डॉ. धर्मवीर भारती का संक्षिप्त परिचय





डॉ. धर्मवीर भारती का संक्षिप्त परिचय


स्रवंति – द्विभाषा मासिक पत्रिका                         प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू 
 
अगस्त – 2004     


  

      नई कविता के यशस्वी कवि, कथाकार, निबन्धकार एवं धर्मयुग सप्ताहिक के संपादक डॉ. धर्मवीर भारती से हिंदी जगत भली भाँति परिचित है. डॉ. धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसंबर 1926 में प्रयाग के अतरसुइया मुहल्ले में हुआ था. पिता चिरंजीवलाल वर्मा और माता श्रीमती चन्दा देवी है. शाहजहांपुर के निकट खुदागंज कस्बें के पुराने जमींदार परिवार में चिरंजीविलाल वर्मा ने जन्म लिया. उन्होंने पुशतैनी जमींदारी तथा रहन सहन छोड़कर रुडकी के थामसन कालेज आफ इंजिनीयरिंग में ओवरसीयरी की शिक्षा पाई. धर्मवीर भारती के पिता कुछ दिन बर्मा में रहकर सरकारी नौकरी और ठेकेदारी करते रहे, पुनः उत्तर प्रदेश में लौटकर पहले मिर्जापुर में रहें, तत्पश्चात् स्थायी रुप से इलाहाबाद में बस गए. इसी कारण भारती जी का अधिक समय इलाहाबाद में ही व्यतीत हुआ. आरम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई. बाद में चौथे दर्जे से डी.ए.वी.हाई स्कूल में भर्ती हुए. भारती आठवीं कक्षा में थे, तब उनके पिती का देहान्त हो गया. भारती ही घर के पोषक होने के  कारण उन्हें अधिक कठिनाइयाँ भोगनी पडीं. लेकिन मामा के प्रोत्साहन सहायता से फिर पढ़ाई शुरु की. सन् 1941 में कायस्थ पाठशाला, इण्डर कालेज इलाहाबाद में इण्टर परीक्षा में उत्तीर्ण हुये. सन् 1942 में उन्होंने स्वतांत्रता आंदोलन में भाग लिया. शिक्षा स्थगित हुई. धर्मवीर भारती ने कई आर्थिक कठिनाइयों का सामना करते हुए भी बी.ए. में सफलता प्राप्त की. बी.ए. में चिन्तामणिघोष पतक प्राप्त हुई. बाद में संपादक श्री पद्मकान्त मालवीय के पत्र अभ्युदय में नौकरी करके उन्होंने एम.ए उपाधि प्राप्त की. सन् 1948 में कवि ने इलाचन्द्र जोशी के पत्र संगम में सहकारी संपदक का काम भी किया है. बाद में हिन्दुस्थानी एकादमी के उपसचिव भी बन गया. डॉ. धीरेन्द्र वर्मा के निर्देशन में सिद्ध साहित्य जैसे दुष्कर विषय पर शोध कार्य करके भारती ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सन् 1954 में पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की.

            भारती की प्रेयसी पत्नी न बन सकी, और पत्नी भी चिरसंगिनी न हो सकी. फिर उन्होंने पुष्पा जी से दूसरा विवाह किया. श्रीमती पुष्पा के कवि के जीवन में आने के बाद उनका पारिवारिक जीवन सुखमय बन गया. इनकी तीन संतानें हैं. भारती जी का आरंभिक जीवन संघर्षरत रहा, किन्तु बाद में सुखी और संपन्न रहा. भारती ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रवक्ता के रुप में नियुक्त हुए. लेकिन कुछ ही समय में ही अध्यापकीय क्षेत्र से बाहर आये. सन् 1960 में उन्होंने धर्मयुग साप्ताहिक के प्रधान संपादक के रुप में कार्य शुरु किया. सन् 1961 में उन्हें कामनवेल्थ रिलेशन्स कर्मटी के आमंत्रण पर इंगलैन्ड तथा यूरोप की यात्रा, फिर सन्1962 में जर्मन यात्रा का अवसर मिला. सन् 1966 में कवि ने भारतीय दूतावास के अतिधि बनकर इंडोनिशिया तथा थाइलैन्ड की यात्राएँ कीं. सन् 1967 में भारती संगीत नाटक अकादमी का सदस्य मनोनीत किया गया. सन् 1971 में उन्होंने मुक्तिवाहिनी के साथ बंगलादेश की गुप्त यात्रा की. धर्मवीर भारती ने सन् 1971 में भारत-पाक युद्ध में, युद्ध स्थल में जाकर प्रत्यक्ष अनुभव करके उन अनुभवों का आँखों देखाहालधर्मयुग में प्रकाशित किया. सन् 1972 में भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से सत्कृत भी किया है. सन् 1974 अप्रैल-मई में कवि ने मारिशस की यात्रा की और अनेक लेखों में भारती मूल की मारिशसीय जनता की समस्याओं का अध्ययन कर उन्हें प्रस्तुत किया. 

            किसी भी कलाकार के व्यक्तित्व पर विचार करते हुए उसकी सुन्दरता और सबलता को ही आदार मानना कोई मायने नहीं रखता क्योंकि जो सुन्दरता या उसका बाहरी व्यक्तित्व आज है, वह समय के साथ-साथ कम होता जाता है. सुन्दर से सुन्दर व्यक्ति भी वह सब नहीं कर पाता जो एक कुरुप व्यक्ति कर  जाता है. यहाँ हम जायसी का नाम ले सकते हैं. जिसके चेहरे पर बची एक आँख की सराहना आलोचकों ने दिल खोलकर की है. उनके आलोचकों के अनुसार तो जायसी ने जो दुनिया एक आँख से देखी, वह दो आँखों से देखी जा सकनेवाली दुनिया से कहीं अधिक बेहतर थी. सूरदास जिन्होंने बिल्कुल अन्धे होते हुए भी वह सब देखा और उसको व्यक्त किया, जो आँखों वालों की समझ से बहुत दूर था, उनके बारे में तो कभी-कभी इतना भ्रम होता है कि मन सोचने पर मजबूर हो जाता है कि क्या सचमुच सूरदास अन्धे थे? यदि हाँ तो इतनी बारीकी से वे जीवन के छोटे से छोटे क्षण को कैसे पकड़ पाये. डॉ. धर्मवीर भारती के जीवन में आर्थिक समस्याएं तो शुरु-शुरु में बनी ही रहीं और उसके लिए वे संघर्षरत भी रहें. लेकिन परिवार से इन्हें,अपने पत्नी से संबंध तोडने पडे. फिर इन्होंने पुष्पा जी से दूसरा विवाह किया तथा इनकी तीन सन्तानें हैं. इस तरह से हम कह सकते हैं कि भारती का शुरु का जीवन संघर्षरत रहा, किन्तु बाद में वे सुखी और सम्पन्न रहें.
           बाहरी व्यक्तित्व किसी के आन्तरिक व्यक्तित्व को जानने के लिए आवश्यक नहीं है, उसे निरर्थक छोडा जा सकता है. बाकी रही आन्तरिक व्यक्तित्व की बात. तो वह खुद-व-खुद भारती के साहित्य में प्रकट हुआ. उनका साहित्य तो पाठक से स्वयं ही बातें करता प्रतीत होता है उनके साहित्य को देख-पढ़ कर तो वह कहा जा सकता है कि भारती जी एक कोमल हृदयवाले, लोकमंगल के कामी और साफ सुधरे के स्वप्नद्रष्टा कलाकार हैं. इनकी दो गद्य रचनाओं (पश्यन्ती और ठेले पर हिमालय) में इनके जीवन वृत्त की कुछ ऐसी बातों पता चलती हैं जो इन के व्यक्तित्व रुप की ओर भी अधिक स्पष्ट करती हैं. भारती कुछ पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से अपना परिचय स्वयं भी दे जाते हैं- दो चीजों की बेहद प्यास है. एक तो नई-नई किताबों की और दूसरी अज्ञात दिशाओं को जाती हुई लम्बी निर्जन छायादार सड़कों की. सुविधा मिले तो जिन्दगी भर धरती की परिक्रमा देता जाऊँ. मुक्त हंसी, ताजे फूल और देश-विदेश के लोक-गीत बहुत पसन्द हैं. सबसे प्रिय कविताएँ वे हैं जो गटन में पडे शराबियों, हथौड़ा चलाते लोहारों और धूल में खेलते बच्चों की भोली-भाली आँखों से झलकती हैं, लेकिन जिन्हें न अभी किसी ने लिखा, न किसी ने छापा. लापरवाही नस-नस में भरी है, जिससे अपना नुक्सान तो कर ही लेता हूँ, दूसरों की नाराजगी को भी न्यौता देता फिरता हूँ. हूँदुनी, धुन में आने की बात है. हौंसले तो पहाडों को उलट देने के हैं.(1)
          प्रणय-भाव पर लगे सामाजिक बन्धों को देखकर कवि का कोमल मन रो पडता है-----
                ईश्वर न करे तुम कभी ये दर्द सहो.
                 दर्द. हाँ अगर, चाहो तो इसे दर्द कहो,
                 मगर ये और भी बेदर्द सजा है ए दोस्त.
                कि हाड़-हाड़ चिटख जाय मगर दर्द न हो.(2)
          लेकिन समय के साथ-साथ भारती के विचार भी बदलते गये.

      “---------- और रोमांस. जब उम्र थी, भाई जान सब आज का सा खुला वातावरण और सुविधायें न थी. आज जब वातावरण अनुकूल है, तब उम्र नहीं. फिर तब जब उम्र थी तब जितना हो सकता था, उतना करने की ईमानदारी से कोशिश तो की थी. लेकिन उन दिनों नारी स्वातंत्र्य आन्दोलन जैसे अच्छे-अच्छे आन्दोलन कहां थे. तब तो ज्यादा से ज्यादा यही कह सकते थे.
      सुनो इतनी अजीब किस्मत लेके पैदा हुए थे क्यों हम तुम.(3)

      सन् 1952 में उनके काव्य-संग्रह ठण्डा लोहा’’ का प्रकाशन हुआ जहाँ कवि की दहकती हुई अंगारें जैसे रोमानियत से शीतल छाया सा रुप दिखाई देता है----
     किशोरावस्था के प्रणय, रुपासक्ति और आकुल निराशा से एक पावन आत्मसमर्पणमयी वैष्णव भावना और उनके माध्यम से अपने मन के अहम् का शमन कर अपने से बाहर की व्यापक सच्चाई की हृदयंगम कर, संकीर्णता और कट्टरता से ऊपर एक जनवादी भाव-भूमि की खोज मेरी इस रचना-यात्रा के यही प्रमुख मोड़ रहें हैं. (4)

     अपनी इसी भावना से प्रेरणा पाकर उन्होंने पौराणिक आख्यानों को अपनी रचनाओं का आधार बनाया. उनका सन् 1955 में लिखा गयाअन्धायुग वर्तमान युग की जीती जागती तस्वीर है तो दूसरी औरकनुप्रिया (जो 1959 में प्रकाशित हुई) में राधा कृष्ण के प्रणय संबंधों का नये रुप में नया अर्थ देने का महत्वपूर्ण प्रयास है. अतः उनके व्यक्त्वि के बारे में जान लेने के बाद सारांश रुप में कहा जा सकता है कि उनका व्यक्तित्व समय और वातावरण के अनुकूल बिखरता ही गया. जहाँ एक साधारण पाठक उन्हें संपादक के रुप में जानता है वहीं हिंदी साहित्य के जाननेवालों के लिए एक महान कवि हैं.

डॉ. धर्मवीर भारती का कृत्तिव – संक्षित्प परिचय :
        डॉ. धर्मवीर भारती हिंदी जगत के प्रसिद्ध कवि, कथाकार, निबंधकार एवं संपादक हैं. कथाकार के रुप में भारती की विशिष्ट ख्याती है, उनके दोनों उपन्यास पर्याप्त चर्चा का विषय रहे हैं.सूरज का सातवाँ घोडा ’’ ने हिंदी उपन्यास जगत में अपना विशिष्ट स्थान बना रखा है. पहला उपन्यास गुनाहों का देवता कथ्य की दृष्टि से सफल है. कहानी के क्षेत्र में भारती की तीन कहानियाँ –गुल की बन्नों सावित्री नंबर दो, बदं गली का आखिरी मकान की काफी चर्चा परिचर्चा रही है. चाँद और टूटे हुए लोग तथा बंद गली का आखिरी मकान कहानी-संग्रहों से भारती जी ने हिन्दी जगत में अपना विशिष्ट स्थान बना रखा है. विचारक के रुप में भारती गंभीर हैं. प्रगतिवाद एक समीक्षा”, उनके शोध ग्रंथ सिद्ध साहित्य और उनकी एक अन्य कृति ठेले पर हिमालयमें भारती का विचारक रुप उभर कर सामने आया है.धर्मयुग के संपादक के रुप में भारती की सृजन-प्रतिभा के स्तर ने दिन-प्रति-दिन नये क्षितिजों तक विस्तार पाया है. भारती की प्रकाशित रचनाएँ इस प्रकार हैं-----
मुक्तक कविता :-
(1)    ठण्डा लोहा                   - 1952 ई.
(2)    सात गीत वर्ष                - 1959 ई.
प्रबन्ध :-
(1)    कनुप्रिया                     - 1959 ई.
दृश्य काव्य :-
(1)    अन्धायुग (काव्यनाटक)         - 1955 ई.
(2)    नदी प्यास थी (एकाँकी संकलन)  - 1954 ई.
उपन्यास :-
(1)    गुनाहों का देवता               - 1949 ई.
(2)    सूरज का सातवाँ घोडा           - 1952 ई.
कहानी :-
(1)    मुर्दों का गाँव                   - 1946 ई.
(2)    चाँद और टूटे हुए लोग           - 1955 ई.
(3)    बंद गली का आखिरी मकान       - 1969 ई.
स्फुट ललित गद्य  :-  
(1)    ठेले पर हिमालय                - 1958 ई.
(2)    पश्यन्ती                       - 1969 ई.
(3)    कहानी-अनकहानी                - 1970 ई.
(4)    मुक्त क्षेत्रे : युद्ध क्षेत्रे             - 1971 ई.
आलोचना  :-
(1)    प्रगतिवाद : एक समीक्षा            - 1949 ई.
(2)    मानव मूल्य और साहित्य         - 1960 ई.   
शोध   :-
(1)    सिद्ध साहित्य                  - 1955 ई.        
सहयोगी लेखन :-
ग्यारह सपनों का देश (उपन्यास) – 1960 ई
अनुवाद :-
(1)     आस्कार वाइल्ड की कहानियाँ – 1950 ई.
(2)     देशांतर (कविता संकलन) – 1960 ई.
संपादन :-
(1)     संगम (पत्रिका) – सहायक संपादक
(2)     निकष (पत्रिका) – सहायक संपादक
(3)     आलोचना (पत्रिका) – सहायक संपादक
(4)     धर्मयुग (पत्रिका) – प्रधान संपादक
(5)     हिंदी साहित्य कोश (ग्रंथ) – सहयोगी संपादक
(6)     अर्पित मेरी भावना (भगवती चरण वर्मा अभिनंदन ग्रंथ) – संपादक

उक्त रचनाओं से डॉ. धर्मवीर भारती की रचना-प्रतिभा एवं लेखन-विकास का बोध सहज ही हो जाता है और उनके साहित्यिक व्यक्तित्व के विभिन्न आयाम अनायास ही प्रकाश में आ जाते हैं।

संदर्भ :

1.       दूसरा सप्तक :  सं. अज्ञेय पृ.सं – 175  
2.       दूसरा सप्तक :  सं अज्ञेय पृ.सं-194
3.       कादाम्बिनी, जून 1973 एकांत की तलाश में डॉ. धर्मवीर भारती लेख पृ.सं-71
4.       ठण्डा लोहा की भूमिका डॉ. धर्मावीर भारती पृ.सं- 6


            




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