स्त्री विमर्श









स्त्री विमर्श



Dr. S V S S Narayana Raju

संपादकीय

स्रवंति,

द्विभाषा मासिक पत्रिका, अप्रैल – 2004.


साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। सामाजिक परिवर्तन जनता की मानसिकता में परिवर्तन के हेतु बनते हैं। जनता की मानसिकता में परिवर्तन होने से साहित्य के विषय और शैली दोनों में परिवर्तन आता है। आधुनिक साहित्य में स्त्री विमर्श' के उभार को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

एक समय था जब हिंदी सहित आधुनिक भारतीय भाषाएँ लगभग एक हजार वर्ष पूर्व रूपाकार ग्रहण कर रही थीं। उस समय भारत अपने गौरवशाली अतीत के पतनोन्मुख कगार पर था और विदेशी आक्रमणकारियों के आघात-पर-आघात हमे झेलने पड़ रहे थे। युद्धों के उस वातावरण में सामंती सभ्यता के अनुरूप दो प्रवृत्तियाँ उभरी एक भोग की और दूसरी वैराग्य की। दोनों प्रवृत्तियों के केंद्र में स्त्री थी। एक में वह भोग्या थी, दूसरी में सर्वथा त्याज्य। कुल मिलाकर उस काल में स्त्री एक ‘पण्य' वस्तु थी। यही दृष्टिकोण उस काल के साहित्य में भी अभिव्यक्त हुआ। एक तरफ तो स्त्रियों के लिए युद्ध होते थे और दूसरी तरफ उन्हें नरक का द्वार घोषित किया जाता था। ऐसे में किसी प्रकार की स्त्री विमर्श की संभावना नहीं थी। लेकिन भक्ति काल की मीरा जैसी कवयित्री ने इसकी गुंजाइश निकाल ली। मीरा भक्त हैं प्रेम दीवानी है गिरधर गोपाल की। लेकिन उनकी इस भक्ति में, इस प्रेम में कुछ ऐसा खास है जो न तुल्सी में है न सूर में, न कबीर में न जायसी में वह खास क्या है? वह है पुरुष वर्चस्ववादी व्यवस्था के प्रति एक इकलौती स्त्री के संघर्ष का साहस। वह विवाहिता है लेकिन घोषित करती है "मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई जाके सिर मोर मुकुट मेरे पति सोई।"


मीरा की यह तेजस्विता मूलतः चयन और वरण की स्वतंत्रता के प्रति जागरुक स्त्री मात्र की तेजस्विता है। मध्यकाल में जब हिंदू और मुसलमान, राजा और अमीर विलासिता से ग्रस्त होकर स्त्री को दरबार सजाने और महफिल जमाने की वस्तु बनाने पर तुले हुए हैं, मीरा जैसी तेजस्विता एक और स्त्री में दिखाई दी। वह थी ताज। ताज जन्म से मुस्लिम थी लेकिन उन्होंने तमाम सांप्रदायिक प्रतिबंधों को झटक कर तोड़ दिया- "प्यारे नंदलाल कुर्बान तेरी सूरत पे, हूँ तो मुगलानी हिंदुवानी हो रहूँगी मैं"।

समय का चक्र गतिशील रहता है। 19वीं शताब्दी में नवजागरण की शुरुआत हुई और इस बात पर बल दिया जाना शुरू हुआ कि समाज में स्त्री को भी अपनी इच्छा से जीने का हक है। उसे पति की लाश के साथ जीवित आग में नहीं झोंका जाना चाहिए। मर्यादा के नाम पर उस से प्रकृति प्रदत्त मानवाधिकार नहीं छीने जा सकते हैं। पिता, पति और पुत्र नहीं बल्कि स्त्री स्वयं अपनी भाग्यविधाता है। दुनिया भर में पिछली दो शताब्दियों में अनेक रूपों में यह चिंतन फैलता रहा। यह बात अलग है कि अभी तक भी सही अर्थों में पुरुषों की इस दुनिया में स्त्री को मनुष्य नहीं माना जाता। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक समाज में अन्याय, अनीति, बलात्कार, शोषण, आतंक और युद्ध-सबका अंतिम शिकार स्त्री होती रहेगी। आवश्यकता है ऐसे दृष्टिकोण का विकास जिस में पुरुष और स्त्री नहीं मनुष्य और मनुष्य बराबर के हक से रहते हों।  महादेवी वर्मा ने 'श्रृंखला की कड़ियाँ' में भारतीय स्त्री की दुर्गति और तेजस्विता दोनों को पहचानने की कोशिश की थी। यदि यह कहा जाए कि उनके माध्यम से हिंदी जगत में नए स्त्री विमर्श की शुरुआत हुई तो यह गलत न होगा। 

महादेवी वर्मा से लेकर कात्यायिनी तक स्त्री लेखन की पुष्ट परंपरा पिछले शतक में क्रमशः जनता की मानसिकता के बदलाव की सूचना देती है। भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर अरुण कमल तक जो लग भग डेढ़ सौ वर्ष की आधुनिक साहित्य की परंपरा है वह भी दृष्टिकोण इस बदलाव को रूपायित करती है और हम देख पाते हैं कि 21 वी शताब्दी के आरंभ में साहित्य का स्त्री कोण पर्याप्त महत्वपूर्ण हो गया है।

भारतीय भाषाओं के समकालीन साहित्य का इसी दृष्टि से अनुशीलन करने के लिए उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, हैदराबाद में 15, 16 मार्च को डॉ. ऋषभ देव शर्मा के निर्देशन में "समकालीन भारतीय साहित्य में स्त्री विमर्श" विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न हुई जिसकी एक झाँकी हम स्रवंति के इस अंक में आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं।


डॉ. नारायण राजू

सहायक संपादक

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