व्यंग्य, मनोरंजन तथा पात्रानुकूल संवाद : रात बीतने तक तथा अन्य ध्वनि नाटक
व्यंग्य, मनोरंजन तथा पात्रानुकूल संवाद : रात बीतने तक तथा अन्य ध्वनि नाटक
प्रो. एस. वी. एस.एस. नारायण
राजू
Aalochan Drishti,
An International Peer Reviewed
Refereed Research Journal of Humanities.
July-September, 2020.
ISSN No. 2455-4219
मोहन राकेश कृत नाटक ' रात बीतने तक ' तथा अन्य ध्वनि नाटको ' में प्रयुक्त संवादों में पर्याप्त विविधता पाई जाती है । व्यंग्यात्मक और मनोरंजनपूर्ण
संवादों का प्रयोग भी पूर्णता से इस नाटक में
दृष्टव्य है । यथा -
“विलोम : यह अनुभव करने की मैंने आवश्यकता नहीं समझी ।
तुम मुझसे घृणा करती हो , मैं जानता हूँ । परंतु मैं तुमसे घृणा नहीं करता । । मेरा यहां होने के लिए
इतना ही कारण पर्याप्त है । अग्निकाष्ठ का
प्रकाश फिर कालिदास के चेहरे पर डालता है , और एक बात कालिदास से भी करना चाहता था । तुम
कालिदारा के बहुत निकट हो , परंतु मैं कालिदास को तुमसे अधिक जानता हूँ । वह चलते - चलते पुनः दोनों की ओर
देखता है । फिर कालिदास की ओर देखता है । . . . . . तुम्हारी यात्रा शुभ हो , कालिदास ! तुम जानते हो , विलोम तुम्हारा भी हितचिंतक है ।
कालिदास : मुझसे अधिक कौन जान सकता है ? विलोम के कंठ से तिरस्कारपूर्ण हँसी का स्वर निकलता है और विलोम की ओर देखता
है ।
विलोम : अनचाहा अतिथि संभवतः
फिर भी कभी आ पहुँचे , मल्लिका तब तक के लिए क्षमा चाहते हुए ......”(1)
व्यंग्य के साथ विलोम मुस्कराकर वहाँ से चला
जाता है । कालिदास क्षण - भर मल्लिका की ओर देखता रहता है । फिर वहीं से झरोखे के
पास चला जाता है ।
‘ स्वप्नवासवदत्तम् ' में विदूषक और महाराज उदयन के बीच वार्तालाप भी मनोरंजनपूर्ण ढंग से आयोजित
किया गया है ।
" विदूषक : अच्छा ! मैं आपको दूसरी कहानी
सुनाता हूँ । एक नगर है । जिसका नाम है ब्रह्मदत ! वहाँ काम्पिल्य नाम का एक राजा
राज्य करता था ।
राजा : क्या ?
विदृषक : कहाँ है कि ब्रह्मदत्त
नामक एक नगर है । जहाँ पर काम्पिल्य नामक एक राजा राज्य करता था ।
राजा : अरे मूर्ख राजा का नाम ब्रह्मदत्त होगा
और नगर का नाम काम्पिल्या विदूषक : राजा ब्रह्मदत्त और नगर कम्पिल्य ?
राजा : हाँ !
विदृषक : ठहरिए ! पहले मुझे याद
कर लेने दीजिए , राजा ब्रह्मदत्त । नगर काम्पिल्य , राजा ब्रह्मदत्त नगर काम्पिल्य , ब्रहमा राजदत्त काम्पिल्य नगरिलय , कांपिल्य राजदत्त ब्रह्मा नगरीलय अब आगे सुनिए ना”(2)
इस नाटक में विदृषक ने महाराज
उदयन का दिल बहलाने के लिए इस तरह की कहानियाँ सुनाता रहता है ।
' आषाढ़ का एक दिन ' नाटक में भी इसी तरह के व्यंग्य तथा हास्यसंवाद का चित्रण हुआ है, यथा -
अनुस्वार : मैं समझता हूँ कि
कुंभ इस कोने में और , दूसरा दूसरे कोने में होना चाहिए ।
अनुनासिक : मैं समझता हूँ कि
कुंभ यहाँ पर होना ही नहीं चाहिए ।
अनुस्वार : क्यों ?
अनुनासिक : क्यों का कोई उत्तर
नहीं ।
अनुस्वार : मैं तुमसे सहमत नहीं
हूँ ।
अनुनासिक : मैं तुमसे सहमत नहीं
हूँ ।
अनुस्वार : तो ?
अनुनासिक : तो कुंभ को भी रहने
दिया जाए ।
अनुस्वार : और ये वस्त्र ?
अनुनासिक : वस्त्र अभी गीले हैं
। इसलिए इन्हें नहीं हटाना चाहिए ।
अनुस्वार : क्यों ?
अनुनासिक : शास्त्रीय प्रमाण ऐसा है ।
अनुस्वारः कौन सा प्रमाण है ?
अनुनासिक : यह तो मुझे स्मरण
नहीं ।
अनुस्वार : यह स्मरण है कि ऐसा प्रमाण है ?
अनुनासिक : हाँ ।
अनुस्वार : तो ?
अनुनासिक : तो संदिग्ध विषय है
।
अनुस्वार : हाँ तब तो संदिग्ध
विषय है ।
अनुनासिक : तो संदिग्ध विषय होने से वस्त्रों को
भी रहने दिया जाए ।
अनुस्वार : अच्छी बात है , वस्त्रों को भी रहने दिया जाए”(3)
यहाँ अनुस्वार और अनुनासिक की मूर्खता और
विचारहीनता पर व्यंग्य के सहारे प्रहार करके नाटककार ने हास्य की योजना
सफलतापूर्वक किया है ।
संवादों का प्रमुख कार्य
पात्रों के व्यक्तित्व का उद्घाटन माना गया है । व्यक्तित्व का अर्थ है जिसमें
व्यक्ति की पूर्ण अस्मिता समाहित होती है । इसके अंतर्गत उसका बाहरी और भीतरी
चारित्रिक वैशिषिट्य का विवरण होता है । अर्थात व्यक्तित्व बाह्य रूप और आंतरिक
सौष्ठव से मिलकर ही अपना रूप धारण करता है । पात्रानुकूल संवाद का उद्घाटन दो
तरीकों से करते हैं । पहला वक्ता के संवाद से स्वयं उसका व्यक्तित्व अनावृत होता
है । द्वितीय उसके संवाद दूसरों के चरित्र को व्यक्त करते हैं । नाटक के प्रत्येक
संवाद किसी - न - किसी माध्यम से किसी - न - किसी पात्र की वैयक्तिक विशेषता को , उसके व्यक्तित्व को उजागर करते हैं । मोहन राकेश के संवादों को इस कार्य में
सफलता कहाँ तक मिली है , उसका आकलन यह मोहन राकेश कृत नाटक ' रात बीतने तक तथा अन्य ध्वनि नाटकों के माध्यम से देखा जा सकता है ।
' रात बीतने तक' में इसी तरह के पात्रानुकूल संवाद का आयोजन किया गया
है । यथा –
" सुंदरी : नहीं । । संसार की दृष्टि इसे सहन नहीं करती । लोग
पहले ही कहते हैं कि राजकुमार नंद ने मानवी से नहीं; एक यक्षिणी से विवाह किया है जो हर क्षण उन पर जादू
किए रहती है ।
नंद :
ठीक ही तो कहते है
सुंदरी: ( कृत्रिम रोष के साथ ) ठीक कहते हैं ? मैं यक्षिणी हैं ?
नंद : सच कहूँ ।
सुंदरी:हॉ - हाँ !
नंद : मैंने कभी यक्षिणी देखी नहीं । परंतु इतना कह
सकता हूँ कि , तुम मानवी नहीं ! तुम्हारे जैसा रूप मानवी का नहीं होता । . . . तुम्हारी
आँखों से मदिरा छलकती है , ओठों से मदिरा छलकती है , रोम - रोम से मदिरा छलकती है । फिर तुम कैसे कहती हो
कि तुम मानवी हो ? . . . . . . एक बार फिर वही शब्द कहो”(4)
सुदरी अपने आकर्षण के द्वारा राजा नंद को बाँध
कर रखती है । नंद उस आकर्षण से मुग्ध होकर राज्य के बारे में सोचना भूल जाता है ।
इसीलिए राज्य के हर व्यक्ति सुंदरी को मानवी के बजाय एक यक्षिणी के रूप में देखने
लगते हैं ।
‘कुँआरी धरती में भी नाटककार ने नाटक को जीवंत
बनाने के लिए पात्रानुकूल संवादों को प्रस्तुत किया है । यथा –
" राधिका : न भइया , न ! मेरा छः बच्चों का परिवार है । ऐसी बदनामी से तो पहले ही इनकी पंडा -
वृत्ति , खराब हो रही है । जिसके घर में ऐसा अधर्म हो रहा हो , उससे लोग धर्म का कारज क्यों करेंगे ?
रजनी : तुम मुझे इतनी गिरी हुई
क्यों समझती हो , बहन ? मेरी कुछ परिस्थितियाँ हैं , जो मुझे यहाँ ले आई है ! नहीं तो....
राधिका : ऐसा ही सतवंती हो तो क्यों नहीं अपने घरवालों को
तीन पैसे का कारड़ लिखकर बुला लेती ? तुम्हारे घरवाले आ जाएँ । तो हमारे या किसी के कहने
की कोई बात नहीं रह जाती । पर आगे - पीछे कोई हो तो . . . . ।
रजनी : ऐसी बात न कहो , राधिका बहन ! मेरे कारण घरवालों की क्या दशा हो रही होगी , उसका अनुमान मैं ही लगा सकती हूँ । फिर भी मैं उन्हें अपनी सूचना नहीं दे सकती
। केवल कुछ दिनों की ही तो बात है । उतने दिन मुझे यहाँ काट लेने दो , बहन ! उसके बाद मैं स्वयं ही . . . . . .”(5)
इस नाटक में मोहन राकेश ने कुंआरी माँ की
निस्सहायता और विवशता का चित्रण किया गया है ।नाटककार मोहन राकेश ने नाटक के
अनुरुप आवश्यकतानुसार व्यंग्य, मनोरंजनपूर्ण तथा पात्रों के अनुरुप संवादों का
प्रयोग किया है.
संदर्भ :
1.
रात बीतने तक तथा अन्य ध्वनि नाटक : मोहन राकेश - पृ . सं . 114 , 115
2.रात बीतने तक तथा अन्य ध्वनि नाटक : मोहन राकेश - पृ . सं . 39
3. रात बीतने तक तथा अन्य ध्वनि नाटक : मोहन राकेश - पृ . स . 121 , 122
4. रात बीतने तक तथा अन्य ध्वनि नाटक : मोहन राकेश - पृ . सं . 12
5.रात बीतने तक तथा अन्य ध्वनि नाटक : मोहन राकेश - पृ . सं . 79 , 80