पात्रों के आंतरिक द्वन्द्वों के उद्घाटन के लिए स्वगत कथनों का प्रयोग : लहरों के राजहंस

 


पात्रों के आंतरिक द्वन्द्वों के उद्घाटन के लिए स्वगत कथनों का प्रयोग : लहरों के राजहंस

                                         डॉ. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू

 

स्रवंति

द्विभाषा मासिक पत्रिका

अगस्त, 2003

 

पात्रों के आंतरिक द्वन्द्वों का चित्रण करने में भी "लहरों के राजहंस" नाटक में प्रयुक्त संवाद सापेक्ष एवं समर्थ हैं. नंद, सुंदरी, श्यामांग के संवाद उनके द्वन्द्व स्थापित कर देते हैं. ऐसे प्रसंगों में नाटककार ने स्वगत कथनों का स्वाभाविक प्रयोग किया है. आधुनिक आलोचक यद्यपि स्वगत कथनों को अस्वाभाविक मानकर उन्हें त्याज्य मानते हैं पर ‘‘लहरों के राजहंस'' के स्वगत कथनों के संबंध में ऐसा नहीं कहा जा सकता. उनमें अन्तर्द्वन्द्व के सहज उद्घाटन की क्षमता तो विद्यमान है ही, काव्यात्मकता एवं सरसता का प्रभाव भी है. श्यामांग के समस्त संवाद और विशेष करके पहले अंक के बाद के वक्तव्य एक प्रकार से स्वगत कथन ही हैं. नाटक के अंत में सुंदरी एवं नंद के स्वगत कथन भी देखे जा सकते हैं. दूसरे अंक का तो उद्घाटन भी श्यामांग के द्वन्द्वग्रस्त स्वगत कथन के साथ होता है। “कोई स्वर नहीं है.....कोई किरण नहीं है..... सब कुछ ..... सब कुछ इस अंधकूप में डूब गया है....मुझे सुलझा लेने दो... सुलझा लेने दो.... नहीं तो अपने हाथों का मैं क्या करूंगा।... कोई उपाय नहीं है... कोई मार्ग नहीं है... इन लहरों पर से.... लहरों पर से यह छाया हटा दो मुझ से.... मुझ से छाया नहीं ओढी जाती।" (1) पात्रों के आंतरिक और बाह्य गुणों के उद्घाटन के रूप में श्यामांग और श्वेतांग के संवादों को लिया जा सकता है. श्यामांग की चिंतनावृत्ति को संवादों की जिस शैली में प्रस्तुत किया गया है वह नाटक में अपना सानी नहीं रखती है. श्यामांग के कथनों में उसका स्वभाव, उसकी मनःस्थिति उसी प्रकार बाँध दी गई है जैसे फूल से पत्तियाँ. सुंदरी का रूप गर्व और स्वतंत्र व स्वाभिमानी स्वभाव उसके संवादों में भली-भाँति मिल जाता है. नंद के कथनों, स्वगत कथनों और सुदंरी के साथ हुए संवादों में भी उनकी मनःस्थिति व्यक्तित्व और इरादों को बखूबी हृदयंगम किया जा सकता है.

 

लहरों के राजहंस" नाटक में राजकुमार नंद के चरित्रोद्घाटन में तथा अस्तित्ववादी जीवन-दर्शन को अभिव्यक्ति देने में स्वगत कथनों का सशक्त प्रयोग किया गया है. चौराहे पर खड़ा एक नंगे व्यक्ति के रूप में नंद का चित्रण करके उसके चरित्र का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करने में संवादों का उपयोग सशक्त रूप से किया गया है. इसी प्रकार नाटक के तीसरे अंक के अंत में नंद के संवादों का उल्लेख किया जा सकता है. वे भी पर्याप्त लंबे हैं. लेकिन भाषण प्रतीत नहीं होते. अत्मीयता एवं द्वन्द्व की गहनता वहाँ बनी रहती है. "तब नहीं लगा था, पर अब लगता है कि केश काटकर उन्होंने मुझे बहुत अकेला कर दिया घर से और अपने आप से भी अकेला. जिस सामर्थ्य और विश्वास के बल पर जी रहा था, उसी के सामने मुझे असमर्थ और असहाय बनाकर फेंक दिया गया है ।.... लगता है मैं चौराहे पर खडा एक नंगा व्यक्ति हूँ जिसे सभी दिशायें लील लेना चाहती है और अपने को ढ़कने के लिए उसके पास कोई आवरण नहीं है.. परंतु मैं इस असहायता की स्थिति में नहीं रह सकता...''(2) यहाँ इन संवादों के माध्यम से राजकुमार नंद के मन में जीवन के मोक्षवादी और भोगवादी सिद्धांतों की टकराहट के कारण उत्पन्न अनिश्चितता एवं बेचैनी का सशक्त अंकन किया गया है.

 

मोहन राकेश के नाटकों में स्वगत कथनों के लंबे होने के संबंध में आलोचकों ने टिप्पणी की है. नाटकों में स्वगत कथनों की योजना परंपरा पुरानी है. किंतु आधुनिक बोध आज नाटकों में इस तरह की स्थितियों को साकार कर नहीं चलता है. स्वगत कथनों की योजना नाटक में अस्वभाविकता की स्थिति को जन्म दे सकती है. वस्तुतः यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है कि कोई भी पात्र अपने अंतःसंघर्ष और चिंतना के स्फुरण की एक लंबे समय तक रंगमंच पर आत्मालाप की स्थिति की शैली में प्रस्तुत करता रहे. यदि फिर भी कोई नाटककार अपने किसी पात्र को ऐसी छूट दे देता है तो उस नाटककार की कमजोरी के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए. ऐसी स्थिति से बचने का सबसे बड़ा कारण यह है कि दर्शक अथवा प्रेक्षक उस से ऊबने लगते हैं. ‘‘लहरों के राजहंस" में स्वगत कथनों के दो रूप मिलते हैं. वह रूप जिस में संक्षिप्त स्वगत कथनों की योजना की गयी है. ऐसे स्वगत कथनों के उदाहरणस्वरूप सुंदरी का यह संक्षिप्त स्वगत कथन देखा जा सकता है, "वहाँ वह सूना कमलताल....यहाँ कक्ष का यह सूनापन लाता है आज घर अपना नहीं रहा." (3) "लहरों के राजहंस'' में लंबे स्वगत कथनों की योजना भी देखने को मिलती है. नाटककार ने इन लंबे स्वगत कथनों के माध्यम से अपने विभिन्न चरित्रों के सबल एवं दुर्बल पक्षों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने का स्तुत्य प्रयास किया है. यह सच है कि एक तों अन्तर्द्वन्द्व को अभिव्यक्ति देनेवाले ये स्वगत कथन जैसे संवाद लंबे हो गये हैं, पर उन में अस्वाभाविकता नहीं है. दूसरे ये वास्तव में नाट्य-शिल्प एवं वस्तुविधान की मांग करते है. यह नहीं कि द्वन्द्व को अभिव्यक्ति देनेवाले ऐसे कथन लंबे ही हैं. अत्यंत संक्षिप्त कथन भी देखे जा सकते हैं. जैसे सुंदरी का स्वंगत कथन ‘‘वहाँ वह सूना कमल ताल यहाँ कक्ष का यह सूनापन..... लगता है आज घर अपना घर नहीं रहा.''(4) और फिर नाटक के अंत में कह गये उसके ऐसे कथन तो जैसे अंतर्द्व्द्व को उड़ेलते हुए प्रतीत होते हैं, “इतना ही तो समझ पाते हैं ये लोग....बस इतना ही इनकी समझ में आ पाता है.... इस से अधिक कभी समझ भी नहीं पाएँगे ये. ....कभी नहीं समझ पाएँगे।''(5) यहाँ अपने मन की स्थितियों को स्पष्ट करने में राजकुमार नंद के मन की विवशता का परिचय प्रभावात्मक ढंग से दिया गया है.

 

 

संदर्भ :

 

1. मोहन राकेश : लहरों के राजहंस पृ.सं. 64

2. मोहन राकेश : लहरों के रांजहंस पृ.सं. 121-122

3. मोहन राकेश : लहरं के राजहंस पृ.सं. 123

4. मोहन राकेश : लहरों के राजहंस पृ.सं. 123

5. मोहन राकेश : लहरों के राजहंस पृ.सं. 125


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