गाँधीजी के विचारों में नारी
गाँधीजी के विचारों में नारी
Dr. S V S S Narayana Raju
संपादकीय,
स्रवंति,
द्विभाषा मासिक पत्रिका, मार्च – 2004.
हमारे भारत देश में नारी को एक ओर लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती आदि देवियों के रूप में मानकर उनकी पूजा करने की परंपरा है तो दूसरी ओर नारी को पुरुष की दासी मानकर उसकी अवहेलना करने की कुप्रथा भी है लेकिन गाँधीजी स्त्री को न देवी मानते थे, न ही दासी। उन्होंने तो स्त्री को पुरुष की सहचारिणी के रूप में या जीवन संगिनी के रूप में स्वीकार किया था। उनका विचार था कि नारी पुरुष की वासनापूर्ति का एक साधन मात्र नहीं है और न ही घर की रसोई की बंधिनी। वह पुरुष के साथ सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, औद्योगिक आदि सभी क्षेत्रों में बराबर विकास प्राप्त करने और देश तथा समाज की उन्नति में हाथ बँटाने का हकदार हैं।
स्त्री को अबला कहना उनको बिल्कुल पसन्द नहीं था। वे कहते थे कि यदि पशुबल ही श्रेष्ठ होने का निर्णायक है तो उस में बेशक नारी पुरुष से कुछ हद तक पीछे हैं लेकिन आत्मबल को श्रेष्ठता का निर्णायक माना जाय तो नारी उसमें पुरुष से बहुत आगे रहती हैं। गाँधी जी का कहना है कि स्त्री में जितनी सहनशीलता होती है उतना पुरुष में नहीं है। उनका दृढ विश्वास है कि भविष्य में मानव समाज का विकास अहिंसा पर आधारित होगा। वे नारी शक्ति पर प्रगाढ़ विश्वास रखते थे। इसलिए अपने "सत्याग्रह आन्दोलन" में उन्होंने स्त्रियों को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन दिया। वे मानते थे कि हृदय स्पर्शी रीति से प्रेमपूर्वक समझाने की शक्ति नारी में जितनी है उतनी पुरुष में नहीं। इसलिए मधुशालाओं के पासा जाकर शराबी लोगों के समझाकर शराब के व्यसन छुडाने का काम उन्होंने स्त्रियों को ही सौंपा। उनके कहने से हजारों स्त्रियाँ
मधुशालाओं और विदेशी वस्त्र बेचने की दुकानों पर जाकर पिकेटिंग करती थीं, लोगों को समझा-बुझाकर वापस भेज देती थीं। लाठियों की मार खाकर, जेलों में जाकर, देश की स्वाधीनता संग्राम में भी पुरुष के बराबर हिस्सा लिया। श्रीमती सरोजिनी नायडु, विजयलक्ष्मी पंडित, दुर्गाभाई देशमुख आदि महान नारियों के नाम इस संदर्भ में उल्लेखनीय है।
गाँधी जी बाल विवाह, दहेज प्रथा, सती प्रथा, अनिवार्य वैधव्य, वेश्या जीवन आदि के प्रबल विरोधी थे। विवाह को वे स्त्री-पुरुष का परस्पर पवित्र बन्धन या जीवन साथी बने रखने की प्रक्रिया मानते थे। इसमें किसी प्रकार की लेन-देन या जोर-जबरदस्ती को वे पसंद नहीं करते थे। स्त्रियों को गहने पहनकर सौंदर्य की प्रतिमाओं के रूप में अपने को अलंकृत करना भी वे समुचित नहीं समझते थे । स्त्रियों को शारीरिक सौंदर्य पर विशेष ध्यान देकर वासना की पुतलियों के रूप में बनने की अपेक्षा आत्म सौंदर्य के प्रतिमूर्ति बनने के वे समर्थक थे। यद्यपि गाँधीजी अहिंसावादी थे लेकिन वे युवतियों एवं स्त्रियों से छेड़छाड़ करनेवाले अथवा बलात्कार करनेवाले पुरुषों को थप्पड मारने, नाखून व दाँतों का उपयोग करके उनका विरोध करने के लिए। तथा आत्मरक्षा करने के लिए नारियों को सलाह देते थे। इस प्रकार नारी विकास और प्रगति के लिए गाँधीजी के द्वारा जो पथ-प्रदर्शन दिया गया वह अविस्मरणीय है। महिला दिवस के संदर्भ में 'स्रवंती' परिवार की ओर से समस्त महिलाओं को शुभकामनाएँ।
डॉ. नारायण राजू
सहायक संपादक