प्रतीकात्मक दृश्य-बिंबों की सटीक योजना : लहरों के राजहंस

 


प्रतीकात्मक दृश्य-बिंबों की सटीक योजना :

लहरों के राजहंस

डॉ. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू


स्रवंति

द्विभाषा मासिक पत्रिका

अप्रैल/मई/जून, 2003

 "लहरों के राजहंस" नाटक में अनेक दृश्य-बिंब तथा घटनाएँ अधिक प्रतीकात्मक तथा गहरे अभिप्रायों के साथ आये हैं. हिन्दी के इतिहास परक प्रतीक नाटकों के बीच मोहन राकेश का नाटक "लहरों के राजहंस'' पर्याप्त चर्चित रहा है. यह नाटक नामकरण से लेकर पात्र-परिकल्पना, दृश्य-योजना, संवाद तथा उद्देश्य तक प्राय: सभी दृष्टियों से एक व्यापक प्रतीकात्मक नाट्य-सृष्टि है. मोहन राकेश ने इस इतिहास के संदर्भ में मानवीय संवेदना को उभारने का प्रयास किया है और इसी में "लहरों के राजहंस" की सार्थकता भी प्रमाणित होती है. “लहरों के राजहंस" जो लहरों पर तैरते राजहंस की सी अस्थिर दिशा के रूप में नाटक के मुख्य पात्र नंद की अस्थिर मनः स्थिति की ओर सफल प्रतीकात्मक संकेत करता है. लहरों में पेडे खाते राजहंस का प्रतीक नाटटकार ने अश्वघोष से ही लिया है, किंतु उपास के कमल-ताल में तैरते राजहंसों पर श्यामांग का पत्थर चलाना और आगे चलकर राजहंसों के चल जाने से सूने कमल ताल के प्रतीक के द्वारा उसे विस्तार भी दिया है. नंद के मन का कभी नदी तट पर बुद्ध के चरणों में जाना और पुन: अपनी रूप गर्वित पत्नी के रंग महल की ओर लौटना लहरों पर डोलते राजहंसों की सी अस्थिरता के रूप में सफल प्रतीकात्मकता से ध्वनित हुआ है. राजहंस नंद और सुंदरी के समानान्तर है तथा लहरें उनकी परिस्थितियाँ हैं. समय के परिवर्तनशीलता के साथ परिस्थितियाँ सदैव गतिशील रहती है. यदि मनुष्य बदली हुई परिस्थितियों को संगत क्रम में व्याख्या करते हुए उसके अनुरूप आचरण नहीं करता तो परिस्थितियों की गति मानवीय मूल्यों को सोच लेती है और जीवन के सहज- स्वाभाविक क्रम को भंग कर मनुष्य को विक्षुब्दावस्था में एक तनावपूर्ण स्थिति में होने के लिए धकेल देती है. इस नाटक के सभी पात्र परिस्थितियों के भयानक दबाव के कारण तनाव झेलने को विवश हैं. श्यामांग कार्य-कारण के वैज्ञानिक आधार पर जीवन को समझने की चेष्टा करता है लेकिन उसके पहचानने की क्षमता को परिस्थितियों की विषमता ने कुण्ठित कर दिया है. श्यामांग असंगत परिस्थितियों के अनुरूप अपनी मानसिक पृष्ठ- भूमि का निर्माण न कर सकने के कारण विक्षिप्त अवस्था में स्वयं परिस्थिति का अंग बना. नंद भी क्रमश: कई तरह की परिस्थितियों के भयानक दबावों से संघर्ष करता हुआ उसके अनुरूप आचरण करने को बाध्य हो जाता है. परिस्थितियों की जकडने से उद्विग्न नंद को कोई मार्ग नहीं सूझता. यही अनिर्णय की स्थिति एक मानव के परिस्थिति बनने की अवस्था है. अहं केंद्रित सुंदरी अपनी कामनाओं में अभिभूत वैयक्तिक दुराग्रह के कारण विपरीत परिस्थितियों के साथ तालमेल स्थापित नहीं कर पाती. इसीलिए ये बाह्य परिस्थितियां उसे तोडने लगती है और उसके रूपगर्व तथा अतिरिक्त विश्वास को चूर-चूर कर देती है. नाटक के प्रमुख पात्र है- नंद और सुंदरी जो क्रमशः पार्थिव - अपार्थिव, प्रवृत्ति - निवृत्ति, राग-विराग, भोग-त्याग, आसक्ति-अनासक्ति के द्वन्दात्मक झूले में झूलनेवाले मानव तथा एक मात्र प्रवृत्ति मार्गी विलासों को ही जीवन, सर्वस्व माननेवाली नारी-चेतना के प्रतीक होने के साथ-साथ पुरुष और नारी संबंधों की आधारभूत प्रवृत्तियों का भी अपने-अपने चारित्रिक क्रिया-कलाप के नाते प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व करते हैं. नाटककार ने संकेत किया है कि स्त्री-पुरुष की समग्र चेतना को अपने से मौलिक मूल्यों के आकर्षण से, आत्मसात किये रखने की प्रवृत्ति रखती है. जबकि पुरुष को अंतश्चेतना नारी के भौतिक आकर्षणों के साथ सम्मिलित रहकर भी समस्त बंधनों से मुक्त होने के लिए आध्यात्मिक तत्वों के अन्वेषण में अनवरत संलग्न रहती है. इस नाटक के प्रतीकात्मक दृश्य-विधान में मोहन राकेश ने "आषाढ़ का एक दिन" का रोमानी भाव भी छोड़ दिया है. इस नाटक की प्रतीकात्मकता व दृश्यों के सांकेतिक अभिव्यंजना में अधिक तीखापन और सार्थकता आई है.  "लहरों के राजहंस " नाटक के प्रथम अंक में नंद केवल अंत में मंच पर आता है. जहाँ सुंदरी कामोत्सव की विफलता पर अत्यंत क्षुब्ध है, वहाँ नन्द इस विषय में लेश मात्र भी उद्विग्न व अव्यवस्थित न होकर सुंदरी द्वारा आयोजित उस विलासमय वातावरण में भी आखेट में थकान से मरे मृग के विषय में सोचकर तथा देवी यशोधरा से मिलकर आने से भौतिकता से विरक्त की धूप-छाँह ही चारों ओर अनुभव करता है. दूसरे अंक से तो नाटक के अंत तक अपने अन्तर्द्वन्द्व में उत्तरोत्तर अधिकाधिक ग्रस्त होकर भी नंद अपनी अस्थिर स्थिति से मानव जीवन के इस द्वन्द्व को एकांतिक सत्यता का प्रमाण देता है. दूसरे अंक के प्रारंभ से ही वे अस्थिर और द्वन्द्व जर्जर मन का प्रतिरूप बना श्यामांग अपने ज्वर प्रलाप में नंद की अनिश्चतता विभ्रम, अकुलाहट को ध्वनित करता है. तीसरे अंक में अकस्मात कमलताल से राजहंस उड जाते हैं, मानों वे सुंदरी के रूपाकर्षण के रूप सरोवर में नंद उड़ जाने को प्रतीकात्मक पूर्वाभास देते हैं. किंतु सुंदरी इस वास्तविक घटना पर भी विश्वास नहीं कर पाती. श्यामांग को लेकर नाटककार ने सर्वाधिक प्रतीकात्मकता की सृष्टि की है. वह परिस्थितियों के दबाव के कारण नंद की टूटन तथा अंतर्मन की बेचैनी को अभिव्यक्ति प्रदान करता है. उसकी विक्षिप्तता में नंद की पीडा और कथागत संत्रास को वाणी मिली है . श्यामांग का सार्थक चरित्र नाटक को वैचारिक पृष्ठ- भूमि प्रदान कर तनावग्रस्त नाटकीय संवेदना की तीव्रता से आगे बढ़ाता है. मुख्य कथा से जुडकर श्यामांग का प्रसंग प्रतीकात्मकता को उभरता है. नेपथ्य संभाषण पूर्णतः प्रतीकात्मक हैं जो नाटक की बौद्धिक संवेदना एवं वातावरण निर्माण में अपेक्षित प्रभाव उत्पन्न करते हैं. उसी प्रकार श्यामांग की यह प्रतीक योजना प्रभाव की दृष्टि से द्वन्द्व को सजीव

सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. नंद को एकान्तिक रूप देने के लिए श्यामांग के चरित्र की सृष्टि की गई है, जो द्वन्द्वग्रस्त मानव की कुण्ठित मानसिक अवस्था का प्रतीक बन गया है. शिल्प के स्तर पर "लहरों के राजहंस'' नाम की सांकेतिकता उल्लेखनीय है. काव्यात्मक बिंबों व सांकेतिक दृश्यों की अभिव्यंजना की दृष्टि से यह नाटक अत्यंत विशिष्ट बन पड़ा है. इस प्रतीक नाटक का उद्देश्य मानव मन में व्याप्त भौतिकता और आध्यात्मिकता या प्रवृत्ति और निवृत्ति का शाश्वत नित्य और अनिवार्य द्वन्द्व का प्रतीकात्मक चित्रण हैं. "लहरों के राजहंस " एक व्यापक, जटिल, किंतु सफल प्रतीकात्मक नाट्य सर्जना है. नाटक का द्वन्द्व पार्थिव और अपार्थिव मूल्यों का द्वन्द्व है. सुदरी और बुद्ध को व्यक्तित्व नहीं, वो जीवन दृष्टियाँ हैं जिनके प्रभाव से मानव-मन निरंतर आन्दोलित रहता है. इस नाटक में श्यामांग द्वारा कमल-ताल में स्थित राजहंसों पर पत्थर फेंकना, अपनी पत्नी सुदंरी के प्रसादन में मदद करने, नाटक का नायक राजकुमार नंद अपने हाथों में दर्पण को लेकर खडे रहना, नंद के घर से बिना भिक्षा पाये बुद्ध का वापस चले जाना, राजकुमार नंद के बाणों से आहत होकर नहीं बल्कि अपनी थकान से मृग का निर्जीव हो जाना, नंद के विरोध करने पर भी बुद्ध के आदेश पर उसके केश कटवा दिए जाना, निहत्ये होकर राजकुमार नंद का व्याघ्र से लडने जंगल की ओर जाना और नंद के मन में मृत मृग की ठठरी को देखने की इच्छा  जागृत होना इत्यादि कई सांकेतिक एवं भावपूर्ण दृश्यों का संयोजन बड़े ही कलात्मक ढंग से संपन्न हुआ है. मनुष्य का चेतना-प्रवाह किसी काल-खण्ड की सीमा से बद्ध नहीं है. उसका विस्तार अतीव के खण्डहरों से लेकर भविष्य के धुँधलके तक है. इतने बड़े अनुभव के विस्तार को मनुष्य बिंबों और प्रतीकों के रूप में ग्रहण करके अपने मानस में छिपाये रहता है. बिंब और प्रतीक निर्माण की यह प्रक्रिया अचेतन स्तर पर चलती रहती है, जो अनुकूल उद्दीपन पाकर अभिव्यक्त होते हैं. मोहन राकेश ने अपने नाटकों में चेतना-प्रवाह का शिल्पगत प्रयोग बिंबों और प्रतीकों के रूप में किया है. नाटककार को बिंबों और प्रतीकों के प्रयोग से नाटकीय अर्थ की प्रतीति कराने में सुविधा हुई है. इसके साथ हर "वस्तु - विन्यास और चरित्र - सृष्टि में भी कहीं उसका शिल्पगत उपयोग करने का प्रयास मिलता है.'' (1) ''लहरों के राजहंस" में सारी चेतना कमल-ताल के राजहंस और दो दीपाधारों पर निर्मित स्त्री-पुरुष की आकृति पर केंद्रित है, जिसका विरोधी बिंब काली छाया के रूप में राजहंसों को आक्रान्त करता रहता है. दोनों नाटकों की उपर्युक्त मूल चेतना को सबल बनाने के लिए नाटककार ने कुम्भ, भित्ति चित्र, मृग, बाघ, कामोत्सव, पत्तियों की उलझन, चील आदि बिंबों और प्रतीकों का प्रयोग किया है. इन बिंबों और प्रतीकों के द्वारा पात्रों की मानसिक संरचना (मैन्टल मेकनिजम) को समझने में सहायता मिलती है. चेतना का यह शिल्पगत प्रयोग मोहन  राकेश के नाटकों में आद्यन्त बना रहता है. बिंब और प्रतीक के साथ-साथ सांकेतिकता के प्रयोग के द्वारा मोहन राकेश ने सामान्य घटनाओं से असाधारण अर्थवत्ता व्यंजित करायी है. आषाढ का एक दिन'' में मेघ का बिंब जिस प्रकार कथ्य को संप्रेषणशील बनाता है, उसी प्रकार “लहरों के राजहंस'' में राजहंस, मृग, दर्पण आदि का प्रतीक कथ्य की नयी ऊर्ज्वस्विता प्रदान करता है. "लहरों के राजहंस'' मैं सुंदरी की ‘“नारी का आकर्षण पुरुष को पुरुष बनाता है, तो उसका अपकर्षण उसे गौतम बुद्ध बना देता है।"(2) उक्ति उसी की जिन्दगी बन जाती है. मोहन राकेश के नाटकों में जिन पूर्व-स्थितियों का संकेत दिया गया है. वही अंत में नाटकीय विडंबना के साथ उभरते दिखायी देते हैं. अर्थ-सम्प्रेषण का यह शिल्पगत प्रयोग मोहन राकेश की विशेषता है.

 संदर्भ :

1.       डॉ. गोविन्द चातक : आधुनिक नाटक का मसीहा, मोहन राकेश पृ. सं. 119

2.       मोहन राकेश : लहरों के राजहंस पृ. सं. 37

 


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