तुलसी की भक्ति भावना (संपादकीय)

 



तुलसी की भक्ति भावना

(संपादकीय)

                                        प्रो.एस.वी.एस.एस.नारायण राजू

स्रवंति,

द्विभाषा मासिक पत्रिका.

जुलाई 2005.

          तुलसी दास राम के अनन्य भक्त थे. उन्होंने एक राम गणश्याम हित् चातक तुलसीदास कहकर चातक को अपने भक्ति भाव का परस आदर्श माना है और अपने इष्ट देव के प्रति अनन्य प्रेम, अटूट श्रद्धा, परम विश्वास एवं गहन प्रीति, प्रतीती प्रकट करते हुए अपनी भक्ति भावना को प्रकट किया हैं. तुलसी की दृष्टि में राम के बराबर महान और अपने बराबर लघु कोई नहीं है. यही एक परम भक्त का दैन्य भाव है.

            राम सो बडौ है कौन, मोसो कौन छोटो.

            राम सो खरो है कौन, मोसो कौन खोटो..

        तुलसी के राम अज, सच्चिदानंद, अरुप, अनाम व्यापक, विश्वरुप आदि तो हैं ही परंतु भक्तों के कष्ट निवारण हेतु  भूमि का भार हरने को लिए तथा गो द्विज का हित करने के लिए अवतार ग्रहण किया करते हैं. अतः वे निराकार एवं निर्गुण होकर भी भक्तों के लिए साकार एवं सगुण हो जाते हैं.

        तुलसी की यह दृढ़ आस्था है कि शरणागति और भक्ति ही सब विकारों को मिटाकर मृत्यु तक को टालने की सामर्थ्य रखती हैं. तुलसी की भक्ति में विनय की भावना सर्वोपरि दृष्टिगोचर होती है. तुलसी ने भक्ति प्राप्ति के लिए सत्संग को सर्वश्रेष्ट बताया है क्योंकि संत सदैव भगवान पर आश्रित रहते हैं और उनके संपर्क में आकर मानव सहज ही भगवत् भक्ति की ओर उन्मुख हो सकता है.

       तुलसी की भक्ति पद्धति में विनय, प्रेम, आसक्ति एवं शरणागति की प्रबलता होकर भी दैन्य का आधिक्य है. तुलसी की भक्ति सात्विकी भक्ति है. उनके ह्रदय में एक मात्र राम ही रमते हुए दिखाई देते हैं. भक्त तुलसी को इसीलिए दुर्लभ कैवल्य पद की भी चाह नहीं है और वे मुक्ति का निरादर करके एक मात्र भक्ति में ही लीन रहना अच्छा समझते हैं.

 

 


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