प्रतीकात्मक और अभिव्यंजनापूर्ण भाषा शैली : लहरों के राजहंस
प्रतीकात्मक
और अभिव्यंजनापूर्ण भाषा शैली : लहरों के राजहंस
प्रो.
एस.वी.एस.एस. नारायण राजू
स्रवंति
- सितंबर
2006
“लहरों के राजहंस” नाटक की भाषा सहज सरल और औपचारिकता से रहित है. रंगमंच को गति देनेवाले बिंब
से संयोजित शब्दों का प्रयोग किया गया है. भाषा और संवादों को पात्रों की शारीरिक
क्रिया से समन्वित रखने की विशेषता मोहन राकेश के इस नाटक में भी परिलक्षित है.
पात्र के व्यक्तित्व, स्थिति और माँग के अनुसार भाषा स्वयं ढलती चली जाती है. जिस
तरह संवाद नाटक के प्राण तत्व है, उसी तरह भाषा भी नाटक में एक विशेष अर्थवत्ता
रखती है. नाटक में भाषा का जो स्वरुप संभव है. जिसे नाटक की सफल भाषा कहा जा सकता
है वह बोलचाल की ही भाषा है. नाटक की मूल संवेदना के अनुसार भावों और विचारों के
भार को वहन करने की क्षमता यदि भाषा में है तो उसे श्रेष्ट और सफल भाषा कहा जा
सकता है. “लहरों
के राजहंस” की
भाषा व्यंजक शब्दावली से पूर्ण है. उस में पात्रों के ऊहा-पोह और विचार-विमर्श के
भार को वहन करने की पूर्ण क्षमता है. “नंद” एक निरीह
पात्र है, उसको जो भाषा प्राप्त है, उस में और श्वेतांग की भाषा में विशेष अंतर
नहीं है. प्रतीकात्मक शब्दों की योजना से नाटक में भाव प्रेषण की मात्रा अधिक आ गई
है. सुंदरी के व्यंजक कथनों, नंद के स्वगत कथनों और निरंतर सुंदरी के अनुकूल होते
जाने में जिस भाषा को आकर मिला है वह कोई आम भाषा नहीं है. उस में दो भिन्न मनः
स्थिति वाले पात्रों को व्यक्त करनेवाली
शब्दावली है, व्यंग्यबोधक शैली है और सब से ज्यादा एक ऐसी अनिवार्य मादकता है
जिसके सहारे पाठक भाषा की अनगिनत सीढ़ियाँ चढता जाता है. आलोच्य नाटक की भाषा
संस्कृत शब्दावली से युक्त होते हुए भी बोधगम्य है. प्रत्यूष, उत्तरीय, विशेषक,
आखेट, भ्रान्ति, कक्ष, अग्निकाष्ठ, अक्षत, अभ्यागत आदि शब्द तत्कालीन युग का विशेष
वातावरण सजीव करने में सक्षम हैं. यद्यपि उक्त नाटक में कार्य-व्यापार तो अत्यन्त
संक्षिप्त है किंतु अर्थ-गर्भित संवाद नाटक में आकर्षक कौतुहल और प्रवाहपूर्ण गति
उत्पन्न करने में सहायक हैं. पाश्चात्य निर्देशक क्रेग ने इसी अर्थ में नाटक की
भाषा को कार्य कहा है. “लहरों के राजहंस” नाटक में जिस शैली को अपनाया गया है वह मानो भावों के अनुरुप तो है ही, पात्र
के व्यक्तित्व की वाहिका भी है. सुंदरी, नंद श्वेतांग और अलका के कथनों की भाषा
उनके व्यक्तित्व के रंगों को और भी चमका देती है. यों नाटक की भाषा में
काव्यात्मकता भी पर्याप्त मात्रा में है. अनेक कथनों में शब्दों का लालित्य और
भावों की रुचिरता मन को गरिमा देती है. पात्रों की द्वन्द्वग्रस्त स्थिति जहाँ
गहरी है वहाँ भाषा में एक खिंचाव है, जहाँ वे व्यवहार में खुले हुए है वहाँ भाषा
की समूची अर्थवत्ता भी पाठक के सामने आकर खुल गयी है. इतना ही नहीं जहाँ भावावेग
है वहाँ शब्दों में कंपन है, एक थिरकन है और वे एक रिद्म से भरपूर है. सुंदरी के रुप-वर्णन
के प्रसंगों में शब्द स्वतः ही सेब की
लालिमा से भर उठे हैं. नाटक को अभिनेयता के संदर्भ से भी लिखा जाता है. अतः उसकी
भाषा का सरल और प्रवाहमय होना एक अनिवार्यता के संदर्भ से भी लिखा जाता है. अतः
उसकी भाषा का सरल और प्रवाहमय होना एक अनिवार्यता बन जाता है. मोहन राकेश ने इस
बात का ध्यान रखा है तभी तो पाठक उसे हृदयंगम कर लेता है. श्यामांग का यह कथन
देखिये जहाँ भाषा सरलता का पर्याय ही बन गयी है, काम? काम
नहीं था? आपने कहा था काम न करने के लिए कमलताल के पास जो अंधेरा कोना है, कुछ देर के
लिए वहाँ चला गया था. वहाँ देखा, ताल की लहरों पर वह छाया उतर रही है. लहरें उस
में गुम हुई जा रही है, कमलताल, कमल पत्र सब उसमें खोये जा रहे हैं. “मुझे
लगा कि वह छाया धीरे-धीरे उन सबको लील जायोगी, ताल में तैरते हुए राजहंसों के जोडे
को भी. मुझे डर लगा. मैं छाया पर पत्थर फेंकने लगा.” (1) यहाँ पात्रों की मनःस्थितियों की अभिव्यंजना के
अनुकूल भाषा का प्रयोग स्वाभविक ढंग से किया गया है. जाहिर है कि यहाँ भाषा लहरों
के ऊपर तैरती हुई और बिना कोई आवाज किए थिरकती हुई दिखायी देती है, किंतु इसके
विपरीत जहाँ पात्रों की चिन्तन भरी हो गयी है. विचार-श्रृंखला उलजी हुई और इन सब
के ऊपर जहाँ पात्रों की मनः स्थिति उलझी हुई है वहाँ भाषा सामान्यतः कठिन और भारी
हो गयी है.
“लहरों के राजहंस” में भाषा और शिल्प की दृष्टि से अधिक प्रयोगशीलता
दिखाई देती है. नाटक में सर्वत्र प्रतीकात्मक ओर अभिव्यंजनापूर्ण शैली का उपयोग
कथ्य का प्रभावशाली ढंग से कहने के लिए किया गया है. इतना समझ में आता है कि जिये
जाने से जीवन धीरे-धीरे चुक जाता है कि हर उन्मेष का परिणाम एक निमेष है और काल के
विस्तार में निमेष और उन्मेष दोनों अस्थायी है. सुख खुख नहीं है, कायी पर फिसलते
पाँव का एक स्पन्दन मात्र हैं. मात्र रेत में डूबती हुई बूँद की
अकुलाहट.....परन्तु वह स्पन्दन वह अकुलाहट ही क्या जीवन का पूरा अर्थ जी लेने का
कुल पुरस्कार नहीं है. (2) इसी प्रकार नंद का यह कथन द्रष्टव्य है, क्यों मैंने
जान-बूझकर आत्म-विनाश को निमंत्रित किया, और फिर स्वयं ही आत्म-रक्षा के लिए उस
तरह लड गया? क्षत-विक्षत हम दोनों हुए.....पलायन भी एक तरह
से दोनों ने ही किया. क्यों?
आत्म-विनाश और आत्म-रक्षा, दोनों प्रवृत्तियों के बीच एक साथ मैं कैसे जिया और
क्यों? और उस
तरह जीकर क्या सुख मिला? और
क्या क्या यह सुख की ही खोज थी जिसने उस तरह जीने के लिए विवश किया? उस
दीपाधार के पास से हटकर आगे के दीपाधार की ओर आता है. या यह केवल मन का विद्रोह
था... बिना विश्वास एक विश्वास के अपने ऊपर लादे जाने के लिए? या कि इसलिए उस समय मैं इतना सत्वहीन क्यों ही गया कि भिक्षु आनंद के
कर्त्तनी उटाने पर चिल्ला नहीं सका कि यह विश्वास मेरा नहीं है. मैं तुम्हारा किसी
और का विश्वास ओढकर नहीं जी सकता, नहीं जीना जाहता.” (3) नाटककार मोहन राकेश ने राजकुमार नंद के मन के
चरम द्वंद्व को, निश्चय-अनिश्चय की स्थिति को, जो सामने आ पडा है, उस से पलायन की,
वृत्ति को सशक्त ढंग से, सशक्त शब्दों में रुपायित किया है. शब्द-योजना में
पारिभाषिक शब्दावली विशेष उल्लेख्य है. निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि “लहरों
के राजहंस” की
भाषा एक अच्छे नाटक की भाषा है. उस में जो बिंब बंधे हैं वे उसकी जीवन्तता के
प्रतीक है. इस नाटक के विविध प्रसंगों में तथा पात्रों के चरित्रांकन में नाटककार
ने यत्र-तत्र प्रतीकात्मकता का पुट दिया. “लहरों के राजहंस” नाटक में ऐतिहासिक चरित्र और वातावरण की अवतारणा के लिए एक ऐसी भाषा का
प्रयोग किया है जो संस्कृत शब्दावली से युक्त होते हुए भी बोध-गम्य है. एक
काल-विशेष के वातावरण के जीवन्त रुप को प्रस्तुत करने में सक्षम है. नाटककार मोहन
राकेश ने एक ओर प्राचीन वातावरण को शब्द बद्ध करने संस्कृत शब्दावली का प्रयोग
किया है तो दूसरी ओर इस वातावरण के सम्मोहन तोडकर भाषा शैली को समकालीन जीवन की
ठोस स्थितियों के निकट लाने का प्रयत्न भी
किया है. नंद और सुंदरी के संवादों में भाषा के ये दोनों स्तर देखे जा सकते हैं.
भाषा-संवादों तथा कार्य-व्यापार के द्वारा नाटक के अनुरुप परिवेश के निर्माण में भी लहरों के
राजहंस की प्रयोगधर्मिता झलकती है. “लहरों के राजहंस” नाटक की भाषा-शैली, संवादों की भंगिमा और शिल्प को मंच से जोडने का प्रयत्न
किया गया है और मोहन राकेश ने परंपरागत रंगमंच के तत्वों का रुढि में यथावत् उपयोग
न करके प्रयोगधीर्मिता की दृष्टि से उस में नई परिकल्पनायें जोडी हैं.
संदर्भ :
1.
मोहन राकेश – लहरों के राजहंस – पृ.सं. 40-41
2.
मोहन राकेश – लहरों के राजहंस – पृ.सं. 114
3.
मोहन राकेश – लहरों के राजहंस – पृ.सं. 113