसार
मध्यकालीन वैष्णव चिंतकों का “प्रभु” भी यही है।
मानवीय
ईश्वर की तलाश कर लेने पर भी कवि मानव-भविष्य पर ही दृष्टि केंद्रीत
करता है। लगता है कि कवि मानवीय जीवन में “प्रभु” को कोई महत्व देने को तत्पर नहीं। “अंधायुग” में अंधा प्रेत युयुत्सु
साहसपूर्वक घोषणा करता है।
“नियति हमारी बंधी प्रभु के मरण से नहीं,
मानव
भविष्य से।”(2)
मानव और मानवीयता की इसी
प्रतिष्ठा की दृष्टि से भारती के अनुसार परंपरा, समाज-व्यवस्था, राज सत्ता, धर्म, नियम आदि का स्वीकार या
अस्वीकार की एक मात्र कसौटी है संकट के समक्ष अपने मनुष्यत्व की रक्षा और उसकी
प्रतिष्ठा करता हुआ मनुष्य और संस्कृति के चरमोत्कर्ष की कसौटी है मानवीयता का
विकास। मानवीयता पर ध्यान केंद्रीत करने के कारण ही भारती जहाँ एक ओर संतों और
वैष्णवों के प्रभु का निषेध करता है वहाँ दूसरी और उन्हें यह कहकर महत्व देता है
कि “वे संत और भक्त” ईश्वर के माध्यम से मनुष्य की महानता
प्रतिपादित कर गये हैं। अथवा यह कि “वे मनुष्य की आंतरिक सच्चाई” को महत्व देते थे और “दिल की सच्चाई” को ईश्वर की सब से बड़ी “पूजा” मानते हैं। दरअसल धर्म के दो
रुप सर्वथा विद्यमान रहते हैं। मूलतः धर्म उस जीवन-दर्शन को कहते हैं जो मानव के
अंतर्गत और युग की बाह्य परिस्थितियों के संघर्ष में मानव के अंतर्जगत को बल और
प्रेरणा देता है। धर्म का एक दूसरा पहलू होता है, मजहब। जीवन के उच्चतम सौंदर्य, उदारता, प्रेम और आध्यात्म की बजाय मजहब
उन छोटी-छोटी रुढ़ियों और परंपराओं के सहारे अंधविश्वासियों को
गुमराह करने और लूटने की फिराक में रहता है। कहना न होगा कि सच्चा साहित्य धर्म के
इस दूसरे रुप का समर्थन कभी नहीं कर सकता। ईश्वर की तलाश के अत्याधुनिक पाश्चात्य
आंदोलन का विरोध भी भारती ने इसी कारण किया है क्योंकि यह आंदोलन मानव-विरोधी है।
मानव-मुक्ति अथवा मानवीयता की
प्रतिष्ठा में जिस “मानव” का उल्लेख है, उसका स्वरुप स्पष्ट करते हुए भारती लिखा है साधारण, छोटे, महत्वहीन नगण्य मनुष्य की
मुक्ति, उसकी निहित संभावनाओं का विकास, उसकी चेतना पर जकड़ी हुई
राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, मनोवैज्ञानिक जंजीरों को खोलकर
उसे अपने विवेक, अपनी जीवन-पध्दति से व्यापक सत्य की निजी
उपलब्धि करने का अवसर देना, उसके यथार्थ के सारे जटिलतम ताने-बाने को ठीक-ठीक समझना और किसी काल्पनिक
भविष्य नहीं वरना इसी कटुतम वर्तमान में सामान्य मानव की नियति को संस्कार दे सकने
की क्षमता, यही नये साहित्य की मानववादी
प्रकृति है। लेकिन मानव-मुक्त के नाम पर विवेक और मर्यादा रहित आचरण का समर्थन
नहीं है। व्यक्ति की रक्षा करने वाला उसका “मर्यादित आचरण” ही है –
“केवल स्वयं किया हुआ
मर्यादित आचरण कवच है
जो व्यक्ति को बचाता है”(3)
कृष्ण ने
अवसान के क्षणों में वृध्द को बताया कि उनका दायित्व इसी मर्यादित आचरण में स्थित
रहेगा।
“मेरा दायित्व वह स्थित रहेगा
हर मानव के उस वृत्त में
जिसके सहारे वह
सभी परिस्थितियों का अतिक्रमण करते हुए
नूतन निर्माण करेगा पिछले ध्वंसों
पर
मर्यादायुक्त आचरण में
नित नूतन सृजन में
निर्भयता के
साहस के
ममता के
रस के
क्षण में
जीवित और सक्रिय हो उठूँगा मैं बार-बार”(4)
मानव के
मर्यादायुक्त आचरण पर बल देने से भाग्य व्यर्थ हो जाता है। मानव की रचना-क्षमता के कारण –
“नियति नहीं है पूर्व-निर्धारित
उसको हरक्षण मानव-निर्णय बनाता-मिटाता है।”(5)
इस प्रकार
आज के कवि को ईश्वर की तलाश मनुष्य तक ले आती है। इस के अतिरिक्त और कोई मार्ग
सच्चा नहीं। मनुष्य की सर्वोच्चता को बहुत पहले महाभारतकार ने जान लिया था ना
मनुष्यता हिं श्रेष्ठतरं किंचित। भारती अपने ढ़ंग से यही तक पहुँचा है। उक्त
विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि डॉ. धर्मवीर भारती भी परंपरागत ईश्वर
को अस्वीकार करते हुए धर्म निरपेक्ष मानवीय गौरव की स्थापना और मानवीय व्यक्तित्व
की विशिष्टता की इस खोज में पुरानी मान्यताओं एवं मूल्यों के विघटन का प्रश्न किसी
मानवोपरि सत्ता के निषेध एवं मानव-विशिष्टता की स्थापना के समकालीन
प्रयत्नों के साथ जुड़ा हुआ है। डॉ. धर्मवीर भारती “विशिष्ट मानव” को नहीं मानव की विशिष्टता को महत्वपूर्ण
मानते हैं। इसी कारण से उन्होंने अपनी कृतियों “अंधायुग” और “कनुप्रिया” में कृष्ण के चिरस्थायित्व रुप को नए ढ़ाँचे में प्रस्तुत किया
है। “अंधायुग” में कृष्ण के ईश्वरत्व को लेकर
गांधारी और अश्वत्थामा शंका व्यक्त करते हैं। गांधारी कृष्ण को “प्रभुता के दुरुपयोगता” में ईश्वर के प्रति परिवर्तित
दृष्टि-कोण स्पष्ट रुप से व्यक्त हुआ है। इस रचना में कृष्ण का रुप “मानवीय ईश्वर” का है। डॉ. धर्मवीर भारती के अनुसार कर्म-फल के आधार दंड देने वाला कपोल-कल्पित ईश्वर कब का मर चुका है।
लेकिन एक नया ईश्वर जन्म लेता है। वह अभागों, गरीबों, सताए हुए कुंठित और विकलांगों को पिछले जन्म के
कर्मों का अपराधी घोषित कर सुख से नहीं बैठता। वह एक अंश में हरेक के साथ है वह
खुद उनकी सारी पीड़ा जेल रहा है। यह एक बहुत मानवीय ईश्वर था। (पश्यिन्ती) इस ईश्वर में मानवोपरि कुछ नहीं
वास्तव में यह प्रभु मानवीय “मूल्य की समग्रता” है। भारती के अनुसार मध्यकालीन वैष्णव चिंतकों का “प्रभु” भी यही है। (6)
डॉ. धर्मवीर भारती की दृष्टि मानव-भविष्य पर ही केंद्रीत है। वे
मानव-विशिष्टता के अतिरिक्त किसी दिव्य सत्ता को कोई महत्व देने को
तत्पर नहीं। ड़ॉ. धर्मवीर भारती मिथकीय आधार को स्वीकार करते हुए भी
अपनी रचनाओं में मानव-विशिष्टता को पौराणिक प्रतीकों के माध्यम से
प्रतिपादित कर गये हैं, जो आधुनिक युग की एक सब से बड़ी माँग है। उनका ध्यान सदा मानवीयता
और उसका विकास, मनुष्यत्व की रक्षा और उसकी
प्रतिष्ठा करनेवाला मानव की विशिष्टता और उसकी महानता पर केंद्रित हुआ है। डॉ. धर्मवीर भारती की “ठण्डा लोहा” और “सात गीत वर्ष” में भी यत्र-तत्र एक महत्वपूर्ण मानव-मूल्य के रुप में “मानव-विशिष्टता” अभिव्यक्ति पायी है। भारती की
कुछ कविताएँ “मानव-विशिष्टता” को व्यापक रुप से आंकती है।
डॉ. धर्मवीर भारती अपनी कृतियों में
जिस “मानव-विशिष्टता” को अभिव्यक्त किया है वह न तो “सुपरमैन” को स्वीकार करती है तथा न ही
अधिनायकवाद को। “वर्ग-मानव” में मानव-विशिष्टता का प्रश्न ही नहीं
उठता। लघु मानव के प्रणेता लक्ष्मीकांत वर्मा के मत “लघु-मानव” और “मानव-विशिष्टता” में तत्वतः कोई विरोध नहीं है।
इन मतवादों से दूर हटकर कहा जा सकता है कि मानव-विशिष्टता मानव-मात्र को उसके परिवेश और यथार्थ
में स्वीकार करती है। मानव-विशिष्टता व्यक्ति के “अहं” के परिष्कृत रुप को ही स्वीकार
करती है न कि विकृत और कुंठाग्रस्त अहं को।
संदर्भ
1. अंधायुग : डॉ. धर्मवीर भारती – पृ.सं - 73
2.
अंधायुग : डॉ. धर्मवीर भारती – पृ.सं – 26
3.
अंधायुग : डॉ. धर्मवीर भारती – पृ.सं - 96
4.
अंधायुग : डॉ. धर्मवीर भारती – पृ.सं - 97
5.
अंधायुग : डॉ. धर्मवीर भारती – पृ.सं - 26
6.
धर्मवीर भारती : लक्ष्मणदत्त गोतम – पृ.सं – 43