हिंदी और तेलुगु काव्य में अभिव्यक्त राष्ट्रीय एकता
हिंदी और तेलुगु काव्य में अभिव्यक्त राष्ट्रीय एकता
प्रो. एस वी.एस. एस. नारायण राजू
योग्यता, जून 2014
ISSN NO : 2348-4225
हित साधन ही
साहित्य का मुख्य प्रयोजन है. हित की भावना का जन्म ‘ख’ से ‘पर’ की ओर
उन्मुख होने पर ही जागृत होता है. वही साहीत्य समाज की मनोवृत्तियों का प्रतिबिंब
बन सकता है. समाज के विकास में साहित्यकारों का दायित्व महत्वपूर्ण है. साहित्य को
मनुष्य जीवन के अनुभवों तथा अनुभूतियों का संचित प्रतिबिंब माना जा सकता है.
बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में राष्ट्रीय एकता की भावना की पुष्टि, समाज सेवा व
संस्कृति-प्रेम की ओर उन्मुख करना ही साहित्य का प्रयोजन रहा है.
‘राष्ट्रीयता’ शब्द का अर्थ किसी राष्ट्र का नगरिक का नागरिक होने का
भाव, ‘राष्ट्र
प्रेम’
तथा ‘देश-भक्ति’ है. (1)
राषष्ट्रीयता एक ऐसी भावना है जिसका संबंध मानव की अंतरचेतना से है, अनिर्वचनीय
होने के कारण केवल अनुभूति का विषय है. यह भावना मानव की स्वाभाविक प्रवृत्तियों
में से एक है. इसके कारण ही वह अपने राष्ट्र से एक विशेष प्रकार का लगाव रखता है
और उसे सदा समृद्धशाली बनाने का उत्सुक रहता है. इस भावना के आवेग से वह अपने
राष्ट्र के कल्याण के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करना गौरव समझता है. अपने देश के
अगाध प्रेम में अपने देश की सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक दशाओं में सुधार के
प्रयत्नों में अपनी संस्कृति, सभ्यता एवं धर्म के प्रति गौरव आदि से यह राष्ट्रीय
भावना प्रस्फुटित होती है. राष्ट्रीयता वास्तव में मन की एक अवस्था है. ‘हैस कोहूम’ के
विचारानुसार “राष्ट्रीयता
की उत्पत्ति मस्तिष्क की एक विशेष दशा से होती है”.(2) यह मनोवृत्ति मनुष्य के अंतःकरण की एक सर्वोत्तम चेतना
है. इस से मनुष्य अपने राष्ट्र को समृद्धिशाली बनाने की कामना करता है. यही
मनोवृत्ति मनुष्य को राष्ट्रीयता के सूत्र में तभी बांधती है जब उसका ऐसे जन समूह
से एकत्व हो जाता है, जिसका रहन-सहन, रीति-रिवाज तथा अन्य जीवन की समस्याएँ उसी के
समान हों गोटले ने इस प्रकार व्यक्त किया है कि “राष्ट्रीयता प्रधानतः मनोवैज्ञानिक भावना है, जो उन्हीं
लोगों से हीं उत्पन्न होती है, जिनके सामान्य गौरव तथा विपत्तियाँ हों, जिनकी
सामान्य पैतृक संपत्तियाँ एवं परंपराएँ हों”.(3)
प्रो. होलकौम्बे कहते हैं कि “
राष्ट्रीयता एक साहचर्य की भावना है तथा पारस्परिक सहानुभूति है, जो देश विशेष से
संबंधित होती है और इसका उद्भव सामान्य पैतृक संपत्तियों से होता है. वे महान
कर्तृत्व और गौरव की हो सकती है या विपत्ति तथा कष्टों की.”
(4) देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुसार सामूहिक भावना के
साथ-साथ, संस्कृति, समाज, इतिहास एवं राजनीति सभी राष्ट्रीयता के अंग बन गये हैं.
राष्ट्रीयता में इन सभी का समान रुप से विद्यमान होना आवश्यक है ‘राष्ट्र
व्यक्तियों का वह समूह है जो राजनैतिक, जातीय, धार्मीक, सांस्कृतिक (जिसमें भाषा
सम्मिलित है) एवं ऐतिहासिक दृष्टि से एक हो, उनका उद्गम एक हो. उसमें एक – सा रहने
की उत्कंट भावना हो.’(5)
प्रो. सुधीन्द्र के अनुसार – ‘राष्ट्रवाद
एक व्यक्तिगत नहीं समष्टिगत (सामूहिक) चेतना है – जिसकी दृष्टि समूह या सर्व के अभ्युदय
और प्रगति पर है और यह प्रगतिशील तत्व भी है. देश भक्ति राष्ट्रीयता का सनातन रुप
है और राष्ट्रवाद उसका प्रगतिशील (ऐतिहासिक) स्वरुप है’. (6) ‘बाबू
गुलाबराय ने इसे भावात्मक धारण माना है. उसके अनुसार भी सब में सहचर्य की भावना
होना आवश्यक है. वे लिखते हैं कि ‘एक
सम्मिलित राजनैतिक ध्येय में बंध हुए किसी विशिष्ट भौगोलिक इकई के जन-समुदाय के
परस्पर सहयोग और उन्नति की अभिलाषा से प्रेरित उस भू-भाग के लिए प्रेम, गर्व की
भावना को राष्ट्रीयता’ कहते हैं.’(7)
हिंदी
कवियों ने अपने कविताओं के द्वारा देशवासियों को प्राचीन उन्नति और अर्वाचीन अवनति
का अवगत कराकर, भविष्य के लिए प्रोत्साहित किया. उन्होने उद्बोधनों के सहारे
राष्ट्र की अवनति अवस्था को दूर करने का प्रयास किया. उन्होंने वर्तमान अवमति का
वर्णन कर जनता का ध्यान आकृष्ट किया. इस प्रकार दुर्दशा वर्णन का एक अर्थ देशवासियों
को वास्तविकता से परिचित कराना होता है, जिससे सारे दीप मिट जाएं और राष्ट्र का
पुनर्निर्माण हो. यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि कवि वर्तमान दुर्दशा से
निराशा नहीं हुए. वे जानते थे-
“उत्थान के पीछे पतन संभव सदा है सर्वथा,
प्रौढत्व के पीछे स्वयं वृद्धत्व
होता है यथा
हां किंतु अवनति भी हमारी है.
समुन्नत सी बडी
जैसी बढी थी पूर्णिमा वैसी अमावस्या
पडी.’(8)
उन्होंने अवनति को कालचक्र के क्रम के रुप
में स्वीकार किया. अतएव उन्होंने राष्ट्र के पूनर्निर्माण के लिए जनता को प्रेरित
किया कर्त्तव्य – अकर्त्तव्यों का निरुपण कर देशवासियों को उन्नति की ओर अग्रसर
होने की प्रेरणा प्रदान की. मैथिलीशरण गुप्त कृत ‘भारत
– भारती’ उद्बोधन और नवजागरण की अग्रदूत कविता है. इसमें
ऐतिहासिक तथ्यों पर भारतीय जनता को नव जागरण का संदेश दिया है. गुप्त जी ने पूर्व
गौरव दीप की रक्षा का उद्बोधन देते हुए लिखा है-
“किस भांति जीना जाहिए, किस भांति मरना चाहिए,
सो सब हमें निज पूर्वजों से याद
करना चाहिए.
पद चिह्नों उनके यत्नपूर्वक खोज
लेना चाहिए.
निज पूर्व गौरव दीप को बुझने न देना
चाहिए.”(9)
सभी कवियों ने जातीय एकता की आवश्यकता पर बल
दिया है. भारतवर्ष में अनेक धर्म, और जाति के लोग निवास करते हैं, उनके ऐक्य के
बिना राष्ट्रोन्नति असंभव है. अतएव कवि जातीय एकता पर बल देते हुए लिखते हैं-
जैन, बौद्ध, पारसी, यहूदी, मुसलमान,
सिख, ईसाई,
कोटि कण्ठ से मिलकर कह दो ‘हम
सब हैं भाई-भाई.”(10)
उसमें कवि ने भ्रतृत्व का सुंदर संदेश दिया
है. मैथिलीशरण गुप्त ने ‘गुरुकुल’
में जातीय वैमनस्य को राष्ट्रीय प्रगति में बाधक माना. उन्होंने हिन्दु संगठन तक
ही अपने आपको सीमित न रखकर हिन्दु मुसलमान दोनों जातियों के एकीकरण का आग्रह करते
हुए लिखा है-
हिन्दु मुसलमान दोंनों अब तोडे वह विग्रह
की नीति,
प्रकट की गई है यह केवल अपने वीरों
के प्रति प्रीति.”(11)
मैथिलीशरणगुप्त
जी ने अपनी प्रभावोत्पादक हुंकार से कोटि कोटि हृदयों स्पर्श किया-
“धरती हितकर नींद भगा दे,
वज्रनाद से व्योम जगा दे,
दैव, और कुछ लाग लगा दे,
निश्चय करु कि भारत हूँ मैं.” (12)
देश
की स्वतंत्रता का विशेष भार तो युवकों को ही वहन करना पडता है. रामनरेश त्रिपाटी
युवकों को उनके कर्त्तव्य की स्मृति ओजपूर्ण शब्दों में कराते हैं-
“कुछ सिंह सम निकल प्रकट कर,
अतुलित भुजबल विषम परक्रम.
युद्ध भूमि में वे बैरी का,
दर्प दलन कर लेते है दम.
या स्वतंत्रता की वेदी पर,
कर देते हैं प्राण निछावर.
तब नवयुवक स्वतंत्र देश के,
क्या बैठे रहते हैं घर पर.” (13)
आत्मसमर्पण
की भावना सोहनलाल द्विवेदी की कविताओं में ओजस्वी रुप में अभिव्यक्त हुई है. सच्चा
देश भक्त अपना तन-मन-धन मातृभूमि को स्वाधीन कराने के लिए निछावर करना, वे अपना
परम सौभाग्य मानते हैं. द्विवेदी जी आत्म बलिदान की ओजस्वी भावना की अभिव्यक्ति
निम्नलिखित पंक्तियों के माध्यम से करते हैं-
हम मातृभूमि के सैनिक हैं.
आजादी के मतवाले हैं,
बलिवेदी पर हंस हंस करके,
निज शीश चढ़ाने वाले हैं.
जननी के वीर पुजारी हैं.
सर्वस्व लुटाने वाले हैं,
हम मातृभूमि के सैनिक हैं,
आजादी के मतवाले हैं.
अब देश प्रेम की इंगत में,
रंग गया हमारा यह जीवन,
उसके ही लिए समर्पित है,
सब कुछ अपना यह तन-मन-धन.”(14)
उन कवियों ने अपनी लेखनी के द्वारा जनता
में अदम्य उत्साह, अपूर्व स्फूर्ति-निर्माण करने तथा कर्तव्य की ओर प्रेरित करने
केलिए आभियान चलाया ‘जागो
फिर एक बार’
कविता के माध्यम से निराला जी जनमानस में नवीन चेतना का संचार करने में सफल हुए
हैं. उन्होंने निद्राण भारतीय जनता को जागृत करने के लिए गीता के आधार पर जागरण का
संदेश दिया-
‘सिंही की गोदी से
छीनता रे शिशु कौन?
मौन थी क्या रहती वह
रहते प्राण?
रे अजान
एक मेष माता ही
रहती है निर्निमेष
दुर्बल वह
छीनती सन्तान जब
जन्म पर अपने अभिशप्त
तात आंसू बहाती है-
किंतु क्या
योग्य जन जीना है,
पश्चिम की उक्ति नहीं.
गीता है गीता है-
स्मरण करो बार बार-
जागो फिर एक बार.” (15)
सोहनलाल
द्विवेदी अपने गीत के माध्यम से गगन भेदी सिंह गर्जना करते हुए तीव्र गति से
अग्रसर होने का प्रोत्साहन देते हैं-
‘ न हाथ एक अस्त्र हो,
न साथ एक अस्त्र हो
न अन्न नीर वस्त्र हो,
हटो नहीं डटो वही
बढ़े चलो बढ़े चलो अशेष रक्त तोल दो
स्वतंत्रता का मोल दो
कहीं युगों की खोल दो
डरो नहीं मरो वहीं बढे चलो बढे चलो.’(16)
इसी प्रकार जयशंकर प्रसाद ने भारत के
स्वतंत्रता सेनानियों को साहस के साथ आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते हुए लिखा
है कि-
“हिमाद्रि तुंग श्रृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्वला
स्वतंत्रता पुकारती
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़ प्रतिज्ञ सोच
लो.
प्रशस्त पुण्य पंथ है बढे चलो बढे चलो
असंख्य कीर्ति रश्मियां
विकीर्ण दिव्य दाह सी
सपूत मातृ भूमि के
रूको न शूर साहसी.
अराति सैन्य सिन्धु में
सुवाडवाग्नि से जलो प्रवीर है जयी बनो,
बढ़े चलो बढ़े चलो.(17)
इस प्रकार कवियों ने अपनी उद्बोधनों से
मंडित कविताओं के द्वारा जनता को क्राँति, बलिदान, राष्ट्रीय एकता का संदेश देकर उस
में देश के लिए मर मिटने की उत्तेजना जागृत की.
तेलुगु के कवियों ने जनता को प्राचीन
उन्नति और अर्वाचीन अवनति से अवगत कराकर उज्जवल भविष्य के लिए प्रोत्साहित किया.
उन्होंने उद्बोधनों से मंडित कविताओं के सहारे राष्ट्र की अवनति को दूर करने का
प्रयत्न किया है. उद्बोधनों से मण्डित देशभक्ति पूर्ण गीतों की रचना करनेवालों में
गुरजाड अप्पाराव जी सिद्धहस्त है. वे आंध्र देश में राष्ट्रीय आंदोलन के आरंभ होने
के पूर्व ही राष्ट्रीयता एवं सामाजिक सुधार भावों से परिचित थे. देश के प्रति इतना
गंभीर दृष्टिकोण रखने के कारण ही उन्होंने ‘मुत्यालु-सरालु’ काव्य में देश भक्ति गीत के माध्यम से देश के प्रति भक्ति
भावना प्रकट की, अत्यल्प साधरण भाषा में लिखकर असाधारण संदेश दिया है. इस गीत के
प्रथम चरण में वे लिखते हैं. हमे देश के प्रति प्रेम भावना रखनी चाहिए. भलाई का
मार्ग अपनाना चाहिए. व्यर्थ बातों से अपने आप को दूर रखकर देश की भलाई के लिए कदम
उठाना चाहिए.
“देशमुनु प्रेमिंचुमन्ना
मंचि अन्नदि पेंचुमन्न
वट्टि माटलु कट्टि पेट्टरोय
गट्टि मेल तलपेट्ट वोय” (18)
तेलुगु
के कवियों ने राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता पर बल दिया है. भारत देश में अनेक धर्म,
पंथ और जाति के लोग निवास करते हैं, उनके ऐक्य के बिना राष्ट्रोन्नति असंभव है.
अतएव कवि भानूमूर्ति ने राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता का उल्लेख इस प्रकार किया है
कि “ईसाई,
मुसलमान, हिन्दु और पारसी एक परिवार के सदस्यों की भाँति मिल-जुलकर देश के प्रति
प्रेम भावना प्रकट करें. प्रीतिभाव से देश की उन्नति के लिए कोशिश करें.”
“कान
देशाभिमानंबु कल्गि क्रैस्त
वुलु मुसलमानुलु हिदुवुलुतु बार
सीलु नोक्क कुटुंबमै चेरि देश
मात नुद्धरिंतुरुगात प्रीति.”
(19)
सौभ्रातृत्व
की भावना पर विशेष रुप से बल देते हुए भानुमूर्ति जी ने लिखा है. “हम इसी
मिट्टि में पैदा हुए हैं और इसी मिट्टि में मिल जाएंगे. इसलिए हम एक ही देश माता
की संतान हैं. बाहरी वेश भाषाओं के अलग होने पर भी हमारे मन में भ्रातृत्व की
भावना रहनी चाहिए.”
“मनमु बुट्टिन मन्ननु मनयु गलियु
मन्नु निय्यदि गावुन मनकु बैट
वेषभाषण भेद मेव्विधि नोदविन
हदयसीमल सौभ्रात मेनयवकल्यु”(20)
तेलुगु कवियों ने उद्बोधनों के द्वारा जनमानस में देश के लिए मर मिटने की
भावना को उद्बुद्ध किया. मल्लादि चंद्रशेखर राव ने ‘जयभेरि म्रोगिंदि’ शीर्ष-गीत में प्राण और मान को बलिवेदी पर चढ़ाने का आग्रह
किया. उन्होंने लिखा है-
“जयभेरि का नाद हुआ,’
हे समस्त जन! उठिए!
विजय प्राप्त करने तक शांति
नहीं है.
शंका और भय के बिना उत्साहित
होकर आइए.
देश सेवा करने के लिए धीरज
बांधकर ठहरिए.
मानव की सेवा के बारे में मन
में विचार कीजिए.
प्राण और मान को बलि देकर आईए.
“जयभेरि – म्रोगिंदि जनुलारा लेवंडि
जयमु पोंदेदाक शांतमु लेदंडि
जंकु गोंकु लेक छंगुन रंडि
देश सेवनु जेय धीरुलै निलुवंडि
मानव सेवये मदिलोन तलचंडि
प्राणालु मानालु बलिइच्चि
रारंडि..”(21)
कवियों ने
अपनी लेखनी द्वारा तत्कालीन जनता में अदम्य उत्साह, अपूर्व स्फूर्ति का निर्माण
करने के लिए तथा कर्त्तव्य की ओर प्रेरित करने के लिए जागरण और अभियान गीतों की
रचना की. मंगिपूडि वेंकट शर्मा जी ने ‘मेलु-कोलुपु’ नामक गीत के माध्यम से भारतीय को जागृत करने का प्रयास
किया है. वे लिखते हैं कि-“हे
भारत के पुत्र!
हे सज्जन मित्र. हे सत् चरित्र. हे वत्स! जागो!
विश्व के सब लोग तुम से पहले ही पग डालते आगे बढते समय तू भीरु के रुप में सोना
उचित नहीं है.”
“मेलु
कोनुमु भरत पुत्रडु
मेलु कोनुमु सुजन मित्रृडु
मेलु कोनुमु सच्चरित्रृडु
मेलुकोनवय्या. वत्सा!
अंदरुनु नीकंटे मुंदर
नडुगु वेयुचु मेलगुचुंडा
पेंदवल निडु निद्रिपोवग
पाडिय गुनवय्या.”(22)
मल्लादि
रामचंद्र शास्त्री ने ‘पद
दिल्ली’
(चलो चलो दिल्ली) शीर्षक अभियान गीत की रचना की. उन्होंने इस गीत में पराधीन भारत
की रक्षा करने के लिए दिल्ली चलने के लिए तत्कालीन आंध्रों को प्रेरित किया. “शत्रृओं को
तुरंत ही भगाने के लिए चलो, चलो दिल्ली दौडकर जाएंगे. भारत देश के पराधीन हो कर
जाने से महत्व खोकर उसका वैभव कम हो गया है, उसकी प्रतिष्ठा नाश हो गयी है. अब वह
पश्चाताप से संतप्त हो रहा है.”
“पद पद दिल्ली परुगुन पोदां
पगर वेगमे, पार द्रोलगा
भारत देशमु पराधीनयै
प्राधान्यमुचेडि, प्रभाव
मुडिगि
परुवुगोल्पोयु परादीनततो
पोगुलुचुन्नदिक.”(23)
उन्होंने
“वेगरंडु”(जल्दी
आईए) शीर्षक गीत में भारत वासियों को जल्दी से जल्दी आंदोलन में भाग लेने का आदेश
दिया. वे देश वासियों से प्रश्न करते हैं कि- “जब जननी जंजीरों के बंधनों से कष्टों को झेल रही है तब तू
चुपचाप बैठकर देखने से क्या तुझे पराये लोग प्रशंसा करेंगे?”
“कन्नतल्लि
बंधनमुलु
गासिनंदुचंडगा
मिन्नकुंडि चूचुचुंडु
मिम्मु परुल मेत्तुरा? (24)
इस
प्रकार यह स्पष्ट है कि हिन्दी और तेलुगु काव्य के क्षेत्र में राष्ट्रीय एकता परक
काव्य कृतियों में साम्य ही अधिक दृष्टिगत होते हैं. यह भारतीय साहित्य की
भावात्मक तथा राष्ट्रीय एकता को उजागर करनेवाला सबल प्रमाण है. प्रादेशिक
विशिष्टताओं के कारण जो वैषम्य परिलक्षित होते हैं, वे मात्र प्रादेशिक, साहित्यिक
परंपराओं एवं प्रादेशिक आवश्यकताओं के आधार पर अभिव्यक्त हुए हैं. विभिन्नता में
एकता ही भारतीय साहित्य की विशेषता है. बाह्य रुप में दृष्टिगत होनेवाले सभी
तत्वों में अंतर्निहित एकता विदेशियों को आश्चर्य चकित कर देती है. विभिन्न भाषाओं
में अभिव्यक्त होने पर भी भारतीय साहित्य भाव की एकात्मकता के कारण अक्षुण्ण है.
हिन्दी और तेलुगु काव्य में अभिव्यक्त राष्टीय चेतना व एकता के तुलनात्मक अध्ययन
से यह बात सुस्पष्ट हो जाती है कि विभिन्न भाषाओं में विभिन्न लिपियों में लिखे
जाने पर भी भारतीय साहित्य की आत्मा एक है.
संदर्भ
1.
बृहत हिदी कोश – कालिका प्रसाद
पृ.स. 1152
2.
The idea of Nationalism - Hanskohn
P.No. 10&11
3.
Gettle, R.G. Political Sciences. P.No.
24
4.
Foundation of Modern Health, Prof. Holecombe
P.No. 133
5.
Encyclopedia of America P.No. 749
6.
प्रो,सुधींद्र – हिंदी कविता में
युगांतर पृष्ट संख्या - 237
7.
बाबू गुलाबराय – राष्ट्रीयता : पृ.स.2
8.
मैथिलीशरण गुप्त : भारत –
भारती – पृ.स.74
9.
मैथिलीशरण गुप्त : भारत – भारती
- पृ.स.161
10.
मैथिलीशरण गुप्त : भारत
भारती - पृ.स.91
11.
मैथिलीशरण गुप्त : गुरुकुल. पृ.स.31
12.
मैथिलीशरण गुप्त :
स्वदेशसंगीत – पृ.स.59
13.
रामनरेश त्रिपाठी : स्वप्न
पृ.स.40
14.
सोहनलाल द्विवेदी : भैरवी
पृ.सं.121
15.
निराला - परिमल :
पृ.सं.203,204
16.
सोहनलाल द्विवेदी : भैरवी
पृ.सं.125
17.
जयशंकर प्रसाद : स्कंधगुप्त
पृ.सं.114
18.
गुरजाड अप्पाराव : मुत्याल
सरालु पृ.सं.60
19.
भानुमूर्ति :
भानूमूर्ति काव्य कुसुमांजलि पृ.सं.239
20.
भानुमूर्ति :
भानुमूर्ति काव्य कुसुमांजलि प-.सं.238
21.
संपादक : गुरजाड
राघवशर्मा -
जातीयगीतालु पृ.सं.302
22.
संपादक : गुरजाड
राघवशर्मा - जातीय
गीतालु पृ.सं.12,13
23.
संपादक : गुरजाड
राघवशर्मा -
जातीय गीतालु पृ.सं.349
24.
संपादक : गुरजाड
राघवशर्मा -
जातीय गीतालु पृ.सं.341