प्रेमचंद और राष्ट्रीय उपन्यास की अवधारण
प्रेमचंद और राष्ट्रीय उपन्यास की अवधारण
प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू
स्रवंति
अप्रैल
– 2006
प्रेमचंद राष्ट्रीय आन्दोलन के निर्भीक व अविचल
योद्धा थे. विदेशी सत्ता के साम्राज्यवादी चक्र में दबा-पिसा भारत उनकी रचनाओं में
बडे ही मार्मिक ढंग से प्रतिबिम्बित हुआ है. प्रेमचंद युग की प्रमुख समस्या
स्वाधीनता की प्राप्ति. पूर्ण स्वराज्य प्राप्ति के लिए कटिबद्ध गाँधी जी ने
सत्याग्रह द्वारा स्वतंत्र्य आंदोलन का सूत्रपात कर भारतीय राजनीति को एक नया आयाम
प्रदान किया. प्रेमचंद भारतीय राजनैतिक जागरण के एक स्तंभ है. देश में स्वाधीनता
के विचारों का प्रचार उन्होंने साहित्य के माध्यम से उतने ही जोरों से किया जितना
कि सक्रिय राजनीति में सत्य व अहिंया के द्वारा गाँधी जी ने. सहित्य जनता के
संस्कारी मन पर बडा गहरा प्रभाव पडता है, क्योंकि उसमें कला अंतर्निहित रहती है.
प्रेमचंद इस तथ्य को अच्छी तरह समझते थे. पराधीनता की श्रृंखलाएँ तोडने के लिए
भारतीयों में नवीन चेतना, साहस और शक्ति का संचार प्रेमचंद ने साहित्य के द्वारा
किया. उन्होंने भारत को झकझोरकर जगाया ही
नहीं, उसे उसकी दयनीय दशा से ही परिचित नहीं कराया, वरन् उसे क्राँति के लिए
स्वाधीनता के हेतु संगठित अभियान के लिए तैयार भी किया. प्रेमचंद जी के साहित्य
में भारत की आत्मा बोलती है.
प्रेमचंद जी
1930 के आरंभ में बनारसदास चतुर्वेदी को लिखे गए पत्र में कहा कि – “मेरी
आकांक्षाएँ कुछ नहीं है. इस समय तो सबसे बडी आकांक्षा यही है कि हम स्वराज्य
संग्राम में विजयी हों. धन या यश की लालसा मुझे नहीं रही. खाने भर को मिल ही जाता
है. मोटर और बंगले की मुझे हवस नहीं. हाँ, यह जरुर चाहता हूँ कि दो चार ऊँची कोटि
की पुस्तकें लिखूँ, पर उनका उद्देश्य भी स्वराज्यृ-विजय ही है.”(1)
उपन्यास सम्राट प्रेमचंद में देश प्रेम की भावना
बीज रुप में विद्यमान थी, जिसका स्वाधीनता संघर्ष के समानांतर विकास हुआ. शिवरानी
देवी कृत “प्रेमचंद घर में” लिखा है कि – “सरकारी नौकरी में रहते
हुए प्रेमचंद जी ने अपने आत्माभिमान पर कभी आँच नहीं आने दी. अंग्रेज अफसरों की
जी-हुजूरी करना उनकी आदत में न था. यद्यपि इसके लिए अनेक हार उनको कैफियत देनी
पडी.” (2)
प्रेमचंद जी ने हमेशा
जनता की विभिन्न समस्यओं का चित्रण करते हुए राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने के लिए
प्रेरणा भी जगायी. संपूर्ण रचना प्रक्रिया को राष्ट्रीयता की ओर मोढ़ लिया. राजा
महराजाओं की विलास प्रवृत्ति एवं कुशासन के कारण उनकी शक्ति और अधिकार धीरे-धीरे
क्षीण होते चले गए तथा उनकी रियासते अप्रत्यक्ष रुप से अंग्रेजों के नियंत्रण में
आ गईं, ये पतितकर्मी राजा ब्रिटिश सरकार के अनुचित हस्तक्षेप का विरोध करने के
स्थान पर उनके तलवे सहलाने में लगे रहते थे, जिससे उनकी रियासतें बची रहें. इन काठ
के उल्लू राजाओं को विलायत की सैर, अंग्रेजों के साथ शिकार खेलने और उनकी जूतियाँ
सीधी करने से फुर्सत नहीं थी, प्रजा जिया या मरे. सरकार के संरक्षण में देशी राजा
लोग प्रजा से मनमाने कर वसूल करना, मनमाने कानून बनाना
आदि के बारे में प्रेमचंद ने रंगभूमि उपन्यास में अत्यंत मार्मिक ढंग से चित्रण
किया है.
प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में तत्कालीन
स्वायत्तशासी संस्थाओं के प्रजातांत्रिक ढांचे, उनमें जन प्रतिनिधियों के प्रवेश
तथा उनकी कार्य प्रणाली का वास्तविक चित्रण किया है. रंगभूमि में म्युनिसिपल प्रधान
राजा महेंद्रकुमार सिंह सिद्धांतप्रिय व्यक्ति थे. वे अधिकारी एवं राजा-रईसों की
भाँति साधारण प्रजा वर्ग के लिए स्वास्थ्य एवं समस्त जनोपयोगी सुविधाएँ मुहैया
करना आवश्यक समझते थे. सेवा सदन में श्यामाचरण नगरपालिका में सरकार के नामजद सदस्य
थे, अतः उसकी नीतियों के खिलाफ जाने की बात सोच भी नहीं सकते थे. वेश्याओं को शहर
से बाहर के पद्मसिंह के प्रस्ताव से पूर्ण सहानुभूति रखते हुए भी वे कहते हैं, - “जब तक यह न मालूम हो जाए कि गवर्नमेंट इस विषय को पसंद करती है या नहीं, तब तक
मैं ऐसे सामाजिक प्रश्न पर कोई राय नहीं दे सकता.”(3)
प्रेमचंद के लिए साम्राज्यवादी
गुलामी से देश की मुक्ति सबसे अहम समस्या थी. उनमें आजादी की तडप थी और उसको पाने
के लिए वे कोई भी बलिदान करने को तत्पर थे. स्वाधीनता आंदोलन की सक्रिय राजनीति के
कार्यकर्ता न होने पर भी इस आंदोलन में उनका योगदान तत्कालीन नेताओं से भी आगे था
क्योंकि उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन को राजनीति के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक और
सांस्कृतिक सभी धुरियों पर गतिशील करने का काम किया. वे हिंदी के प्रथम उपन्यासकार
हैं, जिन्होंने राजनीति को साहित्य व गतिशील विचारों से जोडा तथा उसे देश भक्ति व
मानवीय मूल्यों से पूरित मशाल बनाकर जनता का पथ प्रदर्शन किया. प्रेमचंद जी ने
राष्ट्रीय जीवन व राष्ट्रीय संबंधों पर महाकाव्यात्मक उपन्यास लिखकर स्वाधीनता
आंदोलन के लिए न केवल दर्पण अपितु दीपक का भी महत्वपूर्ण कार्य संपन्न किया.
प्रेमचंद स्वाधीनता को जीवन और
पराधीनता को मृत्यु समझते थे. उनकी दृष्टि में पराधीनता सबसे बडा पाप और सारे
अत्याचारों की मूल थी. उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन के समस्त स्तरों को पहचान
और राजनीतिक दासता से मुक्ति को आर्थिक
स्वतंत्रता से जोड़ दिया. प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की
शोषणपूर्ण नीति, अंग्रेजी नौकरशाही का आंतकपूर्ण शासन, उसके साम्राज्यवादी
स्वार्थ, अन्याय व अत्याचार, अंग्रेजों के पक्षधर जमींदार और पूँजीपति वर्ग के
उत्पीडन और अनाचार, भारतीय ईसाइयों की अंग्रेजों के अंधानुकरण की मनोवृत्ति तथा
भारतीय शिक्षित वर्ग का अंग्रेजी शिक्षा व संस्कृति के प्रति लगाव आदि सभी का फर्दाफाश करके प्रतिरोध किया. साथ ही उन्होंने
स्वदेशी का प्रचार, सांप्रदायिक एकता का प्रसार, अस्पृश्यता निवारण व
दलितोद्धार, नारी जागरण, किसानों और मजदूरों की शक्ति स्थापना के आदर्श आदि सभी
मोर्चों का चित्रण करते हुए जनमानस को उद्वेलित कर राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन को
गति प्रदान की.
प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों मे
राष्ट्रीय भावों का चित्रण किया है. रंगभूभि में मिसेज सेवक और कुंवर साहब के
वार्तालाप से प्रेमचंद अंग्रेजी राज्य की नियामतों की निस्सारता पर बडे तार्किक
ढंग से वर्णन किया है-
“कुंवर – जिस राष्ट्र ने एक बार अपनी स्वाधीनता खो दी, वह फिर उस पद को नहीं पा
सकता. दासता ही उसकी तकदीर हो जाती है. मैं अंग्रेजों की तरफ से निराश हो गया
हूँ........
मिं
सेवक -
(रुखाई से) तो क्या आप यह नहीं जानते कि अंग्रेजों ने भारत के लिए जो कुछ
किया है, वह शायद ही किसी जाति ने किसी जाति या देश के साथ किया हो?
कुं. -
नहीं, मैं यह नहीं मानता.
मि.
से. - (आश्चर्य से) शिक्षा का इतना प्रचार और भी
किसी काल में हुआ था?
कुं. -
मैं इसे शिक्षा ही नहीं कहता जो मनुष्य को स्वार्थ का पुतला बना दे.
मि.से. -
रेल, तार, जहाज, डाक ये सब विभूतियाँ अंग्रेजों के ही साथ आयीं.
कुं. -
अंग्रेजों के बगैर भी आ सकती थीं और अगर आयी भी हैं, तो अधिकतर अंग्रेजों
ही के लिए.
मि.से. -
ऐसा न्याय-विधान पहले कभी न था?
कुं. – ठीक है, ऐसा न्याय विधान कहाँ था, जो अन्याय को
न्याय और असत्य को सत्य सिद्ध कर दे. यह न्याय नहीं, न्याय का गोरख-धंधा है.(4)
प्रेमचंद ने साहित्य के द्वारा देश और
जाति में नयी चेतना उत्पन्न की. प्रेमचंद जी का साहित्य केवल भारत की स्वाधीनता का
ही साहित्य नहीं है वरन् संसार की समस्त पीडित, दुखी और शोषित जनता का साहित्य है.
संदर्भ
1) कलम का सिपाही – अमृतराय –पृ.स. 459
2)
प्रेमचंद घर में – शिवरानी देवी – पृ. सं. 41
3)
सेवासदन - प्रेमचंद – पृ.सं. 148
4) रंग-भूमि – प्रेमचंद – पृ.सं. 269