अभिनय तंत्र की दृष्टि से खड़ी बोली हिंदी नाटकों का विकास

 



अभिनय तंत्र की दृष्टि से खड़ी बोली हिंदी नाटकों का विकास

एस. वी. एस एस. नारायण राजू

साहित्य सुमन, (अंक- 1),  

प्रतिभा प्रकाशन, हैदराबाद

वर्ष - 2004

अनुकरण-वृत्ति से मानव-चरित्र का विशेष संबंध है. अनुकरण की चेष्टाएँ मूर्त्त रूप में अभिनय कहलाती हैं. मनुष्य के संस्कार, भाव-व-विचार और इसके चरित्र का परिचय 'अभिनय' से प्राप्त होता है. 'नाट्य' शब्द की व्यंजना अभिनय है और अभिनय मानव की आदि प्रवृत्ति है, इसका प्रमाण तो हमें मानव जीवन में ही मिलता है. किसी नाट्य कृति का जनसाधारण के सामने कलात्मक प्रस्तुतीकरण उसका “अभिनय” कहलाता है. 'अनुकरण' की अभिव्यक्ति को कलात्मक उपकरणों, पात्र, कथोपकथन, चरित्र-चित्रण, कथा-वस्तु, देशकाल, उद्देश्य आदि से संयोजित करके एवं जन साधारण के भावों को तद्जनित अभिव्यक्ति के रस-रंजन में डुबाने की प्रेषणीयता की शक्ति पैदा करके रंगमंच पर जिस सृष्टि का सफल अभिनय किया जा सकता है, वही श्रेष्ठ नाट्य सृष्टि कही जा सकती है. जहाँ तक नाटक की पूर्ण सफलता की बात है, उसके लिए निश्चय ही कहा जाएगा कि उसे रंगमंच पर अभिनय-अनुकरण के संप्रेषण के सर्वथा अनुकूल होना चाहिए. अभिनय और उसके साथ अन्य नाट्य उपकरणों की अनिवार्यता को ध्यान में रखते हुए ही शायद भरत मुनि ने नाटक की लोक उपयोगिता पर विशेष बल दिया है. नाटक का गहरा संबंध 'अभिनय' से है और अभिनय के लिए जिस उचित स्थान का चुनाव होता है वह है - ‘रंगमंच’.

नाट्य शास्त्र में अभिनय के जिन चार भेदों का जिक्र है, उसके चारों शास्त्रीय भेद इस प्रकार हैं – आंगिक - किसी विशेष अभिव्यक्ति को दृश्य बनाने हेतु नाटक के पात्र कुछ शारीरिक चेष्टाएँ (हाव-भाव का प्रदर्शन) करते हैं. जैसे - हँसना, मुँह चिढ़ाना, हाथ-पाँव पीटना आदि. यह आंगिक अभिनय है.  वाचिक - वाणी द्वारा मानसिक भावों की अभिव्यक्ति करना, उसको दृश्य के परिप्रेक्ष्य में सार्थक बनाना वाचिक अभिनय है. संवाद की सजीव शैली इसका सशक्त पक्ष है.  आहार्य -  वेश-भूषा द्वारा किसी ऐतिहासिक, मानसिक अथवा सामाजिक समसामयिक स्थिति की अभिव्यक्ति पर उसको दृश्य के परिप्रेक्ष्य में सार्थक बनाना 'आहार्य' अभिनय है. इसके उपकरण देश काल परिस्थिति वातावरण के अनुकूल अनेक होते हैं.  सात्विक - यह अभिनय पात्रों के सहज भावों के प्रदर्शन अथवा भावाभिव्यक्ति का होता है.

भारतेंदु काल से खड़ीबोली में नाटक का विकास संपन्न हुआ. हिंदी साहित्य के इतिहास काल के समानांतर ब्रज, अवधी और विशेषकर मैथिली में लोकाभिनय के आधार पर, नाट्य सृष्टि के विकास के इतिहास को माना जा सकता है. यद्यपि नाटक के सृजन संदर्भ के अभिनयात्मक इतिहास की दृष्टि से दरबारी उर्दू कवि अमानत के 'इंदर सभा' की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट होता है, किंतु इस दृष्टि से खड़ी बोली की मूलभूत प्रकृति के अनुसार भारतेंदु काल को ही खड़ी बोली के नाटक इतिहास विकास का पहला चरण माना जा सकता है. भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनके अनुयायियों ने नाटक के अभिनय तंत्र और रंगमंचीय विधान के निमित्त बड़े उत्साह का प्रदर्शन दिखलाया और आदर्श का अनुकरण किया. परंतु उन्हें इस दिशा में अनेक अड़चनें आयीं. भारतेंदु काल में ही रंगमंचीय विकास को इस दिशा में पारसी थियेट्रिकल कंपनियों ने अधिकतर पूंजीगत लाभाधार पर चीप लोगों के चीप मनोरंजनार्थ चीप नाटकों का अभिनय आरंभ किया. यद्यपि रचनात्मक मूल्यों की दृष्टि से राधेश्याम कथावाचक के नाटकों (वीर अभिमन्यु) में पुनरुत्थान संबद्ध चेतना का प्रबल उन्मेष है. आगा हश्र (बिल्वमंगल), बेताब (महाभारत) और हरिकृष्ण जौहर के नाटकों में भी तत्कालीन संवेदना की सामग्री है. उर्दू के चीप पारसी नाटकों की रोमानियत की लैला-मजनू, 'शीरी-फरहाद', 'दिलफरोश' 'तुर्की हूर', 'पहला प्यार' आदि के टक्कर में भारतेंदु लोक रंगमंच भी सक्रिय था. पर इन सब कुछ का पूरा फायदा उठाया सन् 1930 में आरंभ हुए सिनेमा ने. तब से लेकर अब तक अनेक हिंदी नाटककारों और उनकी स्फुट अभिनय योग्य नाट्य-सृष्टि के बावजूद हिंदी रंगमंच दरिद्रता की दिशा में ही बराबर बढ़ता चला गया और पूँजीवादी अर्थ व्यवस्था के एकतंत्र के रूप में 'सिनेमा' सामान्य जनता के सिर पर सवार होकर मनोरंजन कराने वाला शोषण का भूत जैसा बनकर जिस कदर हावी रहा है, शायद उसे बताने की जरूरत नहीं है. यों यह ऐतिहासिक विकास-बिंदु 'भारतेंदुकाल' तक नहीं हैं. जाहिर है, यहाँ तक नाटक का व्यावहारिक महत्व पक्ष अभिनय और रंगमंचीय तंत्र की दृष्टि से रहा. खड़ीबोली हिंदी नाटकों के विकास, इतिहास का पहला बिंदु तो इसी जगह पर रखा है और इसके बाद अभिनय और रंगमंच का तंत्र टूटता नहीं है, शायद तोड़ा जाता है. शायद यह सोचकर वह साहित्यिक-सांस्कृतिक दृष्टि से सर्वथा सतही है, सस्ता है. सही भी है कि "भारतेंदु काल" में जिन नाटकों का रंगमंच पर अभिनय होता था.  प्रायः उन में साहित्यिक-सांस्कृतिक मूल्य महत्व का कोई बोध अभिव्यक्त नहीं होता था. फिर दम तोड़ते हुए के दो दमदार लातें जैसे कोई मारे... पारसी रंगमंच के नाटकों और खासकर सिनेमा ने कुछ ऐसा ही काम कर दिखाया. यों यह कहना-समझना सर्वथा सच है कि खड़ी बोली के आधुनिक उच्च कोटि के नाटकों का सफल सृजन जयशंकर प्रसाद की लेखनी कर सकी. अधिकांश में सस्ते रंगमंच और अभिनय बिंदु के आगे साहित्यिक-सांस्कृतिक चेतना से भरकर पाठ्य नाटक परंपरा का पहला बिंदु निश्चय ही हिंदी में जयशंकर प्रसाद ने रखा है. अतः पाठ्य-नाट्य परंपरा का पिता उन्हें कहना ठीक है . कुछ तत्वों को छोड़कर (और खासकर गीत प्रयोग को जिसका विशेष प्रभाव पारसी नाटकों पर था और उसके प्रभाव स्वरूप भारतेंदु के नाटकों पर भी था) एकांकी एवं साहित्यिक नाटकों की परंपरा, ऐतिहासिकता, सांस्कृतिकता, राष्ट्रीयता का समन्वय पौराणिकता एवं आधुनिकता का नाटकीय एकत्व तथा कला और जीवन का रंजक साक्षात्कार मौलिक स्तर पर जयशंकर प्रसाद ने ही नाटकों में स्थापित किया. हिंदी में सब से पहले और तब तक अद्वितीया पर इस प्रगति- प्रतिष्ठा का एक अप्रिय प्रसंग यह है कि नाटकों का पाठ्य पक्ष एकदम उभर आया, और यह एक भयंकर असंगति थी. परिणाम स्वरूप हिंदी नाट्य अभिनय और रंगमंच को बड़ी गहरी क्षति पहुँची. फलतः नाट्य-सृष्टि सिर्फ हिंदी के ऊँचे पाठ्यक्रमों में रखकर पढ़ाई-रटाई जानेवाली चीज बनकर रह गई. हाँ, कुछ आचार्य-समालोचकों और कुंजी लेखकों के लिए वह अवश्य लाभप्रद बनी रही है. स्वातंत्र्योत्तर काल में कुछ हरकत हुई और रचनात्मक बात बनी. कई नाट्य संस्थाएँ बनीं. अलका जी जैसे कुशल कलाकार और नाट्य निर्देशक आगे आये . विद्यालयों,महाविद्यालयों,विश्वविद्यालयों के कार्यक्षेत्र बने. कई अच्छे नाटक-लेखक भी तैयार हुए और विशेषकर आकाशवाणी आगे आयी . नाटकों के लोक-मनोरंजन के प्रचार-प्रसार के नये आयाम आभासित हुए और अभिनय और रंगमंच के अभाव की पूर्ति की दिशा में आगे बढ़ने की अनिवार्य आवश्यकता का रचनात्मक अहसास भी हुआ. पिछले चार दशक में ऐसा कुछ विशेष हुआ, और नाट्य तंत्रीय अभिनय रंगमंच की प्रगति की दिशा में नये-नये प्रयोगों का पक्ष भी उजागर हुआ.

मोहन राकेश ने हिंदी नाट्य सृजन में इन प्रयोगों का पहला बिंदु रखा. किसी कुण्ठा अथवा पुर्वाग्रह से मुक्त होकर कहें कि अपनी शक्ति भर मोहन राकेश ने अभिनय तंत्र के नये प्रयोग करने की दिशा में जो कुछ कदम उठाये उनसे हिंदी नाटकों का अभिनय और रंगमंच का क्षेत्र कुछ समृद्ध और उन्नत हुआ है. मोहन राकेश ने हिंदी नाट्य-सृष्टि में एक प्रयोगकर्मी क्राँति पैदा की और अभिनय रंगमंच के विकास की प्रेरणा के लिए सृजनधर्मी एक कीर्तिमान भी कायम किया. चूँकि ऐसा एक लंबे अर्से बाद हुआ था. अतः मोहन राकेश का ऐतिहासिक महत्व बताने की आवश्यकता मैं नहीं समझता. मगर मैं यह भी मानता हूँ कि मोहन राकेश का यह प्रयोगधर्मी-कर्मी सृजन कोई 'दुल्हाम' तो नहीं था, उसका एक क्षेत्र था. पहले उसे कई नाटककारों- एकांकीकारों ने जयशंकर प्रसाद के बाद काफी जोता खींचा था. इनमें से कुछ विशेष नाम हरिकृष्ण प्रेमी, गोविंद वल्लभ पंत, सेठ गोविंददास, वृन्दावन लाल वर्मा, उदयशंकर भट्ट, रामकुमार वर्मा, चतुरसेन शास्त्री, लक्ष्मीनारायणलाल, उपेंद्रनाथ अश्क, लक्ष्मीनारायण मिश्र, विष्णु प्रभाकर और जगदीशचंद्र माथुर हैं. 


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