युद्धजन्य परिस्थितियों का सफल अंकन "सूर्यमुख"

 



युद्धजन्य परिस्थितियों का सफल अंकन "सूर्यमुख"

एस. वी.एस.एस. नारायण राजू

स्रवंति,

द्विभाषा मासिक पत्रिका

नवंबर, 2003

प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों की भयंकर विभीषिकाओं ने जन-मानस के शरीर, मन व आत्मा की इकाई को तोड़कर रख दिया. ऐसे भयावह वातावरण में मानवीय चेतना एक ओर मानवीय मूल्यों के बिखराव से त्रस्त थी तो दूसरी ओर नयी सृजनोन्मुखता की ओर उसकी आस्था निरन्तर चेतन हो रही थी. इससे किसी को इन्कार नहीं कि युद्ध विनाश का पर्याय है, लेकिन इसके साथ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ध्वंस पर ही निर्माण की अट्टालिका निर्मित होती है. मनुष्य प्रत्येक स्वयं के पश्चात् सृजन की नयी शुरूआत करनेवाला है. मानवीय सृजन शक्ति की इस चेतना की ओर यदि कोई काव्य-चेतना उन्मुख नहीं होती तो निश्चय ही वह मानवीय जीवन की यथार्थ अभिव्यक्ति से दूर है. युद्ध की विभीषिका को झेलकर निर्माण के लिए संघर्ष करनेवाला मानव अपेक्षाकृत नया होता है. उसकी तपती संवेदना में ध्वंस, कुरुपता, प्रतिहिंसा - पाशविकता, अजनबीपन की कड़वाहट, अपरिचित नियति, अनैतिकता, अनाचार, मानसिक उथल-पुथल, अविश्वास, विद्रूपता, विसंगत, निषेधात्मकता, विघटन अवधारणामूलक दृष्टि कोण खोखलापन आदि से स्मृति क्षण- उसकी चेतना के साथ घुलमिलाकर रुपायित हो जाते हैं और उसके सामने होता है संघर्ष का एक लम्बा कर्म- क्षेत्र, एक नवीन दृष्टि एक नया संसार. एक ओर होता है पराजय की दुर्दान्त घडियों को झेलता हुआ, पराजित वस्तु स्थिति की वास्तविकता का आकलन करता हुआ विजयी मनुष्य और दूसरी ओर होती है चरमराती विश्रृंखलित होती मूल्य- मर्यादाएँ, जो न केवल एक नयी स्थिति को जन्म देती है बल्कि यहाँ से शुरुआत होती है एक नए द्वन्द्व की संघर्ष की मानसिकता की, जिसमें निरन्तर झूलता मूल्य संकट और मूल्य बोध का द्वन्द्व एक रिक्तता का निर्माण करता चला जाता है. इस संघर्ष का खालीपन समाज में व्यक्त स्तर पर अविश्वास भय और आतंक का हेतु बनता है.

अपने दायित्व के प्रति चेतन सर्जक कलाकार इन संवेदनाओं को अनुभूत करते हुए ऐसे क्षणों का अभिव्यक्ति के स्तर पर प्रत्यक्ष भोक्ता बनता है. नए-पुराने के संघर्ष को जागरूक कवि चेतना विभाजित नहीं होने देती और यहीं से शुरू होती है - एक सत्य पाने की तलाश. इस सत्य पाने की शुरुआत में नाटककार की चेतना निरन्तर द्वन्द्व से जूझती टकराती आंदोलित होती है कि वह ध्वंस और निर्माण शक्तियों के बीच से विश्वास के मार्ग का कैसे निर्माण करे और इस बिन्दु पर आकर नाटककार चेतना का यह संघर्ष एक नया रूप धारण कर लेता है. आस्था का यह संकट अब भोक्ता मन का नहीं रहता, बन जाता है एक जागरूक, चेतन रचयिता की मानसिकता का संघर्ष . इन्हीं संघर्ष - बिन्दुओं से प्रेरणा पाकर रचनाकार की मानसिकता, मर्यादा-अमर्यादा, संगति- विसंगति, मूल्य-संकट, मूल्य-बोध, अनैतिकता- नैतिकता, सत्-असत्, आस्था-अनास्था आदि के मध्य उभरता द्वन्द्व और इस द्वन्द्व के मूल में व्याप्त युग चेतना की व्यापक खोज करती है. इस संपूर्ण प्रक्रिया से गुजरने के बाद संघर्षरत कलाकार की रचना- मानसिकता जिस सत्य की तलाश करती है. उसकी प्रतिच्छवि ही उसकी रचना का आधार बनती है.

 

युद्ध के समय मनुष्य अपनी मनुष्यता को दूर रखकर दानवता की सीमा रेखाओं का परिस्पर्श करने लगता है. पूर्व युग में धन, नारी और भूमि के प्रति ही युद्ध होते रहते थे. लेकिन आज स्थिति बदल गयी है. आज इन सबों के ऊपर जो प्रमुख तत्व युद्ध का कारण बनकर उपस्थित हुआ है, वह है - राजनीति. श्री दिनकर की राय में "युद्ध करनेवाले ऐसे राजनीतिज्ञ होते हैं जिनका हृदय उतना ही मलिन होता है, जितने श्वेत सिर के बाल होते हैं.  वे देश के किशोरों का वध करवाकर आश्वस्त होते हैं. वे सोचते हैं कि नवयुवकों का रक्त बहा, के मूल कोई बात नहीं, देश की लज्जा तो बच गई।" (1) इस से यह स्पष्ट हो जाता है कि युद्ध में किसी व्यक्ति या गुट का स्वार्थ ही काम करता है. जो भी हो, जितनी भी लडाईयाँ आपस में लड़ी गई है, उनके सारे घाव आम जनता के शरीर पर ही लगे हैं.

 

श्री लक्ष्मी नारायणलाल ने "सूर्य मुख" में युद्ध की विभीषिका को आम जनता के शोषण को एक मुख्य कारण के रूप में चित्रित किया है. युद्धोत्तरकालीन द्वारका में कृष्ण की मृत्यु के पश्चात् उनके पुत्र तथा अन्य यदुवंशी व्यक्तिगत स्वार्थों व सत्ता प्राप्ति के संघर्ष में मग्न हैं. दूसरी ओर समुद्र, काल की भाँति धीरे-धीरे खेतों तथा नगर के अन्य भागों को डुबोता हुआ दुखी प्रजा का विनाश कर रहा है. युद्ध का बुरा फल तो गरीब एवं शोषित आम जनता पर ही पडता है. राजकीय कर एवं युद्ध की विभीषिका दोनों जनता के लिए उत्पीडन हैं.

"सूर्यमुख" पौराणिक पात्रों को लेकर लिखा गया मिथकीय नाटक है. महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका है, जरा के भगवान श्री कृष्ण की मृत्यु हो चुकी है. श्री कृष्ण के पुत्रों में पारस्परिक वैमनस्य है. सभी सिंहासन हथियाने के लिए प्रयत्नशील हैं. द्वारका नष्ट हो रही है. इसी पृष्ठभूमि में श्री कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न एवं श्री कृष्ण की अंतिम रानी वेनुरती के अवैध प्रणय का चित्रण किया गया है. द्वारका निवासियों में प्रद्युम्र के विरोधियों द्वारा यह प्रचारित किया जाता है कि उन्हें इस पाप का फल भुगतना पड़ रहा है. प्रद्युम्न का विरोध उसके भाईयों- साम्ब और वभ्रु की ओर से होता है और इतिहासकार व्यास पुत्र भी उनका साथ देता है. महारानी रुक्मिणी प्रद्युम्र को चाहती हैं, लेकिन वेनुरती से घृणा करती हैं. वेनुरती का प्रेम प्रद्युम्न को उदासीन, निष्क्रिय और दुविधाग्रस्त बनाता है. कभी-कभी उसे वेनुरती की निष्ठा पर भी संदेह होने लगाता है. स्वर्गीय श्रीकृष्ण की छाया इस प्रणय पर मंडराती रहती है . दुविधाग्रस्त प्रद्युम्न विजयी हो कर भी अपने भाई वभ्रु के हाथों मारा जाता है.

 

महाभारत के सूत्रधार श्री कृष्ण ये तो स्वाधीनता संग्राम के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी. स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद उनके अनुयायियों में सत्ता के लिए जो होड़ चली और कुर्सी के मोह के कारण जानबूझ कर संकीर्णता को जिस तरह से उभारा गया, इस समस्त घटना-चक्र को, देश में व्याप्त मूल्यहीनता के इस अथाह सागर को “सूर्यमुख" में प्रतिबिंबित करने के लिए श्री कृष्ण के उत्तराधिकारियों के कलह को श्रीकृष्ण की मृत्यु के बाद दिखाना अनिवार्य था. श्री कृष्ण की सोलह हजार रानियाँ थीं, उनमें से किसी एक रानी का नाम वेनुरती मान लेना इतना आपत्तिजनक नहीं है. वस्तुतः नाटककार पीढ़ियों के अंतराल को चित्रित करने के लिए श्रीकृष्ण और प्रद्युम्न के द्वन्द्व की कल्पना करता है यहाँ भी डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल समक्ष पुरानी पीढ़ी की मूल्यहीनता का अनादर के साथ मखौल उड़ा रही नई पीढ़ी का चित्र है, वह नई पीढ़ी जिसे एक ओर मोहरों के रूप में काम में लाया जाता है और दूसरी ओर दिशाहीन एवं अनुशासनहीन होने के लिए लांछित किया जाता है.   क्योंकि लांछन लगानेवाले स्वयं खोखले और भ्रष्ट हैं, ठीक उस श्रीकृष्ण की तरह जिसने अपनी यादवी सेना के विरुद्ध युद्ध किया.

"सूर्यमुख" हिन्दी के उन आम पौराणिक- ऐतिहासिक नाटकों से पृथक है, जिनमें पुराण या इतिहास का नाटकीय अनुवाद प्रस्तुत किया जाता है. वे हमें उस काल में जीने का अहसास देते हैं, जबकि " सूर्यमुख" स्वतंत्र भारत की विभीषिकाओं से हमारा साक्षात्कार कराता है. यहाँ अतीत माध्यम है, वर्तमान को प्रतिबिंबित करने का. अतीत वर्तमान के सम्मुख लाया गया एक दर्पण मात्र है. सूर्यमुख है प्रद्युम्न और प्रद्युम्न है भविष्य. भविष्य नई पीढी के हाथ में है तभी तो नाटक का अंत आहुकी के नवजात शिशु की महत्व-स्थापना से होता है-

 

रुक्मिणी : "सुनो मैं तुझे इसी शिशु से जीवित रखूँगी. जिस द्वारिका में तुझे जन्मा था, इसे अंक में लिए उसी नगर में वापस जाऊँगी - द्वारिका की रचना जिसने की थी, उसका भी जन्म इसी तरह हुआ था”… (2)

 

प्रद्युम्न नवजात शिशु के मस्तक पर राजमुकुट रखता रखता रुक जाता है और सोचता है कि राजमुकुट और गांडीव इसके लिए व्यर्थ है. यह विद्रोही पीढ़ी पूज्य पूर्वजों के मृतमूल्यों का भार नहीं ढोएगी क्योंकि उसके प्रश्नों के उत्तर वहाँ नहीं हैं. वहाँ है मूल्यहीनता का विराट सागर जो द्वारिका को नष्ट करने के लिए पल-पल बढ़ रहा है. सूर्यमुख के पात्र पूज्य व्यक्तियों के प्रति अपना तीव्र आक्रोश व्यक्त करते हुए दिखाई देते हैं-

वभ्रु : "विलासी श्रृंगारी पिता यदि देश की सारी सुंदरियों से विवाह रचा ले और स्वयं चुपचाप स्वर्ग खिसक जाय तो...?” (3) 

***

साम्ब : "इन बडे-बड़े नामों को मत लो मेरे सामने, नहीं तो मैं तुम्हारी हत्या कर दूँगा, हमारा इन नामों से केवल यही संदर्भ शेष है. (4)

प्रारंभ में ही द्वारिका के राजदुर्ग के समक्ष भिखारियों की भीड़ इतिहास दिखाने के लिए नहीं जमा की गई है. यह समता और न्याय का दावा करनेवाली उस शासन व्यवस्था की भयानक असंगति को उद्घाटित करती है जहां अर्थ-व्यवस्था का हर कदम विषमता को बढ़ाने वाला सिद्ध होता है. अधिकांश लोग अपने व्यवसाय से उखड़कर दान या दया से प्राप्त अन्न पर जीने के लिए मजबूर हैं. धीरे-धीरे वे शासन व्यवस्था की ओर से उदासीन हो जाते हैं-

देवक : हमसो कोऊ मतलब नाय. कोऊ बने इहां का राजा महाराजा. कोऊ कतरे चाहे काहू सों परेम. काहू से घृना. (5)

 

राजनीति के प्रति उदासीन होकर बहुजन समाज उद्धारकर्त्ता बननेवाले नेताओं के वक्तव्यों से घृणा करने लग जाता है. उनके शब्द-शब्द में उसे छल, कपट, ढोंग और पाखंड ही दिखाई पडते हैं-

हारिक : हमे उल्लू बनाया सब राजनीति खेलें. कोऊ राजा बने हेतु, कोऊ सत्ताधारी बने हेतु, कोऊ सुंदरी चाहने हेतु, कोऊ धन दौलत चाहन हेतु – हाँ – हाँ, हमें कोऊ न चाहत...(6)

व्यासपुत्र के शब्दों में व्यक्त गरीबी श्री कृष्ण की द्वारिका की नहीं गाँधी के भारत की है- यथा

नगर में रोगियों, गुंडों और भिखारियों की संख्या इतनी बढ़ गयी है कि राह चलना कठिन है. वस्तुओं के दाम इतने बढ़ गए हैं कि मनुष्य अपने को बेचकर भी उन्हें नहीं खरीद पाता. (7)

ऐसी द्वारिकाएँ भारत के हर क्षेत्र में है अट्टालिकाओं के नीचे गरीबी का नंगा नाच सब जगह दिखाई देता है. प्रद्युम्न अमावास्या की रात को मुखौटा लगाकर वेनुरती से मिलने आता है. वह वेनुरती के कहने पर द्वारिका वापस लौट आता है. वह इस संबंध में उससे कहती है कि- "हत्या और विनाश के अतिरिक्त अब द्वारिका में शेष ही क्या है, यही देखने के लिए नगर में तुम्हें वापस चलना होगा. उसी शेष में तुम्हे रचना करनी होगी उस शक्ति की, जो यह सिद्ध करेगी कि हमारा प्रेम जीवन मर्म है निष्कलंक है.” (8)  वेनुरती जीवन में प्रेम को सर्वश्रेष्ठ मानती है, इसलिए वह प्रद्युम्न को 'सूर्यमुख' कहती है. वह प्रद्युम्न से कहती है 'मेरे सूर्य को इस मुखौटे के अन्धकार से बाहर आना ही होगा. ....उसे उन्हें चुनौती दो, ताकि हमारे अस्तित्व को अर्थ मिल सके. तुम्हें केवल द्वारिका में प्रकट होना है, फिर सारे अप्रकट तुम्हारे साथ होंगे." (9)

प्रद्युम्न सिंहासन के लिए किए गए युद्ध में जीत जाता है. अर्जुन इसी बीच सारी विधवा यदुवंशी स्त्रियों को हस्तिनापुर ले जाते हैं. द्वारिका में ऐसा अनुभव किया जाता है कि पुत्रों की माताएँ उनसे सुरक्षित नहीं है.” (10)

 

सूर्यमुख में मूलत: हिंसा का वातावरण है. इस वातावरण का निर्माण करने के लिए नाटककार ने तीव्र आघात दिए हैं. इन आघातों की सृष्टि करने के लिए डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल ने निम्नलिखित बातों का समावेश किया है - कृष्ण के बेटे प्रद्युम्र का वेनुरती से अवैध प्रेम, सोलह हजार रानियाँ रखने के लिए वभ्रु द्वारा कृष्ण की भर्त्सना महाभारत के महान योद्धा की प्रतिभा का भंजन, भिखारियों एवं बेटों द्वारा रुक्मिणी की अवहेलना, महाभारत के महनीय पात्रों द्वारा कुत्सित फूहड़ और गलीज भाषा का प्रयोग एवं तलवारों की टकराहट . “ये सब चीजें नाटक को बर्बर स्वर और चुभनेवाली खुरदुरी बनावट प्रदान करती है." (11)

"सूर्यमुख" नाटक में डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल ने युद्ध के उपरान्त छूट गई विभीषिकाओं को साकार किया है. कृष्ण की मृत्यु के पश्चात् उसकी नारायणी सेना का राज्य- लिप्सा के युद्ध में डूबकर विभिन्न खंडों में बँट जाना, हिंसा, लूट तथा व्यभिचार ही प्रमुख होना तथा युद्ध के कारण व्यक्तियों की आजीविकाएँ छीन कर उन्हें भिखारी बनाना....यही तो युद्ध के घातक परिणाम है. युद्ध भूमि में सभी संबंध खोखले हो जाते हैं, जैसा कि 'सूर्यमुख' में कहा गया है "शोभा और सुन्दरता, युद्ध के मैदान में जब इन शब्दों की धज्जियाँ उडती हैं, कराह और चीख से जब शून्य भरने लगता है, तब केवल एक ही चीज सामने होती है, एक संबंध हीन ठंडा संसार." (12)

इस प्रकार डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल ने ‘सूर्यमुख' नाटक में युद्ध के दुष्परिणामों का चित्रण सफलता पूर्वक किया है.

संदर्भ :

1. सुशील कुमार सिंह - सिंहासन खाली है- पृ. सं. 28

2. डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल सूर्यमुख- पृ.सं. 147-148

3. डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल - सूर्यमुख- पृ.सं. 107

4. डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल - सूर्यमुख- पृ.सं. 33

5. डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल - सूर्यमुख- पृ.सं. 59

6. डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल - सूर्यमुख- पृ.सं. 59

7. डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल - सूर्यमुख- पृ.सं. 40

8. डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल - सूर्यमुख- पृ.सं. 23

9. डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल - सूर्यमुख- पृ.सं. 24

10. डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल - सूर्यमुख- पृ.सं. 48

11. गोवर्धन पांचाल, नटरंग - पृ.सं. 19

12. डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल - सूर्यमुख - पृ.सं. 78

 


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