प्रणय भावना की सफल अभिव्यक्ति : सात गीत वर्ष
प्रणय भावना की सफल
अभिव्यक्ति : सात गीत वर्ष
डॉ. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू
साहित्यिक
संवाद,
प्रो.
के. वनजा अभिनंदन ग्रंथ,
प्रधान
संपादक : प्रो. एन. मोहनन.
ISBN
978-93-89341-70-6
प्रकाशन
वर्ष : 2021
डॉ. धर्मवीर
भारती का दूसरी कविता संकलन ‘‘सात गीत वर्ष’’ है। इस में सन् 1952 से सन् 1959 ई
तक की कविताओं को संकलित किया गया है। इस संकलन में 59 कवितायें हैं। इन कविताओं में
भी “ठण्डा लोहा” की कविताओं के समान
प्रणय भावना से संबंधित कवितायें सबसे अधिक हैं। लग-भग दो-तिहाई से अधिक कवितायें
प्रणय भावना से प्रेरित होकर लिखी गयी हैं। प्रणय की इन कविताओं में संयोग
श्रृंगार की कविताओं का अभाव-सा है। “केवल तन का रिश्ता” शीर्षक कविता ऐसी है, जिसमें श्रृंगार की मांसलता
को स्वस्थ मानसिक रिश्तें में परिवर्तित होते हुए व्यक्त किया गया है। प्रेमी का
कहना है ---- “अब यह
जूही फलों सा तन नहीं/ रहा पर इसमें पहले कहीं अधिक जादू है।” क्योंकि
“तन का
केवल तन का रिश्ता भी,
मांसलता से कितना ऊपर उठ जाता
है।”(1)
प्रेयसी के अन्यत्र विवाहित होने के बाद भी उससे
फिर मिलने के अनेक अवसर प्रेमी को मिलते रहे हैं। वियोग ने प्रेमी और प्रेयसी को
अल्प से काल में ही परिपक्व बना दिया है। प्रेमी को अब बस इतना ही ज्ञात है ----
“जितना हुआ आज तक
मैं किसी का भी –
उतना कुल मिलाकर
भी थोडा पड़ेगा
मैं जितना तुम्हारा हूँ।”(2)
“सात गीत वर्ष” में
जनवादी भूमिका से संबंधित कविताएँ अनेक हैं। भारती की मूल-वृत्ति अन्तर्मुखी है। “सात गीत वर्ष का प्रेमी युवक जिन चरणों का लय पर अपनी आत्मा के स्वर साथ
कर चल पड़ा था, वे चरण जब अकस्मात किसी अन्य का अनुसरण करते
हुए दूसरे ही मार्ग पर मुड़ गए, तब उसकी पूजा टूट गयी और
उसका मन घुट कर रह गया। उसे महसूस हुआ कि अपनी साँसे तक अपना परिचय भूल गयी हैं।”(3) उसे अपने जीवन की निरर्थकता असद्य प्रतीत हुई। उसने अनुभव किया।
“मैं क्या जिया?
मुझको जीवन ने जिया----
बूँद-बूँद कर पिया, मुझको
पीकर पथ पर खाली प्याले -सा छोड़ दिया।”(4)
ज्योती को चाहने
वालों को चाहिए कि दंडन भय छोड़कर साहस के साथ दासता, कातरता आदि के अंधकार को दूर करने के
लिए साहसपूर्वक आगे आएँ। किसी अवतार के करिश्मों की प्रतीक्षा, परमुखोपक्षिता मनुष्य को पशु बनाती हैं। अपने अंतर के साहसी प्रमथ्यु को
जगाए बिना मानवता की जीवन ज्योति को नहीं पाया जा सकता। भारती ने “प्रमुथ्युगाया” कविता के द्वारा यही संदेश दिया है।
भारती के
प्रस्तुत कविता – संकलन में शुध्द प्रकृति वर्णन से संबंधित कविताएँ भी हैं। “साँझ के बादल”
और “एक छवि” ऐसी ही कविताएँ हैं। इन
कविताओं में कवि का हर्षोल्लास व्यक्त हुआ है। कचनार की छोटी-सी कलि ने कवि के
छोटे फूल बसे घर की छवि को और भी अधिक उजागर कर दिया है। सामान्यतः प्रकृति से
संबंधित कविताओं में काम या प्रेम की भावना का संसर्ग विद्यमान है। “नवंबर की दोपहर”, “मेघ दुपहरी” आदि कविताओं को देखा जा सकता है। इन कविताओं में किसी गत स्मृति की पीड़ा
ही प्रमुख हो उठी है –
“छू गयी मुझको न जाने कौन बिसरी बात
जिस तरह चू जाय नगिन। फूल को खिलते पहर।”(5)
“घाटी का बादल”
शीर्षक कविता में कवि ने लिखा है –
“प्रातधूप की जरतारी ओढ़ती लपेट,
अभी-अभी जागी,
खमार से भरी,
नितांत कुमारी
घाटी
इस कामातुर
मेघधूप के
औचक आलिंगन में पिसकर,
रतिश्रांत-सी मलिन हो गयी।”(6)
भारती की स्फुट
कविताओं का समग्रतः परिक्षण करने पर यह कहा जा सकता है कि वे रोमांटिक व्यक्तित्व
के कवि हैं। उनकी कविताओं में प्रथमतः उन्मुक्त रुपोपासना और उध्दाम यौवन की
मांसलता है,
किंतु बाद की कविताओं में वे मांसलता से ऊपर उठ गए हैं। अधिकांश प्रणय कविताएँ
वियोग से संबंधित हैं।
“सात गीत वर्ष” का कथ्य पक्ष ही नहीं अपितु अभिव्यक्ति पक्ष भी
सशक्त है। “ठण्डा लोहा” संकलन की
अपेक्षा इन दोनों ही दृष्टियों से “सात गीत वर्ष” में विकास परिलक्षित होता है। भारती ने भाषा के संबंध में अपना अभिमत
व्यक्त करते हुए कहा है --- “भाषा भाव की पूर्ण अनुगामिनी
रहनी चाहिए, बस। न तो पत्थर का ढ़ोक बनकर कविता के गले में
लटक जाय और न रेशम का जाल बन कर उसकी पाँखो में उलझ जाय।”(7)
“सात गीत वर्ष”
में भाषा अधिक सहज बन गयी है। इसलिए उर्दू के “मखमूर”, “दोशिजा” जैसे अप्रचलित
शब्दों का प्रयोग कहीं नहीं किया गया है। “तमाशबीन”, “करिश्मा” जैसे सहज एवं
प्रचलित शब्दों का ही प्रयोग दीख पड़ता है। इस प्रकार ब्रज भाषा के शब्दों का मोह
भी कवि को नहीं रह गया है। तद्भव शब्दों को अवश्य अपनाया गया है। “अन्हियारी”, “बिरवा” आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं। एक उदाहरण देखिए---
“पतझड की सझा को
पाहुन बन कर आ,
ओ सुख-मुँह, धूल-भरे पवन झकोरे।
ओ अ अ अ रे।”(8)
अलंकारों के
प्रयोग की दृष्टि से भी हमें “सात गीत वर्ष” में विकास दिखाई देता है। अनेक नई-नई
उपमाएँ भारती ने प्रयुक्त की हैं। उपमाओं के समान ही रुपक आदि अलंकारों का प्रयोग प्रस्तुत संकलन में हुआ
है। “सात गीत वर्ष” में प्रतीकों का अत्यंत व्यंजक प्रयोग भी हुआ
है। प्रस्तुत संकलन में अनेक स्थलों पर सुंदर विचार सूक्तिबध्द रुप में आए हैं, जैसे-
“जिस में नहीं है साहस प्रमथ्युं बनने का
उसको बिना पीडा
के मिल जानेवाली अग्नि
माँजता नहीं है
और पशु ही बनाती
है।”(9)
कुछ-एक स्थलों पर
व्यंग्य प्रखर रुप में अपना कथ्य व्यक्त करते हैं। नवयुग को साकार करने के लिए जब
संघर्ष चल रहा हो, तब यदि कलाकार अपने को तटस्थ कहे, तो वह जानती ही है। इसी को “बृहन्नला” कविता में व्यक्त किया है ---
“------इधर मत
इधर मत आना जी
तुम, इधर हम तटस्थ है।”(10)
“सात गीत वर्ष” कथ्य के साथ-साथ प्रणय
भावना को सक्षमतापूर्वक अभिव्यक्त करने में सफल काव्य कहने में में कोई अतिशयोक्ति
नहीं है।
संदर्भ
1. सात गीत वर्ष - डॉ. धर्मवीर भारती, पृ.सं - 49
2. सात गीत वर्ष - डॉ. धर्मवीर भारती, पृ.सं - 118
3. सात गीत वर्ष - डॉ. धर्मवीर भारती, पृ.सं - 41
4. सात गीत वर्ष - डॉ. धर्मवीर भारती, पृ.सं - 60
5. सात गीत वर्ष - डॉ. धर्मवीर भारती, पृ.सं - 78
6. सात गीत वर्ष - डॉ. धर्मवीर भारती, पृ.सं - 120
7. दूसरा सप्तक - अज्ञेय, पृ.सं -180
8. सात गीत वर्ष - डॉ. धर्मवीर भारती, पृ.सं - 57
9. सात गीत वर्ष - डॉ. धर्मवीर भारती, पृ.सं - 22
10.
सात गीत वर्ष - डॉ. धर्मवीर भारती, पृ.सं – 78